पतन  से रोकने वाली पत्नी –  सुधा जैन

” जहां चाय वही मित्र”, वसुंधरा  सुनंदा और आराधना  तीनों सहेलियों का यही नारा था। आज तीनों सहेलियां चाय की चुस्कियां का आनंद लेने के लिए आराधना के यहां इकट्ठे हुई ।आराधना के पति निलेश बाहर गए हुए थे, तो आराधना ने सोचा कि” चलो अपनी सहेलियों को बुलाकर बातें करते हैं”।, चाय की चुस्कियां लेते हुए  तीनों ने खूब सारी बातें की ।सुनंदा के बच्चों का स्कूल से आने का समय हो गया इसलिए वह चली गई ,लेकिन वसुन्धरा के बच्चे बोर्डिंग स्कूल में थे, इसलिए वह रुकी रही। आराधना ने महसूस किया कि वसुंधरा के बार-बार फोन आ रहे हैं ,और वह सभी को कुछ ना कुछ जवाब दे रही है। आराधना  उसकी परम मित्र थी, उसको बहुत अच्छे से जानती थी, उसे समझ में आया की वसुंधरा कहीं ना कहीं झूठ बोल रही है । आराधना ने कहा,” तुम मुझसे कुछ छुपा रही हो ,क्या बात है तुम्हारे पति के क्या हाल हैं? तब वसुंधरा ने कहा, मुझे नहीं मालूम उनके क्या हाल हैं? उनके पास हमारे लिए समय नहीं है, तो मेरे पास भी उनके लिए समय नहीं है”, क्या मैं उनका इंतजार ही करती रहूं? मैं भी अपनी नौकरी और अपनी योगा की टीम में मस्त हूं .जब बच्चे घर आते हैं तब हम परिवारिक माहौल बना लेते हैं और बाद में वही  अलगाव … आराधना समझ गई कि वसुंधरा अपने पति की उपेक्षा का बदला ले रही है। पति की व्यस्तता, उपेक्षा कुछ भी कहो, उसके कारण वसुंधरा में भी भावनात्मक गिरावट और अहंकार आ गया, और वसुंधरा कहने लगी कि” मैं भी दोस्त बनाती हूं छोड़ती हूं।”

 आराधना  उसे देखती ही रह गई। मेरी इतनी प्यारी दोस्त इतनी असुंदर बातें कर रही है, उसने अपनी सहेली के हाथों में हाथ रख कर कहा, “ये तुम नहीं तुम्हारे अंदर का अभिमान बोल रहा है, अपने अहम की तुष्टि में तुम अपने असली अस्तित्व को भूल गई अपने दोनों प्यारे बच्चों को तुम क्या संदेश दे पाओगी?

 भले ही तुम खुश  दिखने की जितनी कोशिश कर रही हो, अंदर से उतनी ही दुखी और अकेली नजर आ रही हो, प्रेम को समझना मुश्किल है। लेकिन मैं तो तुम्हें इतना ही कहूंगी कि तुम दीपक जी की पत्नी हो। पत्नी होती है,” पति को पतन से रोकने वाली ,ना कि खुद पतिता बन जाए ,उनसे बातें करो, उनकी परेशानियों को समझो और अपनी खूबसूरती से उनके दिल को जीतो । अपनी खूबसूरती की तौहीन मत करो।”

 आराधना को एहसास हुआ कि वसुंधरा के नरम गालों से गर्म आंसू लुढ़क कर उसकी हथेली को भिगो रहे हैं। वसुंधरा ने उसे गले से लगा लिया और कहा “मुझे रोने दो, मैं बहुत आगे निकल चुकी हूं, अब वापस कैसे लौटू,?

” कुछ नहीं हुआ है,” जब जागो तभी सवेरा”, स्वयं को भावनात्मक  टूटन से बचाओ, हम सब किसी विशेष निमित्त से इस संसार में आए हैं और इसी समय व साधनों के साथ किसी अच्छे उद्देश्य की पूर्ति कर हमें दुनिया को छोड़ना है”

 आराधना की प्यारी सखी पिघल गई और उसने सोच लिया कि” मैं अब सही राह पर चल कर ही आत्मिक शांति को पा सकूंगी” इस प्रकार एक सखी ने दूसरी सखी को “जब जागो तभी सवेरा” का संदेश देकर उसे नवजीवन का सूत्र देकर अपने सहेली धर्म का पालन किया।

 

 रचना मौलिक एवं अप्रकाशित

 सुधा जैन

 

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