व्यवसायी जानकी दास जी के दोनों पुत्रों रमेश जी और सुरेश जी में आपस में बहुत मेल भाव था। बड़े पुत्र रमेश जी की पत्नी नंदिनी भी छोटे पुत्र दिनेश जी के लिए पुत्रवत भाव रखती थी और सब में आपस में बहुत ही स्नेह था। दोनों देवरानी जेठानी भी बहुत प्रेम भाव से रहती थी।
किंतु अनायास एक दिन हृदयघात से जानकी दास जी का निधन हो गया। पूरा परिवार शोक संतप्त हो गया। भारी मन से दोनों पुत्रों ने यथाशक्ति बहुत ही अच्छे तरीके से सारे क्रिया कर्म निपटाए।
सारे क्रिया कर्म के पश्चात सारी संपत्ति का बंटवारा दोनों पुत्रों में हो गया। चार दुकानों में से दो दुकानें रमेश जी को और दो दुकानें दिनेश जी के नाम हो गईं। घर की निचली मंजिल पर रमेश जी और घर की ऊपरी मंजिल पर दिनेश जी रहने लगे। ….. मगर कहते हैं ना कि संपत्ति ही कभी-कभी गृह क्लेश का कारण बन जाता है…. कुछ वैसी ही स्थिति यहां भी हो गई।…
स्वर्गीय जानकी दास ने एक और प्लॉट ले रखा था जिस पर वह अपनी नई दुकान डालना चाहते थे मगर वह प्लॉट अब यूं ही खाली रह गया। और अब वह प्लॉट किसके हिस्से जाए, इसमें दोनों भाइयों में विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि दोनों भाई अब एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते थे। एक ही घर में रहते हुए अनजाने जैसा व्यवहार हो गया था। बस यूं समझ लीजिए कि जमीन के मुकदमे में कचहरी की तारीखों में ही एक दूसरे का मुंह देखते थे। जो रक्त संबंध से एक दूसरे से बंधे थे अब जैसे एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए थे। दिन पर दिन बीतते जा रहे थे मगर इस विवाद का कोई हल नहीं निकल पा रहा था…..
उस दिन होली थी। विवाद प्रारंभ होने के बाद यह पहला अवसर था जब यह त्यौहार आया था। रमेश जी की धर्मपत्नी नंदिनी जी का हृदय आज बहुत कचोट रहा था। पहली बार ऐसा हो रहा था जब दोनों भाई इस तरह एक दूसरे के विरोध में खड़े एक दूसरे को देखना नहीं चाह रहे थे।
पर कर भी क्या सकती थी।….घर में होली के पकवान तो बन ही रहे थे मगर हृदय बड़ा कचोट रहा था। रमेश जी भी अनमन्यस्क भाव से उदास से कुर्सी पर बैठे हुए थे।…… तभी हाथों में रंग और गुलाल लेकर ऊपर से दिनेश जी नीचे उतरे। शायद मित्रों के घर होली खेलने जा रहे थे।….रमेश जी को देखकर एक क्षण को ठिठके और उनकी तरफ बढ़ने को हुए मगर फिर अचानक पलट कर आगे बढ़ने लगे। रमेश जी की आंखें भी छलछला गईं मगर उन्होंने भी दिनेश जी की ओर से आंखें फेर लीं…… नंदिनी जी, जो गुझिया की तश्तरी पति के लिए लेकर आई थी, वह वहीं खड़ी थीं। उनका हृदय इस बैर भाव के निर्मम प्रदर्शन पर विदीर्ण हुआ जा रहा था।
अंत में जब उनसे सहन नहीं हुआ तो उन्होंने जाते हुए दिनेश जी को आवाज दे ही दी,
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“- लल्ला जी! आज होली के दिन भी हमसे मिलकर नहीं जाओगे??”
सकपका कर ठहर गए दिनेश जी!… नंदिनी जी आगे बढ़ीं और दिनेश जी की हाथ में जो गुलाल था, उसमें से थोड़ा गुलाल लेकर दिनेश जी के भाल पर टीका लगा कर भीगे स्वर में कहा,
“- होली की शुभकामनाएं लल्ला जी! सदा सुखी रहो! जीवन में सदा उन्नति करो…”
दिनेश जी के पांव कांप कर रह गए। उनकी भी आंखें छलछला गईं। फिर उन्होंने थोड़ा गुलाल लेकर भाभी के चरणों पर डाल दिया, “-
“-आपको भी होली की ढेर सारी शुभकामनाएं भाभी!”….
फिर आंख उठाकर बड़े भाई की ओर देखा, जो कुछ बोल तो नहीं पा रहे थे मगर आंखों में छोटे भाई के लिए तड़प स्पष्ट दिखाई दे रही थी और आंखें डबडबाई हुई थीं।….. संपत्ति के कटु विवाद ने जैसे एक ही घर में रहते हुए दोनों के बीच मीलों की दूरी उत्पन्न कर दी थी। आज एक पलड़े में भ्रातृ प्रेम था और दूसरे पलड़े में अहं…
पर अचानक दिनेश जी आगे बढ़े और बड़े भाई के चरणों में गुलाल डाल दिया,
“-होली की बहुत सारी शुभकामनाएं भैया! आशीर्वाद नहीं दोगे मुझे??”
एक ही क्षण में जैसे सारा बैर भाव पिघल गया। रमेश जी ने नि:शब्द होकर कांपते हाथों से दिनेश जी के भाल पर गुलाल का टीका लगाया और खींचकर सीने से लगा लिया। नंदिनी जी की आंखें और हृदय तृप्त हो गए…… उन्होंने झट से कहा,
“-आप दोनों भाई बैठो, मैं गुझिया, मालपुआ और कोफ्ते लेकर आ रही हूं। छोटी को भी बुला ले आती हूं….”
उत्साह से एक ही क्षण में ऊपर की सीढ़ियां चढ़ गईं और देवरानी का हाथ पकड़े नीचे उतर आईं।
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रमेश जी के स्वर में अथाह स्नेह दुलार और पश्चाताप घुले मिले थे,
“- तू तो छोटा था छोटे, लेकिन मैं तो बड़ा था…. फिर भी बड़प्पन ना दिखा सका… अहं के दलदल में फंस कर रह गया। .. चल अभी भी देर नहीं हुई, वह प्लॉट तू ही रख लेना। प्लॉट मेरे पास रहे या तेरे पास.. एक ही बात है…”
दिनेश जी स्तब्ध रह गए फिर उन्होंने भी भीगे स्वर में कहा, “-
“- मैं ही क्यों रख लूं भैया! हम दोनों ही मिलकर उस प्लॉट पर एक नई दुकान खड़ी करेंगे और पिताजी का सपना साकार करेंगे। साथ दोगे ना मेरा??”
रमेश जी ने भी भावुक स्वर में कहा,
“- शायद तू ठीक कह रहा है छोटे! हमने कितने अनमोल क्षण मनमुटाव में भंवर में फंसकर गंवा दिए.. अब और नहीं….हम एक थे और एक ही होकर रहेंगे।”
तभी दिनेश जी बोल उठे,”- लेकिन मेरी भी एक शर्त है भैया! वह तो कान खोल कर सुन लो।”
तब तक नंदिनी जी भी पकवान लेकर वहां पहुंच चुकी थी, वह भी चौंक उठी।
रमेश जी अचकचा गए, उन्होंने कहा,
“- बोल छोटे… क्या शर्त है तेरी…”
दिनेश जी ने अब गंभीर स्वर में कहा,
“- बाद में मुकर तो ना जाओगे भैया??”
रमेश जी उलझन भरे स्वर में बोले,
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“- अब और पहेलियां मत बुझा छोटे… जो कहना है साफ-साफ कह…”
दिनेश जी नंदिनी जी के हाथों से थाली लेते हुए बोले,
“- मेरी एकमात्र शर्त यह है कि भाभी के हाथ के बने गुझियों और मालपुए में से बड़ा हिस्सा हमेशा मेरा ही रहेगा।”
उनकी इस बात पर सबकी हंसी छूट गई। नंदिनी जी की पहल से पूरा परिवार आज बहुत लंबे समय के बाद त्यौहार में एक साथ खुशियां बांट रहा था। जो संबंध द्वेष, ईर्ष्या और अहं के ताप से बेरंग हो गए थे, होली के रंगों ने उन्हें फिर प्रेम के रंगों से सराबोर कर दिया। सत्य है, अगर संबंध निभाने हैं तो वहां अहंकार और द्वेष का कोई स्थान नहीं होता।
निभा राजीव “निर्वी”
सिंदरी, धनबाद, झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
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