मेरे कंधे पर सिर रखकर फफककर रोने वाले 76 वर्षीय मोहन जी के प्रति मेरे मन मे वितृष्णा ही पैदा हो रही थी।मेरे मन मे बार बार आ रहा था कि एक बार कह दूं अरे मोहन बाबू क्यों नाटक कर रहे हों? मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय नही था इस कारण संकोचवश कुछ न कह सका।
पुणे आये दो माह हो गये थे,सोसाइटी में कुछ सीनियर सिटीजन्स से संपर्क हो गया था,सब मिलकर प्रतिदिन शाम को दो तीन घंटे क्लब में बैठकर गपशप करते थे।इससे समय तो कटता ही था साथ ही मन मस्तिष्क में परस्पर वार्तालाप से ताजगी भी भर जाती थी।यही मेरी मुलाकात जयपुर निवासी मोहन जी से हुई।
वे भी अपने बेटे के पास चार माह से अपनी पत्नी के साथ आये थे।पहली मुलाकात में मैंने महसूस किया कि मोहन जी मानो असीम दुःख के सागर में डूबे हुए हैं।हर समय गुमसुम और खोये खोये रहना ही उनके दुखी होने की कहानी बयान करता था।नये नये परिचय के कारण मैं उनसे तो कुछ नही पूछ पाया पर अन्य परिचित से उनके दुख के विषय मे जानकारी मालूम करने पर पता चला कि अभी दो माह पूर्व ही यहीं पुणे में उनकी पत्नी का अचानक निधन हो गया है,इसी कारण मोहन जी दुःखी रहते हैं।स्वाभाविक रूप से मेरा मन भी मोहन जी के प्रति सहानुभूति से भर गया।इस उम्र में जीवनसाथी का साथ छूट जाना वास्तव में दुखदायी तो होता ही है।
मोहनजी केंद्रीय सरकार की सेवा में उच्चाधिकारी रहे थे,अच्छी खासी पेन्शन वे प्राप्त करते थे,बेटा भी अपने जॉब में करीब एक करोड़ रुपये का पैकेज प्राप्त कर रहा था।पूरी संपन्नता मोहन जी भोग रहे थे।जयपुर में कोठी की देखभाल के लिये एक नौकर को छोड़कर आये थे।कैसे जीवन जिया,कैसे पत्नी के साथ पलपल जिये सब बातें वे धीमे धीमे स्वर में ऐसे बताते मानो वे पल वो अब भी जी रहे हों।मुझे उनसे भरपूर सहानुभूति हो गयी थी।मैं उनसे विशेष अनुराग रखने लगा था,वे भी अपने दुख सुख की व्यक्तिगत बाते मुझसे करने लगे थे।
एक दिन दोपहर में मैंने उन्हें सोसाइटी के पार्क में बनी गुमटी में पड़ी बेंच पर एक महिला के साथ बैठे देखा।दूर से भी साफ लग रहा था कि महिला उनकी परिचित है।बेतकल्लुफी से दोपहर के एकांत में वे उस महिला के साथ बड़े कंफरटेबल लग रहे थे।मैंने पहली बार उनके चेहरे पर मुस्कान देखी थी।मुझे अच्छा ही लगा।
इतने में ही महिला उठकर जाने लगी तो मैंने देखा मोहन जी ने उसे कुछ रुपए दिये।महिला इतेफाक से मेरे करीब से गुजरी तो पाया कि वह तो सोसाइटी के घरों में काम करने वाली मेड है।मुझे धक्का लगा,कि मोहन जी उससे इतना खुलकर क्यूँ बात कर रहे थे भला?मैंने अपनी गरदन झटक कर अपने नकारात्मक विचारों को भी झटक दिया।
उस दिन फिर शाम को ही क्लब में हम सब मिले।मोहन जी अब भी उसी अंदाज में गुमसुम से उदास चेहरे में ही दीखे।मुझे आश्चर्य तो था पर मैंने उनसे दुपहर की कोई चर्चा नही की। सोसायटी में ही एक मंदिर भी है,जिसकी साफ सफाई एक 40 वर्षीय महिला करती है।उस महिला को मंदिर समिति देखभाल के एवज में दस हजार रुपये मासिक भुगतान करती है।एक दिन मेरी निगाह दोपहर में ही मोहन जी को मंदिर वाली महिला के साथ बैठे देखा।
उनके चेहरे पर कोई उदासी नही थी।बड़ी ही आत्मीयता के साथ वे उस महिला से बात कर रहे थे।अबकि बार मैं अपने नकारात्मक विचारों को अपने से बाहर नही फेक पाया।मुझे मोहन जी दोहरे चेहरे पर आश्चर्य और क्रोध दोनो थे।ये कैसा व्यक्ति है जिसकी पत्नी को स्वर्ग सिधारे दो माह ही बीते हैं और यह नौकरानियों के साथ पींगे बढ़ा रहा है, अपनी उम्र का भी इसे लिहाज नही।मेरी नजरो से मोहन जी पूरी तरह गिर चुके थे। मैंने उन्हें जाहिर तो नही होने दिया पर मन से मैं उन्हें एक प्रकार से लंपट मानने लगा था।
इसी बीच उनका जयपुर कुछ रुके कामो को पूरा करने के लिये जाने का कार्यक्रम बन गया।जयपुर जाने का उनमें कोई उत्साह नही था।मैं मन ही मन कह रहा था कि यहां के गुलछर्रे उड़ाने को वहां मिलने की संभावना नही होगी,फिर अपने मूल घर जाने को क्यों मन करेगा?
जयपुर जाने से पूर्व संध्या को उन्होंने मुझे अपने टावर की लॉबी में बुलाया।मैं अन्मयस्क सा शिष्टाचार वश चला गया।मुझे देख मोहन जी मेरे कंधे पर सिर रख सिसक पड़े,वे बुदबुदा रहे थे कि जयपुर से सुनीता(उनकी पत्नी का नाम)के साथ पुणे आया था,अब किस मुँह से बिना उसके कैसे जाऊं?
मुझे उनकी करतूतों को देख और इस वाक्य को सुन कर ही घिन आ रही थी।मैं एक मिनट भी उनके पास रुकना नही चाहता था।पर मोहन जी रोते रोते कुछ ना कुछ बोले जा रहे थे।बोले मैं अफसर था अहंकारी रहा,मैंने कभी अपने अधीन कर्मचारियों को सम्मान नही दिया,घर की मेड तक को भी हमेशा हिकारत से ही देखा।
सुनीता देवी तुल्य थी,वो हमेशा कहती देखो जी ये भी तो इंसान है,हमे इनकी सहायता के साथ साथ मीठा भी बोल ले तो इनका दिल कितना बढ़ जायेगा।आप मीठा तो बोल ही सकते हो ना।पर मैंने उसकी कभी नही मानी।भाई जी आज जब वो चली गयी है ना मुझे उसकी एक एक बात याद आती है।
भाई जी,वो घर मे मेड आती है ना उसको रिश्तेदार की शादी में जाने के लिये 500 रुपये एडवांस में चाहिये थे,पर बेटा मुझपर गया है ना,उसने मना कर दिया।मुझे सुनीता की याद आ गयी,वो होती तो बिल्कुल भी मना नही करती।मुझे पार्क में मिल गयी तो मैंने उसकी कुशल क्षेम पूछकर उसे 500 रुपये दिये तो मुझे लगा सुनीता ऊपर से देख खुश हो रही है।
मुझे भी असीम शांति मिली।भाई जी अपने मंदिर में जो सफाई करती है ना वह एक सैनिक की विधवा है,अपनी दुख भरी बातें बताती है और मैं सुन लेता हूँ तो उसे बड़ी सांत्वना मिलती है।ये बाते सुन मैं अवाक रह गया।मैं मोहन जी को कितना गलत समझ बैठा था?ये तो एक प्रकार से प्रायश्चित कर रहे हैं।मुझे आज मोहन जी बिल्कुल बदले बदले लग रहे थे,मासूम से,अपनी स्वर्गवासी पत्नी के प्रति समर्पित से।नही नही वे पापी नही थे,मेरी सोच ही पापी थी।मैंने मोहन जी को बाहों में भरकर उन्हें तस्सली भी दी और जयपुर जाने को प्रेरित भी किया।
आप ही बताओ मोहन जी क्या पापी थे?
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित