परवरिश – स्मिता सिंह चौहान

अरे,जैसा अपने मायके से सीखकर आयी होती है ।वैसा ही तो ससुराल में करेंगी।”कहते हुए मिसेज शर्मा ने ,मिसेज गुप्ता को देखा।

“सुरभि जरा समोसे और तलकर ले आना।”अपनी ठोडी को अकड़ वाले अंदाज में ऊपर करते हुए किचन की तरफ देखकर बोली। मिसेज शर्मा ने आज अपनी कुछ दोस्तों को चाय पर बुलाया था।अब सारी सासें साथ बैठी हों,बहुओं की बाते लिये मरोड़ ना उठे पेट में ऐसे कैसे?

“मालती ,जरा जल्दी हाथ चलाओ। वहां समोसे और चिप्स दोनों खत्म हो रहे हैं।” कहते हुये सुरभि ने एक प्लेट मालती(कामवाली)की तरफ बढ़ा दी।

“सही कह रही हो,आजकल की बहुओं का यही हाल है। किसी का लिहाज नहीं ,बड़े छोटे का पता नहीं।अपनी मर्जी चलाना जानती है।”मिसेज गुप्ता ने ताल से ताल मिलाते हुये कहा।

“ये लीजिये समोसे ,मम्मी जी।आंटी आप भी लीजिये गर्म हैं।मैं साथ ही सब तलवा लायी,इतना गर्म लगता है रसोई में आजकल। किसी चीज की जरूरत हो तो बुला लीजियेगा मम्मी जी। मैं तब तक कमरे में कपड़े संभाल लूं।”कहते हुए सुरभि कमरे की तरफ मुड़ी ही थी कि “देखा क्या चालाकी से ,ए.सी में बैठनें का बहाना ढूंढ लिया। हमारी हिम्मत थी कि अपनी सास को ऐसा बोल देते।”कहते हुये ,मिसेज शर्मा की दोस्त ने सुरभि की पीठ होते ही खुसर पुसर शुरू की।

सुरभि इग्नोर करते हुए आगे बढ़ी ही थी कि “तभी तो कहती हूं ,परवरिश मायके में,जैसी हो वही तो दिखायेंगी।”

मिसेज शर्मा ने एक लम्बी आह भरते हुए टेढी मुस्कान दी ही थी कि सुरभि को जैसे उनकी मुस्कान चुभ गयी।

मिसेज शर्मा अपनी बात कहकर जैसे आश्वस्त थीं ,कि सुरभि उनकी दोस्तों के सामने उनकी बात को,अनसुना करके चली जायेगी। अक्सर सुरभि यही करती थी, जो भी बुरी लगे उसे मिसेज शर्मा से,अकेले में बोलती थी।लेकिन शायद आज सुरभि का मूड कुछ उल्टा पुल्टा सा था सुबह से,क्योंकि सुबह भी कामवाली के सामने मायके का ताना दिया था,तब भी इग्नोर ही किया था ।



पर शायद अब  बात उसकी परवरिश पर आ गयी थी,वो भी सबके सामने,”मम्मी जी ,आप को पिछले 8 सालों में मेरी कौन सी कमी लगी है? जो आप इतने लोगों के आगे मेरी परवरिश पर सवाल उठा रही हो।हर वक्त मायका कहां से आ जाता है? आप ही ने तो शादी के दूसरे दिन सलाह दी थी कि “बहु अब मायका भूल जाओ, ससुराल में तो ससुराल के हिसाब से ही रहना पड़ता है।ससुराल मतलब दूसरा जन्म ।अपने मायके में तो तुम अमानत थी हमारी,असली घर तो यही है तुम्हारा। तुम इसे जितनी जल्दी मान लोगी उतना सही रहेगा।मैने तो कभी भी अपने मायके की कोई बात नहीं रखी  उस दिन से।नहीं….sorry ..sorry मायके की बात रखी ना ,कि आप ने जो कहा वही किया,सेवा की ,घर संभाला,आपको कभी किसी,काम के लिए उठने नहीं दिया,क्योंकि ये सब मेरी मां ने सिखाया था। लेकिन ससुराल की परवरिश भी तो कोई चीज होती है ना मांजी, आपके सामने एक पैर पर इसलिए खड़ी नहीं हो सकती क्योंकि ससुराल की परवरिश में, ये सीखा नहीं। अब देखिये ना दादी सास ,इतने बुढापे में भी अकेले रहती हैं, अगर चार दिन को भी यहां आ जायें तो आप उनसे सीधे मुंह बात नहीं करतीं। जब आपने मुझे एक पैर में खड़े होने वाली परवरिश दी नहीं तो मैं कैसे करूं? अभी मैं जो अच्छाई में जी रही हूं ना वो मायके का है,वर्ना ससुराल के हिसाब से चलूं तो,आपको यहां होना ही नहीं चाहिए था वैसे ही जैसे दादी मां यहां नहीं  रहती हैं।कम से कम आप तो परवरिश की बात ना ही करें। हां जी आन्टी जी कहते हुए हुये मिसेज गुप्ता  की तरफ मुड़ी

“आप सभी महीने में किटी पार्टी,चाय पार्टी इसलिए ही कर पा रही हो क्योंकि सारी जिम्मेदारी बहुओं ने ले रखी है ।वर्ना आपकी सासों ने कभी आपके बच्चों की जिम्मेदारी के अलावा बुढापे में कोई पार्टी की। आप कह रही थीं कि आपकी बहू चिल्ला ,झल्लाहट से बात करती है,उसे तो दो साल हुए हैं आये हुए, मैं तो आपको पिछले पांच सालों से जानती हूं,उसके आने से पहले कौन से आपके घर में सुकुन के फूल बरसते थे।आपके घर से ऊंची आवाज में शोरगुल सुनायी देना रोज की बात थी। ये तो यहां पर सभी जानते हैं, अब अगर आपकी बहू भी आपकी तरह हो गयी है ।तो कुछ जिम्मेदारी आपकी ससुराल वाली परवरिश को भी दीजिए। शादी के बाद एक बेटी  के रहन सहन,इच्छा, हंसना बोलना,आदतें सब भूलने की सलाह देकर एक बहू के रूप में उसका पुनर्जन्म कराकर “हमें अपना मां बाप की तरह मानों ये कहकर ।,तो बच्चे तो  मां बाप की तरह ही  होते हैं।फिर हम जिस घर के हो जाते हैं,वहां का सब सीख लेते हैं,आखिर इंसानी फितरत है जिन लोगों के बीच रहता इंसान  ,वैसा ही हो जाता है। पूरा जीवन आपके घर में रहकर आपका रहन सहन के अनुसार अपने को सालों साल ढालने के बाद ,हमारे स्वभाव के लिये हमारा मायका आजन्म जिम्मेदार क्यों? कुछ श्रेय अपनी परवरिश को भी दीजिए। ससुराल वाली  परवरिश को।”

कहते हुए जैसे सुरभि, ने उस मानसिकता को,चोट पहुंचायी थी ,जहां हर चीज के लिये मायका बीच में आ जाता है ।सुरभि वहां से परेशान सी ,कुछ उधेडबुन में उल्झी हुई अपने कमरे की तरफ बढी  “मालती मैं ,कमरें में हूं,बाकि का काम तुम देख लेना।” मालती को आवाज लगाते हुए निकल गयी।

“देखा कैसी पटर पटर जुबान चलती है ,इनकी आजकल” खुसर पुसर अब भी बरकरार थी।

दोस्तों,क्या आप भी इस संकीर्ण मानसिकता से जूझते हैं, जहां उम्र भर ससुराल की दहलीज के अंदर अपनी जिंदगी को ससुराल के,अनुसार ढालने के बाद,नाजों से पली बेटी के सफर से निकलकर, सबके नखरे उठाने वाली बहू के किरदार  में ढलने के बाद  ,सालों साल रहने के बाद भी उसकी किसी भी भूल चूक या व्यवहार का जिम्मेदार मायका  हो जाता है ।अपना पक्ष अवश्य रखियेगा।

आपकी दोस्त,

स्मिता सिंह चौहान

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