सुदीप-हमने सुना है पुराने जमाने में तो बहू के आने पर बुआ, मौसी, चाची सब कई तरह की परीक्षाएँ लेते थे, आपके यहाँ भी बड़ा पुराना तौर तरीक़ा और इतना बड़ा परिवार है, हमारी चाँदनी (सुदीप की भांजी) बहुत सीधी है वो ये सब चालाकियाँ नहीं समझ पायेंगी, तो ध्यान रखिएगा।
सरला (चाँदनी की सास)-आप उस जमाने की बात कर रहे है जब बहुओं को छोटे छोटे कंकड़ पत्थर डालकर डाल चावल साफ़ करने दिया जाता था, ताकि पता चल सके कि बहू का काम सफ़ाई का है कि नही। अब ये सब नहीं होता, लोक लिहाज़, पर्दा अभी भी है हमारे यहाँ पर वो सब नहीं। आप निश्चिंत रहिए मैं हमेशा चाँदनी के साथ रहूँगी।
सुदीप (चाँदनी के मामा)- बिल्कुल आपका साथ होगा तो कोई दिक़्क़त नहीं होगी। ठीक है चलता हूँ शादी की बहुत तैयारियाँ बाक़ी है अब दिन ही कितने बचे है।
एक हफ़्ते बाद शादी का शुभ दिन भी आ जाता है विवाह बिना किसी नोकझोक, रुकावट के सुसंपन्न हो जाता है, और चाँदनी पहुँचती है अपने ससुराल।
मन में कई तरह के अच्छे बुरे ख़्यालों के साथ प्रवेश करती है हाथ में गणेश जी लेकर, जो चौखट लांघते ही आँचल से सरकने वाले होते है कि आगे आकर उसकी सास रोक लेती है। इतने में एक चाची कहती हैं एक मूर्ति नहीं सँभाली जा रही तो घर कैसे सम्भालोगी। बुआ सास आगे आकर कहती है अरे चाची! ये तो बहुत अच्छा शगुन माना जाता है कहते है आँचल से कुछ सरकने से जल्दी ही कोख भरती है।
चाँदनी बुआ सास की बात सुन शर्मा जाती है। चाँदनी को उसकी ननद एक कमरे में ले जाती है और थोड़ी देर आराम के लिये कहती है। नया घर, नये लोग कैसे सब करूँगी इसी उलझन में वो सो नहीं पाती है। उसकी सास थोड़ी देर बाद प्रवीण (चाँदनी का पति) के साथ अंदर आती है और कहती है मैं ख़ाना भिजवा रही हूँ दोनों साथ बैठकर खा लो।
रात में ख़ाना खाकर चाँदनी सबके पैर छू सोने जाती है और सासु माँ से पूछती है कि मम्मी कल कितने बजे उठना है।
सरला (चाँदनी की सास)-गाँव में थोड़ा सब जल्दी उठते है तो तुम सबके उठने से पहले उठ जाना।
चाँदनी को रात भर नींद नहीं आती है कही अलार्म ना बजा, और वो सोती ही रह गई तो। इसी डर से वो रात भर नहीं सो पाती है और सुबह 4 बजे के अलार्म बजने से पहले ही उठ जाती है जब उसकी सास उसे जगाने आती है वो नहा धोकर पूजा पाठ कर तैयार हो चुकी थी।
सरला (चाँदनी की सास)-अरे चाँदनी तुम्हें सुबह जल्दी उठने कहा था ना कि नहाने। दिसंबर की ठंड में इतनी सुबह नहाने की क्या ज़रूरत थी। अब तैयार हो गई हो तो चलो रसोईघर में सबके लिए कुछ मीठा बना दो।
चाँदनी-मम्मी क्या मैं हलवा बना सकती हूँ, क्योंकि मीठे में और कुछ मुझे अच्छे से आता नहीं।
सरला (चाँदनी की सास)-हाँ मैं भी यही कहने जा रही थी। हलवा बनाने में कोई ज़्यादा वेद नहीं पढ़ना है, जल्दी बन जाएगा। मैं सब सामान निकाल दे रही ही तुम फटाफट बना लो, क्योंकि ज़्यादा देर रसोईघर में रही तो सब बात बनायेंगी कि बहू को हलवा बनाना भी बताना पड़ रहा है क्या। वैसे बीच बीच में किसी बहाने से मैं आती रहूँगी, तुम परेशान मत होना।
सब रस्मों के बाद सरला और उनका परिवार अपने शहर वाले घर आ जाते है। सरला ने चाँदनी को घर के तौर तरीक़ों से परिचित कराया साथ में हमेशा उसके साथ लगी रहती, क्योंकि बहू को ऑफिस भी तो जाना होता था, जल्द ही चाँदनी ने ऑफिस के साथ साथ घर की भागदौड़ सम्भाल ली, क्योंकि उसकी सास कम माँ का साथ था।
सरला जी अपनी बहू पर बहुत गुमान करती पर कभी अपने मुँह से नहीं कहा। शादी के कुछ महीने बाद फिर गाँव जाना हुआ तो सरला जी के कहने से पहले ही चाँदनी ने अपने सूटकेस में केवल साड़ी पैक करी क्योंकि वो शहर में तो सूट भी पहनती थी पर अपने गाँव में बड़ों के आदर सत्कार के लिए साड़ी ही पहनी।
सब गाँव पहुँचे वहाँ भी उसने चाची सास और अपनी सास को कोई काम नहीं करने दिया सब काम ख़ुद करती। ये सब देखकर चाची सास बोली- दीदी तुम तो बहुत ख़ुशक़िस्मत हो जो ऐसी पतोहू मिली है, हमको भी ऐसी पतोहू मिल जाये तो जीवन सफल हो जाए।
सरला (चाँदनी की सास)-अरे का बात करती हो तुमको इस से अच्छी पतोहू मिले।
चाँदनी ये सब बात सुन रही होती है और सोचती है क्या मुझमें कुछ कमी है जो मम्मी ऐसे कह रही थी। मैं सब इतना अच्छे से करती ही फिर भी मम्मी कभी मेरी बड़ाई नहीं करती।
कुछ साल बाद सरला जी के छोटे बेटे की शादी तय हो जाती है और सब गाँव पहुँचते है तैयारी के लिए। गीत संगीत में पूरा गाँव इकट्ठा होता है, गाने बजाने के बीच सब अपनी अपनी बहुओं की तारीफ़ों के पुल बांधते है सब सरला जी से पूछते है- क्या बहन चाँदनी को आये 5 साल से ऊपर हो गया पर हमने कभी तुम्हारे मुँह से चाँदनी की तारीफ़ नहीं सुनी। पूरा गाँव तुम्हारी बहू की तारीफ़ करता है।
सरला (चाँदनी की सास) जी ज़ोर से ठहाका लगाते हुए कहती है- मेरी बहू किसी तारीफ़ की मोहताज नहीं। मेरे तारीफ़ करने से क्या होता है, असली प्रशंसा तो तब है जब दूसरें उसकी प्रशंसा करें, उसे सराहें।
मैंने अपनी बहू की कभी तारीफ़ नहीं कि जबकि मैं जानती हूँ आजकल ऐसी बहुएँ मिलना मुश्किल है।
सरला जी अंत में मज़ाक़ के लहजे में बोली अगर मैं तारीफ़ करती तो कहीं उसे नज़र लग जाती तो
चाँदनी ये सब सुनकर भावविभोर हो जाती है कि मैं मम्मी को कितना ग़लत समझती थी।
वहाँ उपस्थित महिलाएँ सरला जी की इस सोच से बहुत प्रभावित हुई। इसी के साथ ढोलक की ताल पर गीत के ये बोल थिरकने लगते है-
हो कोई मूरत ता से सी�मारे गावं में हो रेया रोका�रे आई बहु बतासे सी�हो आई बहु बतासे सी।
आदरणीय पाठकों,
लोगो का कहना होता है कि बहु अच्छी हो तो घर स्वर्ग बन जाये अगर ख़राब हो तो नर्क, पर एक सुखी परिवार के लिए बहू और सास दोनों की बराबर की भागीदारी होती है, क्योंकि बहू तो घर के तौर तरीक़ों से अनजान है अगर आप उसे मधुरता के साथ परिवार के माहौल से परिचित करवायेंगे तो बहु कभी अपने कर्तव्य निभाने में पीछे नहीं हटेगी। इसलिए परिवार के ख़ुशहाली के लिए सास और बहू दोनों के मध्य माधुर्य का होना बहुत ज़रूरी है।
उम्मीद है कि ये रचना पसंद आयी हो, तो कृपया रचना को लाइक, शेयर और कमेंट ज़रूर करें।
स्वरचित एवं अप्रकाशित (सच्ची घटना पर आधारित)
रश्मि सिंह