पिताजी को गुजरे दो माह हो गए थे, माँ तो बचपन में ही गुजर गई थी ,शारदा की , उनके जाने के बाद पहली राखी थी । शारदा पीहर अपने दो बच्चों के साथ आई थी, घर का माहौल थोड़ा बोझिल था। दोनों भाई और भाभी रस्मी तौर पर सामान्य ही बरताव कर रहे थे। नीमा भाभी जरूर उसके आस पास ही रह रही थी।
जगन और मगन भैया भी खाना खाते समय बड़े ही शांत मुद्रा में ही बातें कर रहे थे। आज राखी थी, शारदा बड़े स्नेह से भाईयों और भतीजों के लिए सुंदर रेशमी राखियाँ ,नारियल और उनकी पसंद की मिठाइयाँ लाई थी । शुभ मुहूर्त में राखी की रस्म पूरी हुई ; आज शारदा को पिताजी की कमी बहुत खल रही थी। बड़ा लाड़ करते थे पिताजी उससे। कहते थे , शारदा भी मेरी बेटी नही बेटा है।
तीन मंजिला बड़ा मकान और अठ्ठारह बीघा खेत छोड़ कर गए थे पिताजी ; साथ ही पेंशन की बची हुई बड़ी जमा राशि भी, जो उन्होंने कभी व्यर्थ खर्च नही की थी ।
दोनों भाई राखी बंधवा कर उठे, तो इस बार सिर्फ एक ही लीफाफा थाली में रखा। शारदा सोच रही थी ,अब शायद मैं भाईयों पर बोझ ही बन रही हूँ ,नही तो हर रक्षा बंधन पर मनपसंद साड़ी ,गहना बच्चों के कपड़े ,खिलौने और खूब सारे पकवान खिला पिला कर ही दोनों भाई भाभी उसे ससुराल बिदा करते।
पिताजी को गए अभी सात महीने भी नही बीते, और मुझे इशारा मिल गया ।
शाम को पति उसे लिवाने आ गए थे। भरे मन से वह भाभी और भाईयों से विदा लेकर ससुराल आ गई और सूटकेस कोने में रख दिया ; तभी उसे भाईयों के दिये लिफ़ाफ़े की याद आई, इस बार भाभीयों ने भी कुछ कपड़े, गहनों का आग्रह नही किया बस मिठाई का डिब्बा ही पकड़ा दिया था। उसने बड़े अनमने ढंग से लीफाफा खोला।
लिफ़ाफ़े में रखे पत्र को पढ़कर शारदा मानो मूर्तिवत ही हो गई ; आँखों से अविरल आँसू बहने लगे । अपनी संकीर्ण मानसिकता पर वह लज्जित हो उठी थी !
पत्र में लिखा था, हमारी लाड़ली बहन शारदा, पिताजी के जाने के बाद तुम अपने को कभी अकेला मत समझना, तुम्हारे दोनों भाई और भाभीयाँ हमेशा तुम्हारे साथ हैं। पिताजी की जो विरासत है, उसपर हम दोनों भाईयों के साथ तुम्हारा भी बराबर का हिस्सा है। हमें मालूम है ; पिताजी की तुम में जान बसती थी और तुम भी अपने दिल की हर बात उनसे साझा करती थी ।इसलिए अब भी हमेशा उसी हक और अपनेपन से अपने पीहर में आते जाते रहना !!
किरण केशरे