hindi stories with moral : रविन्द्र जी की पूजा की घंटी बराबर बज रही हैँ…. जोर जोर से गाने की आदत हैँ उनकी….आरती कुंज बिहारी की,श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की…..जबसे रिटायर हुए हैँ तो पूजा पाठ को भी एक घंटा देने लगे हैँ…
तभी बिटिया आशी का फ़ोन आया…. पत्नी जी ने उठाया…. थोड़ा ध्यान रविन्द्रजी का भी भटका फ़ोन की घंटी से… पर वो फिर अपनी आरती करने में मगन हो गए… पत्नी कमला जी उदास थी…पूजा खत्म होने पर रविन्द्र जी पत्नी जी से बोले … फिर वहीं समस्या… तूने फ़ोन किया हर्ष और विनीत को… दोनों में से कोई राजी हुआ आशी के ससुराल उसे लेने जाने को…. आशी के ससुराल वाले दकियानूसी विचार के हैँ… जब तक बहू के ससुराल से भईया य़ा कोई अपना लेने नहीं आता तब तक मजाल हैँ वो भेज दें भले ही बहू कितने भी बरतन पटक ले….
आशी की भी गलती नहीं… पूरे साल में एक गर्मी की ही छुट्टियां होती हैँ… जब बच्चों के भी स्कूल बंद हो ज़ाते हैँ तो वो मायके कुछ दिन रह आती हैँ…. भाई दोनों बाहर अपने पत्नी बच्चों सहित नौकरी वाली जगह पर रह रहे हैँ….
जी मैने किया था फ़ोन…. जी हर्ष का तो आपको पता हैँ अभी नयी जगह पर नौकरी कर रहा हैँ…. तो उसे तो छुट्टी मिल ही नहीं सकती… और विनीत तो आ ही नहीं सकता बच्चों को स्कूल वहीं छोड़कर आता है …. बहू तो बस घर तक ही सीमित हैँ जी ….
कमला जी ने बात को संभालते हुए बोला…. जबकि बेटों ने हर बार की तरह वहीं जवाब दिया कि कब तक आशी के यहां सावन पर त्योहारों पर सामान देने ज़ाते रहेंगे हम …. क्या वो खुद नहीं आ सकती… पांच साल हो गए उसकी शादी को…. हम पर बेकार के कामों के लिए टाइम नहीं हैँ….
हार्ट के पेशेंट रविन्द्र जी का पारा बढ़ रहा था…. मैं करता हूँ इन कमीनों से बात … इतना भी टाइम नहीं कि एक दिन के लिए आकर बहन को ले आयें….
उन्होने पहले बड़े बेटे हर्ष को फ़ोन लगाया….
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हेलो नमस्ते पापा….
नमस्ते …. ये बता तेरे पास इतना टाइम नहीं की तू आशी और बच्चों को ले आयें….
वो वो पापा इतनी दूर तो आपने उसकी शादी की हैँ…. जाने में ही 9 घंटे लग ज़ाते हैँ… और आने में भी उतने ही… फिर उसे घर छोड़ो…. शुरू में दो साल तक लगातार मैं ही गया हूँ…..
और अभी भी कभी कभी चला जाता हूँ…..
पर अब नहीं….मेरे भी अपने काम हैँ….. आप विनीत से कह दो…. हर्ष साफ साफ रोष में बोल गया….
वाह बेटे… ऐसे ही कल जब शब्बो फ़ोन करेगी और तेरा पिंटू मना कर देगा तब पता चलेगा…. रविन्द्र जी बोले….
मैं आपकी तरह बेवकूफ नहीं पापा…. लोकल ही शादी करूँगा … और ऐसे आदम के ज़माने की सोच वाले परिवार में तो कतई नहीं जायेगी शब्बो….
ठीक हैँ… अपना काम कर तू … मैने ब्याहा हैँ उसे… मैं बेवकूफ हूँ तो मेरी ज़िम्मेदारी हैँ आशी…. इतना बोल रविन्द्र जी ने फ़ोन काट दिया….
दूसरी उम्मीद थी विनीत… अंदर के ज्वाला को शांत करते हुए उन्होने विनीत को फ़ोन लगाया…
हेलो पापा.. नमस्ते …. कैसे हैँ??
मैं ठीक हूँ…. एक काम कर आशी और बच्चों को ले आ घर …..
हर्ष कई बार जा चुका हैँ… अबकि तू चला जा….
क्या पापा मैं …. आशी खुद भी तो आ सकती हैँ जीजा जी के साथ…. मैं नहीं लाता कविता(पत्नी) को … ज़माने चले गए पापा….
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बेटा…. उनके यहां ऐसा रिवाज नहीं हैँ…. पैसे चाहिए हो वहां मिठाई और बाकी खरचे के … वो मुझसे ले लेना… पर तू चला जा….. बेचारी एक एक दिन गिन रही हैँ घर आने को… छुट्टियां भी खत्म हो जायेंगी बच्चों की…. रविन्द्र जी असहाय होते हुए बोले…75 साल के हो गए… अब लम्बे सफर नहीं होते उन पर … बिमार पड़ ज़ाते हैँ… ऊपर से वहां बेटी को सुनने को मिलता हैँ कि भाई नहीं आतें …. कोई बात है क्या ….
पापा… पैसों की बात नहीं …. मैं नहीं जाऊंगा…. ना आज ना कल …. मेरे भी अपने काम हैँ… वैसे भी कोई जंगल में तो रह नहीं रही वो…. अगली साल आ जायेगी….
यह सुन रविन्द्र जी और कमला जी के सीने पर ऐसा लगा जैसे किसी ने छुरी मार दी हो…..
ठीक हैँ… सब अपने काम देखों… ये वहीं बहन हैँ जिसने तुम्हारे बच्चों के गंदे कपड़े धोये… भाभियों को बिस्तर पर रोटी खिलायी जब उसके भतीजे भतीजी का जन्म हुआ… ख़ुशी से फूली नहीं समायी थी…. पूरे मोहल्ले में अपने पैसों से मिठाई बांट आयी थी… कितना नाची थी कि मैं बुआ बन गयी…. रविन्द्र जी ने आँखों में आयें आंसुओं को पोंछकर फ़ोन काट दिया….
फिर किसी को फ़ोन लगाया……
अब किसे कर रहे हो जी…. अब किसी से मत कहो… सब मना है करेंगे…. कमला जी बोली…
तू शांत रह…
उन्होने फ़ोन लगाया…. हेलो राकेश…. सुन सुबह 6 बजे गाड़ी लेके आ जाना… आशी के ससुराल उसे लेने जाना हैँ… 6000 की जगह 7000 ले लेना पर कल ही जाना हैँ….
अरे अंकल जी…. आपकी बात को कभी टाला हैँ…. कल की बूकिंग कैंसिल…. आप ही जा रहे हैँ… कोई और भी चल रहा हैँ??
नहीं बस मैं …. ठीक हैँ आ जाना समय पर … मैं तैयार मिलूँगा….
अगले दिन बिटिया को लेने सफारी सूट पहन रविन्द्र जी चले गए…. बिटिया पिता को देख सब बात समझ बच्चों की तरह पिता से लिपट गयी…. और रो पड़ी….
ये रविन्द्र जी का अंतिम सफर था बिटिया को लाने का… बेटी आशी अब कभी भी हिम्मत नहीं कर पाती कहने की कि मुझे ले जाओ…. आखिर एक पिता ही हैँ जो अपने बेटी की एक ख़ुशी के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देता हैँ… और एक बेटी पिता से ही हक जता पाती हैँ….. बाकी रिश्ते तो बस नाम के हैँ…..
न हो तो रोती हैं ज़िदे, ख्वाहिशों का ढेर होता है
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आगरा