पितृ ऋण – प्रीति आनंद अस्थाना

 

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“डैड, मेरी कम्पनी का जो नया ब्राँच खुला है न इंडिया में, मुझे उसका चार्ज दिया गया है, तो मुझे अगले हफ़्ते इंडिया जाना होगा।”

“पर उत्कर्ष, अभी कुछ समय पहले ही तो एक महीना वहाँ बिता कर आए हो?”

“तब मैं वहाँ कम्पनी का नया ऑफ़िस स्थापित करने गया था।”

“और अब?”

“अब कंपनी ने इंडिया ट्रांसफर कर दिया है, वहाँ जो नया ऑफिस खुला है, उसे अब कुछ समय के लिए मुझे ही सँभालना है।”

धक्का लगा उन्हें! फिर से इंडिया! कितनी मुश्किल से पीछा छुड़ाया था उस देश से उन्होंने… दीनानाथ पाटिल उर्फ़ डैनी ने! लगा जैसे क़िस्मत फिर से उन्हें उसी ओर खींच रही है! डर भी लगा, कहीं उत्कर्ष ……..

“तूने मना क्यों नहीं किया? कहते मेरे पेरेंट्स सीनियर सिटिज़न हैं। उनकी तबियत भी सही नहीं रहती। मैं नहीं जा सकता?”

“ये सब बातें नहीं सुनी जाती हैं मल्टीनेशनल कम्पनियों में, डैड। उन्हें बस अपने काम से मतलब होता है।”

“तो तुम कोई दूसरी नौकरी ढूढ़ लो! तुम्हें तो कोई भी नौकरी मिल जाएगी, इतने हाइली क्वालिफाइड हो।”

“ये एक चैलेन्ज है डैड, कंपनी को जब इंडिया वाले ब्राँच से प्रॉफ़िट मिलने लगेगा तो मेरा कैरियर ऊँचाइयों पर पहुँच जाएगा। फिर वे मुझे एक एम्प्लॉई से पार्ट्नर भी बना सकते हैं!” उत्कर्ष का जवाब सुन वे चुप हो गए।

उत्कर्ष ने डैड को ये नहीं बताया कि उसने स्वयं अपने बॉस से अनुरोध किया था इस पोस्टिंग के लिए।

कुछ ही सप्ताह पूर्व इंडिया के पुणे शहर गया था उत्कर्ष अपनी कम्पनी की शाखा को स्थापित करने के लिए। काम के बीच में पड़े एक वीकएंड में वह अपनी मौसी के यहाँ चला गया था जो मुंबई में रहती थीं।



“पुणे में खुल रहा तुम्हारा ऑफ़िस? अरे, वहीं पास में तो तुम्हारा ददिहाल है। क्या नाम था गाँव का….. अंबोली…. हाँ यही। याद है मुझे अच्छी तरह से। दीदी विदा होकर वहीं तो गई थी।”

ये सब जानकारी उत्कर्ष के लिए नयी थी! अपने ददिहाल में वह किसी को नहीं जानता था! अचंभित ही रहता कि डैड के तरफ़ का कोई भी नज़दीकी रिश्तेदार उनके संपर्क में क्यों नहीं है?

“मेरे दादाजी का नाम क्या था?”

“पाटिल …. शंभुनाथ पाटिल। इससे ज़्यादा मैं नहीं जानती।”

अगले वीकेंड वह अंबोली पहुँच गया था मन में उठ रहे हज़ार प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने… वो कहाँ से आया है…. उसकी फ़ैमिली में कौन-कौन है, क्या कोई अपना मिलेगा? आदि!

धड़कते दिल से जब वह गाँव पहुँचा तो एक बुज़ुर्ग से उसने शंभुनाथ पाटिल का घर पूछा। पता तो उन्होंने बता दिया, पर थोड़ा आश्चर्य ज़ाहिर किया,

“कौन हो बेटा? आज तक तो शंभु काका से मिलने शहर से कोई नहीं आया! जब उनके बेटे ने धोखे से उनकी सारी ज़मीन बेच दी व उनसे सारे संबंध तोड़ विदेश चला गया तबसे बेचारे दोनों अकेले ही रहते हैं।”

“जी मैं उनका दूर का रिश्तेदार हूँ।” मन बहुत व्यथित हो उठा था। उसके दादा-दादी ज़िंदा हैं, इतने बरसों से अकेले रह रहे हैं और उसे पता ही नहीं!

घर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। परंतु जो वृद्ध-द्वय सामने बैठे थे उन्हें देख उसकी आँखों से गंगा-जमुनी धार बह निकली! कृष्काय, शरीर पर एक छटाँक माँस नहीं पर अपना सब कार्य स्वयं करते हुए। क्या यही उसके दादा-दादी हैं?

उनके पाँव छूते हुए जब उसने अपना परिचय दिया तो उनको सम्भाल पाना उसके लिए असंभव हो गया।

इस मुलाक़ात ने स्वयं उसे भी बहुत अस्थिर कर दिया था परंतु इस वृद्ध दम्पत्ति की हालत को शब्दों में बयान करना उसके लिए नामुमकिन था। जिसका उन्होंने दशकों से सपना देखना भी छोड़ दिया था वो अगर सच बन उनके सामने आ जाए तो दिल की धड़कन तो कुछ पल को रुक ही जाएगी न!



जब सोमवार प्रातः वह पुणे लौटने लगा तो दादा-दादी बेतहाशा रोने लगे… उन्हें लग रहा था कि उनके पुत्र की तरह उनका पोता भी अब कभी लौट कर नहीं आएगा। बेटे का तीस वर्षों से इंतज़ार कर रहे बूढ़े माँ-बाप ने अपनी क़िस्मत से समझौता कर लिया था। पर अब……

“दादीमाँ, दादाजी मैं आपसे अपनी क़सम खा कर कह रहा हूँ, मैं आपलोगों को छोड़ कर कभी नहीं जाऊँगा। फ़्राइडे शाम को मैं वापस आ जाऊँगा, आप बिलकुल निश्चिंत रहें। नौकरी तो करनी है न!”

शायद ये सप्ताह उस दम्पत्ति के जीवन का सबसे लम्बा इंतज़ार रहा होगा पर जब शुक्रवार को उत्कर्ष वापस लौटा तो मानो उनके जान में जान आ गई। दादी का मुस्कुराता चेहरा तो सचमुच में सुंदर लग रहा था!

खून के रिश्ते में कोई बात तो होती है…. वह हमारे हृदय के तारों को झंकृत करने से कभी नहीं चूकती।

उस सप्ताहंत उत्कर्ष से जितना बन पड़ा उसने दादा-दादी के रिहाइश को बेहतर करने की कोशिश की। ये उसका इंडिया में आख़िरी वीकेंड था, अगले शुक्रवार उसकी वापसी की फ़्लाइट थी पर उसने अपने भविष्य का खाका मन ही मन में तैयार कर लिया था।

पूरा एक महीना लगा उसे अपने बॉस को इस बात के लिए मनाने में कि उसका ट्रांसफ़र भारत वाले नव-स्थापित दफ़्तर में कर दे। इसके लिए उसे न सिर्फ़ सफलता का आश्वासन देना पड़ा, वरन पहले से कम वेतन पर काम करने के लिए भी राज़ी होना पड़ा।

परंतु उसे इन बातों का कोई ग़म न था। उसने निश्चय कर लिया था कि अपने दादाजी व दादीमाँ की बची हुई ज़िंदगी में ख़ुशियाँ भरने के लिए वह कुछ भी करेगा।

जिस पितृ-ऋण को अमरीकी नागरिक बन चुके उसके माता-पिता चुकाने से चूक गए थे, उससे उन्हें उऋण करने का कर्तव्य उनके बेटे का ही तो होगा न!

स्वरचित

प्रीति आनंद अस्थाना

10 thoughts on “पितृ ऋण – प्रीति आनंद अस्थाना”

  1. Yah kahanion me hi Hota Hai Hakikat se bahut door hai aisa nahi ki namumkin hai sab sambhav hai agar pote ka purv janm ka karj ho

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