परिंदे-कहानी-देवेंद्र कुमार

=====

राजकुमार अभय का जन्मदिन निकट आ गया है। एक महीना पहले से ही जन्मदिन समारोह की तैयारियाँ होने लगी थीं। पूरा नगर किसी नई नवेली दुल्हन की तरह सजा दिया गया था। हर दिन नृत्य-संगीत की महफिल जमती थी। न जाने कहाँ-कहाँ से कलाकार बुलाए गए थे।

जन्मदिन का भव्य समारोह राजधानी के बीचोंबीच बने विशाल खेल मैदान में किया जाता था। पूरी राजधानी वहाँ उमड़ पड़ती। अभय अपने हाथ से हजारों कैद परिंदों को आकाश में छोड़ता था। दीन-दुखियों को खूब दान भी दिया जाता था। यह हर वर्ष का नियम था। राजकुमार अभय का जन्मदिन राज्य का सबसे बड़ा त्यौहार बन चुका था।

जन्मदिन से एक दिन पहले दूर-दूर से लोग पिंजरों में बंद परिंदों को लेकर मैदान में जमा हो जाते थे-इनाम की प्रतीक्षा में। जो व्यक्ति जितने अधिक पक्षी राजकुमार को भेंट करता था, उसको उतना ही अधिक इनाम मिलता था।

सब लोग खुश हो जाते थे, लेकिन स्वयं राजकुमार अभय को उदासी घेर लेती थी अपने जन्मदिन पर। इधर दो-तीन वर्षों से एक विचित्र घटना घटने लगी थी। जन्मदिन से पहले कई रातों को अभय को एक डरावना सपना दिखाई देता और वह चीखकर जाग उठता, फिर नहीं सो पाता था। सपने में अभय को दिखाई देता कि वह एक घनघोर वन में चला जा रहा है, उसके दोनों ओर परिंदों के पंख फड़फड़ाने और चीखने की आवाजें आ रही हैं। वह आगे बढ़ता तो एक खौफनाक दृश्य दिखाई देता-दोनों ओर झाडि़यों में असंख्य परिंदे उलझे हुए चीख-चिल्ला रहे हैं।

अभय की समझ में न आता कि ऐसा क्यों होता है? लेकिन वह आतंक के कारण अंदर-ही-अंदर कांपता रहता। जन्मदिन समारोह की रात को हँसी-खुशी के बीच अगर कोई उदास होता था तो राजकुमार अभय।

इस बार भी वही हुआ। वही डराने वाला सपना-परिंदों का पंख फड़फड़ाना, चीखना-चिल्लाना। राजकुमार चौंक कर उठ बैठा। अभी दिन नहीं निकला था। अपने को महल की सुखद शैया पर पाकर भी चैन नहीं पड़ा। “आखिर क्यों दिखाई देता है यह सपना? पूरे वर्ष में कभी नहीं दिखाई देता! जिस दिन मैं हजारों कैद परिंदों को मुक्त करता हूँ उससे पहले क्यों परेशान करता है यह मुझे?” इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सका अभय को।



सुबह कुमार की उदासी सब को पता चल गई, पर उससे पूछने का साहस कोई न जुटा सका। राजकुमार घोड़े पर बैठ जंगल की ओर चल दिया। चारों ओर से बेखकर, अपने में मस्त राजकुमार को घोड़ा लिए जा रहा था।

घोड़ा रुक गया, तो अभय को जैसे होश आया। देखा, सामने एक तपोवन है। कुटिया के द्वार पर खड़े एक साधु मुसकराते हुए उसकी ओर देख रहे हैं।

अभय घोड़े से उतर पड़ा। साधु के चरण छुए। उन्होंने आशीर्वाद दिया और अंदर ले गए। कुटिया के पिछवाड़े हरे-भरे पेड़ों की घनी छाया में कोयल की कूक गूँज रही थी। रंगबिरंगे फूल सुगंध बिखेर रहे थे। अभय को अच्छा लगा।

साधु बाबा ने उसका हालचाल पूछा, तो अभय अपनी बेचैनी छिपा न सका। रात में देखा सपना बता गया। कहते-कहते उसकी आवाज कांपने लगी।

सुनकर बाबा हँस पड़े। उन्होंने कहा, “तुम्हारे जन्मदिन पर मैं स्वयं राजधानी आने वाला था। अच्छा हुआ, तुम आ गए। मैं जानता हूँ-शायद इसका कारण भी बता सकता हूँ। लेकिन उससे पहले तुम्हें मेरे साथ चलना होगा । तुम केवल देखोगे और सुनोगे बोलोगे कुछ नहीं।”

अभय ने तुरंत उसकी बात मान ली। वह अपने सपने का रहस्य जानने को उत्सुक था। थोड़ी देर बाद दोनों साधारण नागरिकों के वेश में एक ओर चल दिए। राजकुमार ने वन में कई स्थानों पर पक्षियों के फंसाने के लिए फंदे लगे देखे। वह आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगा। साधु और वह दिन भर इधर-उधर घूमे। राजकुमार ने पाया , हर कहीं लोग उसके जन्मदिन की तैयारी में परिंदों को पकड़ने में लगे हुए हैं। उसने लोगों को पिंजरे तैयार करते हुए भी देखा था।

अभय ने साधु बाबा से विदा लेनी चाही, तो उन्होंने कहा, “यही कारण है तुम्हारे दुःस्वप्न का। तुम पंछियों को अपने जन्मदिन पर मुक्त करते हो, इसलिए बेचारे पूरे साल कैद में पड़े रहते हैं। इस तरह फंदों में फंसाने से अनेक पक्षी मर जाते हैं। उनके पंख नुच जाते हैं। लोगो ने इसी को अपना धंधा बना लिया है। चाहो तो सपने का अर्थ स्वयं समझ सकते हो। तुम एक दिन की आजादी देने के लिए पंछियों को वर्ष भर कैद में रखवाते हो। उधर तुम परिंदों को मुक्त करते हो, इधर उन्हें फिर से कैद करने का चक्कर चल पड़ता है।

अभय ने जो कुछ अपनी आँखों से देखा था, उसका अर्थ साधु बाबा ने समझा दिया। सचमुच इस बात पर तो उसने कभी विचार ही नहीं किया था।

सोचता-विचारता अभय राजधानी की ओर लौट चला। उसने तुरंत घोषणा करा दी-“आज से राजकुमार के जन्मदिन पर कैद परिंदों को मुक्त करने की प्रथा समाप्त की जाती है।‘

राजकुमार के जन्मदिन पर लोग तरह-तरह के उपहार लेकर आए। कुछ लोग पिंजरों में कैद पंछियों को भी ले आए थे। उन्हें वहाँ से भगा दिया गया, लेकिन पिंजरे छीनने के बाद। अभय के हाथ पिंजरों के मुंदे द्वार खोलकर, कैद पंछियों को आजाद करने के लिए कसमसा रहे थे।

डस रात डरते-डरते नींद की गोद में गया अभय। कुछ नहीं हुआ, वह आराम से सोता रहा। सुबह उठा तो उसे कोई सपना आया हो ऐसा याद नहीं था। सारे कैद परिंदे आजाद हो चुके थे।====

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!