पहचान तो थी…( भाग 2)  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : “ये तारे देख रही हो कल्पना, निराशा के बीच भी आशा जगाए रखते हैं कि रात कितनी भी अंधेरी हो, हम टिमटिमाना नहीं छोड़ेंगे. तुम्हारे साथ बीता हर पल इन्हीं तारों की रोशनी की तरह है और तुम… तुम मेरे जीवन का चांद हो.” अमित की बातें फिर रह-रहकर याद आने लगीं. मुझे हल्का-सा बुख़ार था उस दिन, मेरे उतरे हुए चेहरे को देखकर उसने कही थीं ये बातें. दूसरी तरफ़ सुरेश हैं, जिन्हें फ़र्क़ ही नहीं पड़ता कि मैं ख़ुश हूं, दुखी हूं, हंसती हूं या रोती हूं. उन्हें स़िर्फ मेरा शरीर चाहिए होता है, वो भी अपनी सुविधानुसार. आज यह एहसास हो रहा है कि सुरेश को मेरी तरफ़ मेरे रूप-रंग और शरीर ने आकर्षित किया था,

मेरी रूह को समझने की, मेरे मन में झांकने की तो शायद उन्होंने कोशिश की ही नहीं कभी. हर बात पर ज़लील करते हैं. हर बात पर ताने देते हैं… और हर रोज़ मेरे भीतर कुछ टूटता है. “ममा, क्या हुआ है आपको?” पिंकी के कोमल स्वर कानों में पड़े, तो चेहरे पर मुस्कान आई. “कुछ नहीं बच्चा, आप सोये नहीं अभी तक?” “दो दिन बाद हमारे स्कूल में प्रोग्राम है, आपको आना है, याद है ना?” पिंकी ने पूछा, तो मैंने प्रॉमिस किया उससे कि याद है,

मैं और उसके पापा, दोनों आएंगे. सुरेश मुझसे भले ही कैसा भी व्यवहार करते हों, पिंकी पर जान देते थे. सो हम दोनों ही उसके स्कूल गए. प्रोग्राम शुरू होने ही वाला था कि मेरी नज़र जाने-पहचाने चेहरे पर गई. अमित, यहां पर? तभी उनका परिचय करवाया गया कि ये देश के जाने-माने लेखक व साहित्यकार अमितजी हैं. इन्हें मुख्य अतिथि के रूप में अपने बीच पाकर हम सभी गौरव का अनुभव कर रहे हैं. प्रोग्राम ख़त्म हुआ. अमित ने भरी भीड़ में इतने सालों बाद भी झट से मुझे पहचान लिया. हमारे पास आकर बोले, “आपकी बिटिया बहुत प्यारी और होनहार है.

इतनी कम उम्र में इतनी अच्छी कविता लिखी है. उसकी प्रतिभा को पहचानकर आगे बढ़ाएं.” “सुरेश, ये अमित हैं. कॉलेज में मेरे साथ थे.” “कल्पना, तुमने कभी बताया नहीं कि तुम अमितजी के साथ पढ़ी हो? सर, मैं चाहता हूं कि पिंकी की ट्रेंनिंग का ज़िम्मा आप अपने हाथ में लें. मैं ठहरा बिज़नेसमैन और कल्पना उसे क्या सिखा पाएगी?” सुरेश की बातें दिल में तीर-सी चुभती हैं. कितनी आसानी से हर जगह मुझे बेइज़्ज़त करने का मौक़ा ढूंढ़ ही लेते हैं.

ख़ैर, ख़ुद को संयत करके मैंने भी अमित से गुज़ारिश की, जो उन्होंने मान ली. अमित अब अक्सर पिंकी को स्पेशल ट्यूशन देने घर आने लगे. पिंकी की प्रतिभा से काफ़ी प्रभावित थे और अक्सर कहते कि कल्पना पिंकी तुम पर गई है. मुझ पर… मैं सोचकर मन ही मन रो पड़ती… सुरेश को तो पता ही नहीं मेरी ख़ूबियां… मेरी प्रतिभा… मेरे गुण? बस, दोष ही दोष देखते हैं वो. अमित को मेरी परिस्थितियों का अंदाज़ा हो रहा था. एक दिन उन्होंने गंभीरता से कहा,

“कल्पना, तुम कितना अच्छा लिखती हो. क्यों अपनी प्रतिभा को यूं ही व्यर्थ कर रही हो. लिखना शुरू करो. व्यस्त रहोगी, तो अच्छा महसूस करोगी.” “अमित, अब मन नहीं होता कुछ लिखने-पढ़ने का. शायद अब कुछ नहीं कर पाऊंगी मैं.” “मेरी कंपनी जॉइन कर लो. मुझे अच्छे राइटर्स की वैसे भी बहुत ज़रूरत है. चाहो तो सुरेशजी से मैं बात कर लेता हूं.” “अमितजी, मैंने पिंकी की ट्रेनिंग की बात कही थी, आप कल्पना को इस उम्र में ट्रेनिंग दे पाएं,

तो अपने रिस्क पर… हा हा हा… ” यही जवाब दिया था सुरेश ने सुरेश की हंसी ने आज मेरे दिल को तार-तार कर दिया था. पर अब मैंने सोच लिया था, जीवन ने मुझे अपने मनचाहे जीवनसाथी के साथ जीने का मौक़ा तो नहीं दिया, लेकिन अपने सम्मान और अपने अस्तित्व को बनाए रखने का अवसर मैं किसी हाल में हाथ से नहीं जाने दूंगी. मैंने अमित की कंपनी जॉइन कर ली. मेरी लेखन प्रतिभा अमित से छिपी नहीं थी, सो उन्होंने मुझे उसी के अनुरूप काम दिए. व़क्त गुज़रने के साथ-साथ मेरा खोया आत्मविश्‍वास फिर जागने लगा. मेरे काम की प्रशंसा अब होने लगी थी.

लोग मुझे मेरे नाम से पहचानने लगे थे. इसी बीच हम एक पार्टी में गए, जहां बहुत-से ऐसे लोग भी थे, जो मुझे अब मिसेज़ सुरेश खन्ना नहीं, कल्पनाजी के नाम से अधिक जानते थे. ऐसे कई छोटे-बड़े अवसर आए, जब इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति हुई. मेरे जीवन को अब एक दिशा और मक़सद मिल गया था.

यहां कुछ दिनों से मैं सुरेश में भी काफ़ी बदलाव महसूस कर रही थी. अब वो न तो पहले की तरह मुझे ज़लील करते थे और न ही मुझ पर ग़ुस्सा करते थे. मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी. “क्या बात है कल्पना, तुम कुछ सोच रही हो?” अमित ने पूछा, तो मैंने उससे अपनी दुविधा शेयर की. “कल्पना, मैं तुम्हें यह बात शायद पहले नहीं समझा पाया, लेकिन एक बात तुम मान लो कि हर इंसान को अपना सम्मान और आत्मसम्मान  ख़ुद कमाना पड़ता है. अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है. न स़िर्फ समाज को, बल्कि आपके बेहद क़रीबियों को भी यह साबित करना पड़ता है कि आप एग्ज़िस्ट करते हो.”

“…लेकिन अमित, तुम्हें तो मुझे कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी. तुम तो मुझे शुरू से वही सम्मान देते रहे हो.” “…ऐसी बात नहीं है कल्पना. मैंने तुम्हारा हुनर उसी व़क्त जान लिया था. लेकिन सुरेश अब तक नहीं जान पाया था, क्योंकि तुमने ख़ुद कभी कोशिश नहीं की. उसने तुम्हारी रूह को नहीं छुआ, लेकिन क्या तुमने कभी उसे छूने की कोशिश की? हर इंसान अलग होता है, जिसे अलग तरी़के से ही हैंडल किया जाना चाहिए.”

अमित की बातों में सच्चाई तो थी. मैंने ख़ुद को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था और बस सुरेश से शादी करने के ग़लत निर्णय पर ख़ुद को कोसती रहती थी. लेकिन सुरेश के सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई कभी लड़ने की कोशिश ही नहीं की. आज जब मेरी अलग पहचान बनने लगी है, तो सुरेश की नज़रों में अपने प्रति सम्मान भी नज़र आने लगा है. अमित सही कहते हैं कि हमें अपने बेहद क़रीबियों को भी यह साबित करना पड़ता है कि हम एग्ज़िस्ट करते हैं. यानी हमें सम्मान कमाना पड़ता है

अपनी मेहनत और संघर्ष से. ज़िंदगी फिर से अब मुस्कुराने लगी है, सुरेश का प्यार अब धीरे-धीरे मेरी रूह को छूने लगा है. “अमित तुमने एक सच्चे दोस्त और पथ प्रदर्शक की तरह मेरा साथ दिया. किस तरह शुक्रिया अदा करूं.” “कल्पना, मैंने स़िर्फ तुम्हें राह दिखाई, उस पर चली तो तुम ही हो, इसलिए ख़ुद को पहचानो,

अपनी मेहनत का क्रेडिट मुझे मत दो.” …सच कहा है अमित ने… आज रह-रहकर वही गीत ज़ेहन में उतर रहा है… पहचान तो थी, पहचाना नहीं… मैंने अपने आप को जाना नहीं… लेकिन आज मैं पहचान चुकी हूं ख़ुद को भी, अपने रिश्तों को भी और उनकी ज़रूरतों व ख़ूबसूरती को भी ||

गौरी भारद्वाज 

 

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