पुल और दीवा – नीलम सौरभ

“माँ! वन्या भाभी तो आपकी पसन्द से आयी थीं न बड़े भइया की ज़िंदगी में, हमारे घर में। …फिर भी कभी आपको उनकी तारीफ़ करते नहीं सुना। …जबकि नित्या भाभी को तो आपने देखा भी नहीं था, शुरू में छोटे भइया का यूँ ख़ुद ही लड़की पसन्द कर लेना बहुत खलता भी था।…फिर ऐसा क्या हुआ कि आप नित्या भाभी की बलाएँ लेती नहीं थकतीं आजकल?”

 

“बात छोटी सी है बिटिया, समझने से ज्यादा महसूस करने की है। …रहती तो दोनों ही दूर हैं, ख़ास मौकों पर ही घर आ पाती हैं, लेकिन कहीं भी रहे, नित्या मेरे दिल के पास रहती है हरदम!”

 

“वही भेद तो समझना और महसूस करना चाहती हूँ माँ मैं! …अभी तो सास-ससुर के साथ रहती हूँ,  सबकी बड़ी लाड़ली हूँ, मगर कुछ महीने बाद मुझे भी अक्षय के साथ बंगलौर शिफ्ट हो जाना है। …क्या मैं भी वन्या भाभी की तरह उनके दिलों से दूर हो जाऊँगी या फिर नित्या भाभी की तरह दूर रहकर भी…?”

“नित्या बनने के लिए बस एक छोटा सा सूत्र याद रखना होगा लाड़ो!…तुझे कभी निराशा नहीं होगी। …हमेशा माँ-बाप और उनके बेटे के बीच एक पुल बनना, दीवार नहीं!”

________________

 

(स्वरचित, मौलिक)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!