नोट.. इस रचना का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नही है कृपया कोई भी अन्यथा ना ले।
मेरे सास ससुर हमेशां दूसरों के लिए दयाभाव रखने वाले थे। अपने द्वार पर आने वाले किसी जरूरतमंद को उन्होंने कभी खाली हाथ नही लौटाया था।दिल खोल कर दान भी करते थे। जब तक हम सब संयुक्त परिवार में थे तो अपने सास ससुर को जो करते देखा वैसे ही सब किया । लेकिन अब जबकि सबके अपने अपने घर बन गए थे तो सब अपने मन और सुविधानुसार ही सब कुछ करने लगे थे।
मुझे अब किसी दिन त्योहार या श्राद्ध वगैरह पर पंडितों को कुछ भी देना सही नही लगता है।क्योंकि मेरी सोच थी कि पंडितों को तो बहुत लोग देते हैं। वो भी कितना खा पाते होंगे उससे बेहतर तो ये कि किसी जरूरतमंद का पेट भरा जाए।
गरीब लोगों को खीर पूड़ी हलवा ये सब कहाँ नसीब होता है।ऐसी महंगाई में तो उनकी थाली में दो वक्त की दाल रोटी भी आ जाये ये भी उनके लिए बहुत होता है और मेरी इस सोच में मेरे पतिदेव हमेशां मेरा साथ देते हैं इसलिए मुझे कभी दिक्कत नही हुई हालांकि मुझे पता है कि मेरे ससुराल के बाकी लोगों के मन मे मेरे लिए इस बात को लेकर हमेशां गुस्सा ही रहता है।
इस बार भी सासु और ससुर जी के श्राद्ध वाले दिन मैंने अपनी काम वाली,उसकी लड़की ,घर के साथ ही रहने वाले ऐसे ही लोगों के बच्चे और दुकान पे काम करने वाले लड़के को खाना खिलाया।खाना खाते समय और उसके बाद उन सबके चेहरे पर जो तृप्ति और खुशी दिखी उससे मेरे मन को कितनी खुशी मिली बता नही सकती। उनके जाने के बाद भी मुझे यही संतुष्टि रही कि मैंने पंडितों को ना बुला कर किसी जरूरतमंद का पेट भरकर एक बहुत अच्छा काम किया है।
अचानक से मेरी निगाह सासू माँ और ससुर जी की तस्वीर पर पड़ी तो लगा कि वो मुस्कुरा रहे हैं और मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं।
स्वरचित एवम मौलिक
रीटा मक्कड़