कमली , कल बहू को जरा आलता तो लगा देना…. वो मायके जाएगी और तू घर जाते-जाते रास्ते में पार्लर वाली को बोलते जाना… अच्छा तू रहने दे , मैं ही फोन कर बुला लूंगी …थोड़ा मेहंदी भी लगा देगी मानसी ने सहायिका कमली से कहा…।
और आकर डाइनिंग टेबल के कुर्सी में बैठ गई …यही तो वो समय होता था , जब मानसी बेटे और पति को दफ्तर भेज आराम की सांस लेती.. और साथ में चाय की चुस्कियां भी….!
6 महीने पहले ही बेटे का विवाह हुआ था.. अब तो जैसे बहू आर्या के रूप में एक दोस्त ही मिल गई हो मानसी को……. खूब जी भर के बात करती थी मानसी आर्या से , बिल्कुल दोस्त की तरह ….शायद इतने दिन से अकेले रहते रहते अकेलेपन का दंश अब समझ में आ रहा था जब बहू आ गई थी ….।
रोज की भांति अपनी चाय लेकर कुर्सी पर बैठी ही थी मानसी ….वैसे ही आर्या ने पूछा , मम्मी आप अपने मायके नहीं जाती….?
मानसी ने एक लंबी सांस ली ….फिर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ धीरे से सिर्फ इतना ही कहा….. ” नहीं “
थोड़ी देर रुक कर फिर बोली रौबदार, प्रतिष्ठित ” कुंवर चंदन प्रताप सिंह ” की बेटी हूं ना… आखिर मुझ में उन्हीं का खून है ना बेटा ….तो कैसे….??
सॉरी मम्मी , यदि आपको मेरे पूछने से दुख पहुंचा हो तो …दरअसल आप मेरे मायके जाने की तैयारी इतने उत्साह से कर रही हैं तो मैं सोची …आप यदि खुद…. आर्या आगे कुछ और बोलती मानसी ने स्वयं ही कहा ……नहीं बेटा मुझे अब कोई दुख नहीं होता , शुरू-शुरू में मुझे बहुत दुख होता था अब नहीं….
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ये तो मत बोलिए मम्मी कि अब आपको दुख नहीं होता ….इस बार आर्या मानसी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोली…. मेरे को अपने मायके जाने में आपकी उत्सुकता देख समझ में आता है मम्मी…!
खैर…. यदि आप चाहे तो मुझे अपने दिल की बात बता सकती हैं… आर्या ने कहा…. चाय की आखिरी घूंट पीकर कप टेबल पर रखते हुए मानसी , लंबी सांस लेते हुए बोली… बिल्कुल आर्या जरूर बताऊंगी तुझे सब कुछ बताऊंगी बेटा…..
रामगढ़ के प्रतिष्ठित राजपूत घराने में ” कुंवर चंदन प्रताप सिंह ” के घर मेरा जन्म हुआ था…. परिवार के अलावा नौकर चाकरों के मध्य बचपन बीता… सच बताऊं एक खांसी भी आती थी ना तो दौड़कर कोई आ जाता था , क्या हुआ…?
धीरे-धीरे विशेष देखरेख में मुझे घुटन सी महसूस होने लगी । किशोर अवस्था में तो मुझ पर और नजर रखे जाने लगे थे …यदि मैं किसी के साथ हंस बोल भी लेती तो मेरे घर पहुंचने से पहले ही वो खबर घर पहुंच जाती थी …..आखिर कुंवर चंदन प्रताप सिंह की बेटी की बात जो थी …..!
सच में आर्या , जब मैं दूसरी सहेलियों को देखती तो मुझे लगता …काश , हमारा परिवार इतना कट्टर और सख्त न होता ….मैं भी सहेलियों के साथ पिक्चर देखने , घूमने फिरने जा सकती..।
बस फिर क्या था …एक दिन कॉलेज में हमारी अचानक से जल्दी छुट्टी हो गई , हम सहेलियों ने प्रोग्राम बना लिया आज फिल्म देखने चलेंगे फिर वही से हम सब सहेलियां फिल्म देखने चले गए… मैंने सोचा था सही समय पर घर पहुंच जाऊंगी और किसी को पता नहीं चलेगा…. शायद वो मेरी पहली झूठ मेरे जिंदगी के लिए सबसे बड़ी भूल साबित हुई…।
पापा साहब को पता चल चुका था… अनेक सवालों से जूझती हुई मैंने उस दिन स्पष्ट रूप से कहना ही उचित समझा…. पापा साहब यहां के माहौल में मेरा दम घुटता है….. बस फिर क्या था , उसी दिन से …पापा साहब , जो घर के सर्वेसर्वा थे… उनकी नजर में मैं बिगड़ने लगी थी…।
क्या है ना आर्या .. हमारे जमाने में स्पष्ट रूप से अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने की आजादी भी अभिभावकों के सामने नहीं थी ।
बस फिर क्या था ..मेरे लिए वर ढूंढना शुरू…. हालांकि माँ साहब ने कई बार पापा साहब को भी और मुझे भी , अलग-अलग समझाया ….पापा साहब को सख्तियां कम करने को कहती और मुझे मर्यादा का पाठ पढ़ाती
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” बेचारी माँ साहब “
दोनों तरफ पिसतीं थी ….फिर एक दिन मुझे पता चला मेरी शादी एक राज घराने में तय कर दी गई है , कुछ औपचारिकता है बाकी है ….बस उसी दिन मैंने फैसला किया और पापा साहब को सब कुछ सच-सच बता दिया …..
क्या सच मम्मी …क्या बताया आपने …आर्या की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी…
यही कि ….पापा साहब , मैं मयंक को पसंद करती हूं ….बस फिर क्या था घर में भूचाल आ गया ….मेरे ऊपर पाबंदियां लगा दी गई ….शादी की तैयारियां जोर-जोर से शुरू हो गई , उन्हें लगता था एक बार शादी हो गई फिर सब ठीक हो जाएगा ….मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था …बस फाइनल ईयर के आखिरी पेपर के दिन …..पेपर खत्म होने के बाद मैं मयंक के साथ चली गई ….हमने कोर्ट में शादी की , फिर उसके घर गई ….मेरे सास ससुर ने मेरी बहुत इज्जत के साथ स्वागत किया….।
मायके की पूरी फौज पहुंची थी मयंक के घर…. पर मयंक और सास – ससुर की समझदारी से धीरे-धीरे मामला शांत हो गया …पर जाते-जाते एक बात कह गए थे उस घर में कभी कदम मत रखना… वरना हम दोनों (मम्मी पापा) जीते जी मर जाएंगे …इसे मेरी धमकी नहीं कसम समझना…।
क्या है ना आर्या… मुझे भी लगा था ,धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा… माँ, पापा मुझे माफ कर ,अपना लेंगे पर कभी-कभी झूठी शान.. दिखावटी.. बनावटी.. आडंबर के चलते लोग अपनी कीमती चीज भी खो देते हैं…।
कुछ दिनों बाद मयंक का तबादला दूसरे शहर में हो गया …हम वहां शिफ्ट हो गए… दिन बीतता गया… सहेलियों से , मोहल्ले वालों से… जिसका भी फोन नंबर था ..कभी-कभी माँ साहब और पापा साहब का हाल-चाल मिल जाया करता था…. सच बताऊं कभी-कभी दुख भी होता था…।
देख क्या है ना बेटा …मैं कभी अपने निर्णय पर पछताई नहीं …..क्योंकि मैंने बहुत सोच समझकर मयंक से शादी का फैसला लिया था …मयंक अच्छा लड़का था , सबसे बड़ी बात वो मेरी भावनाओं को समझता था फिर मैंने अपनी माँ साहब को देखा था…. सिर्फ राजघराने की बहू ही तो थी वो…और कुछ भी नहीं …मतलब उनकी खुद की सोच ,खुद के विचार की कोई अहमियत ही नहीं थी …और मैं वैसे जिंदगी बिल्कुल नहीं चाहती थी…।
इसीलिए कभी निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ …बस दुख इस बात का हुआ कि मेरे अपने मम्मी पापा समाज और दिखावे के चक्कर में मेरी इच्छाओं को दरकिनार कर मुझसे संबंध तोड़ लिया….।
फिर मैंने प्रण किया ,जब तक इज्जत से मेरे साथ मेरे पति मयंक को भी नहीं बुलाएंगे… तब तक मैं भी कदम नहीं रखूंगी उस घर में…।
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समय बीतता गया.. एक दिन , एक फोन आया….
हैलो…. कौन बोल रहे हैं …?
हेलो… मेरी आवाज नहीं आ रही क्या…? अरे कौन हो भाई …कुछ बोलते क्यों नहीं …?अजीब सिरफिरे लोग हैं ….जब बात नहीं करनी होती है , तो फोन लगाते ही क्यों है… झल्ला कर मैंने फोन रख दिया था…!
धीरे-धीरे एक-दो दिन के अंतराल में फोन आते …पर मेरे हेलो बोलने पर उधर से कुछ आवाज ही नहीं आती…. मैंने कई बार उस अनजान को ….फोन पर डांटा भी और फिर फोन काट देती…. ट्रूकॉलर में नंबर चेक किया ….किसका फोन है ..उस पर सिर्फ ” पहेली ” लिखा होता था …!
जानती है आर्या… एक दिन पहली बार मुझे लगा कि …कहीं…. माँ…. साहब ….तो नहीं ….फिर उसके बाद मुझे उस फोन का रोज इंतजार रहता …एक तरफ से ही खुद ही खूब बातें करती कैसी है माँ …?
अब मैंने माँ के बाद साहब लगाना छोड़ दिया था …
” शायद भावनाओं ने किसी औपचारिकता को जगह ही नहीं दी “…
मैं अपनी ओर से ही खूब बातें करती… कैसी है माँ …प्लीज बात कर ना …अच्छा पापा है क्या पास में …?कोई बात नहीं माँ…तू इसी तरह रोज फोन करना…।
फिर एक दिन जैसे ही फोन आया… मैं रोने लगी , आज तुझे बात करनी पड़ेगी माँ…एक बार तो बात कर ले …पापा ने कसम दे दिया है क्या …? प्लीज माँ.. एक बार …तेरी आवाज तो सुन लूं ….एक बार माँ ….पर उधर से कोई आवाज नहीं आई…।
मैं बहुत तड़पी , रोई ,गिड़गिड़ाई ….वो तो मयंक इतने अच्छे हैं ना कि मुझे हमेशा सहारा देकर संभाला….. जाने अनजाने मुझे रोज उस फोन का इंतजार रहता…. क्योंकि मैंने मान लिया था कि वो माँ ही है …जो अप्रत्यक्ष रूप से अनजान बनकर मुझे रोज फोन कर मेरी कुशलता जानने की कोशिश करती हैं…!
फिर अचानक वो फोन आना बंद हो गया ….एक बार मेरा मन घबराया… कहीं माँ….नहीं नहीं …माँ को कुछ नहीं होगा…. पर मैंने ठान लिया पता लगा कर ही रहूंगी …..पापा ने कसम डाल रखा था वहां मैं पैर ना रखूं ….फिर भी मैं कोशिश करके सहायिका जो बचपन में मेरी देखरेख करती थीं और जिन्हें हम सब मौसी कहते थे …वो सब की मौसी थी… माँ , पापा भी उन्हें मौसी ही कहा करते थे…
उनकी बेटी बुलबुल का फोन नंबर खोज निकाला और बिना देर किए तुरंत फोन लगा दिया …बिना कुछ सोचे समझे सीधे सवाल ही पूछ लिया…. माँ साहब कैसी हैं …?
आप मानसी दी …. उधर से आवाज आई …
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हां बुलबुल मैं मानसी ….माँ कैसी है..? एक बार मैं फिर भावुक हो गई थी…!
मैं सब समझ गई मानसी दी….इतने वर्षों बाद आप आज अचानक कैसे फोन की है …..
माँ साहब तो आपके जाने के 2 महीने के बाद ही….
क्या…..?
फिर वो फोन ….!
तू झूठ बोल रही है ना बुलबुल… मेरे पास एक फोन आता था वो पक्का माँ साहब का ही था… मैंने पूरे भरोसा से बुलबुल से कहा…
पर वो फोन करने वाली कभी बात नहीं करती होगीं…. मैंने ठीक कहा ना मानसी दी…
….हाँ…..
मैं …आज आपकी ” पहेली ” को सुलझा ही देती हूं मानसी दी…
आपके जाने के बाद एक बार माँ साहब ने आपको फोन किया था.. बिना कुछ बोले ..बिना कुछ बताएं.. और वो मेरी मां ( मौसी) को बोली थीं ये बात किसी को पता नहीं चलना चाहिए …..मैं मानसी की आवाज सुनकर उसकी कुशलता जान लेती हूं… और आप जानती हैं मौसी , मानसी भी अनजाने में खुश हो जाती है…. ऐसा माँ साहब ने मौसी को बताया था…।
उनका इस तरह फोन करके खुश होना मां (मौसी) को बहुत अच्छा लगा था …फिर अचानक एक दिन हार्ट अटैक से माँ साहब की मृत्यु हो गई…
तब मां (मौसी) ने पापा साहब से उनकी निशानी के तौर पर उनका मोबाइल मांग लिया था… बस उसी दिन से मेरी मां आपकी सहायिका जिन्हें आप मौसी कहती थीं… वो हर समय माँ साहब बन कर बिल्कुल उनकी तरह ही फोन लगाकर आपकी आवाज सुनती थी …ताकि आप माँ साहब समझ कर खुश होती रहे…
शायद इसी मजबूरी ने उन्हें अपनी आवाज निकालने की कभी इजाजत नहीं दी…!
मौसी ने इतना फर्ज निभाया मेरी खुशी के लिए …? पर अब क्यों बंद हो गया मौसी का फोन आना….?
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क्योंकि अब वो भी नहीं रहीं…. मानसी के साथ आर्या के आंखों में भी आंसू थे…. इस बार आर्या ने अपनी सासू मां का हाथ कस कर अपने हाथों में ले लिया था और उनके आंसू पोछ रही थी…!
तभी मानसी के फोन की घंटी बजी… अननोन नंबर ….
हेलो…. फिर उधर से कोई आवाज नहीं आई….
कौन …? प्लीज अब तो कोई पहेली ना बुझाओ ….अरे आप पापा साहब है ना ….?
हां बेटा….. मैं कुंवर चंदन प्रताप सिंह नहीं …पापा साहब भी नहीं…. सिर्फ मानसी का पापा बोल रहा हूं…!
बेटा तेरी माँ की बरसी है.. तुम और मयंक जरूर आना…
मानसी के मुख से अनायास ही निकला …पा…पा …सा…ह…ब ..
पापा साहब नहीं …सिर्फ पापा…
( स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित , अप्रकाशित रचना )
साप्ताहिक विषय : # बाबुल
संध्या त्रिपाठी