पगली – डॉ संगीता अग्रवाल : Moral stories in hindi

सब लोगों का झुरमुट लग गया था उस विशाल बरगद के पेड़ के चारों ओर,रेलवे स्टेशन की भीड़भाड़ आज ,अचानक उस चबूतरे के चारों ओर थी जहां वो “पगली “बैठा करती थी रोजाना, जाड़े, गर्मी,बरसात,कैसा भी मौसम हो वो वहीं रहती, दीन दुनिया से बेखबर,उलझे बाल,फटी हुई धोती पहने,धंसी हुए बेनूर आंखों से शून्य में निहारती,कभी कभी अचानक”मेरा बच्चा!मेरा गुड्डा!की हांक लगाकर फिर चुप हो जाती।समय की मारी कोई भिखारन थी शायद,कोई कुछ दे देता,खा लेती,नहीं तो भूखी ही रह जाती।

श्यामू से रहा नहीं गया,वो भीड़ को चीरता बढ़ा उस और…बुढ़िया अम्मा चल बसी क्या?इसी आशंका से घुसा वो वहां,देखा!कोई हैंडसम सा युवक उस बुढ़िया को बड़े प्यार और सम्मान से पकड़ कर अपनी गाड़ी की तरफ ले जा रहा था।

ये कौन है?इसका सूट गंदा हो जायेगा…श्यामू चौंका,लोगों ने रोका तो पता चला,बड़ी दुखभरी कहानी थी इस महिला की।ऐसे ही जाने ना देंगे यहां से,कुछ तो बताओ और फिर उसने संक्षिप्त में  उस पगली की कहानी कुछ यूं सुनाई।

माया नाम था उनका,बहुत खूबसूरत हुआ करती थीं कभी वो,सफेद गोरा रंग,गुलाबी होंठ और हिरनी से चंचल नैन वाली वो बहुत चंचल थीं और उस पर रीझकर महेश जी ने उनसे शादी रचा ली थी जो बहुत बड़े बिजनेसमैन थे।

शादी के बाद के कुछ महीने कैसे बीते पता ही नहीं चला,एक वर्ष बीत जाने पर,जब माया के पांव भारी न हुए,महेश की मां का माथा ठनका, अरे बहू बांझ है क्या?अभी तक तो आंगन में किलकारी गूंज जानी चाहिए थी।

महेश का व्यवहार भी बदलने लगा था माया के लिए,दबी जुबान उसने एकाध बार कहा भी था महेश से,डॉक्टर के पास चलते हैं,दोनो चेकअप करा लेंगे,आजकल तो अच्छे इलाज आते हैं,भगवान ने चाहा तो खुशखबरी मिल जायेगी।

वो बिफर गया,तुम जाओ,मुझे जरूरत नहीं है।

आखिर एक दिन,महेश की मां,माया को एक सिद्ध महात्मा जी के आश्रम ले गई।मर्जी के विपरीत, माया को वहां जाना पड़ा।श्रद्धा और अंधविश्वास के नाम पर लोगों के साथ होता व्यभिचार माया की आंखों से छिप न सका पर सासू मां प्रतिज्ञा बद्ध थीं उसे वहां छोड़ने के लिए।उनकी अंध भक्ति देखकर,माया का दिल कांप उठा पर उसकी एक न चली और उसे कुछ दिनो वहीं रुकने का आदेश मिला।

वो काली रात,बेहोशी के आलम में काटी थी उसने पर एक स्त्री थी और जान गई थी कि प्रसाद के नाम पर जो नशा उसे पिलाया गया था,उसकी आड़ में उसकी पवित्रता भंग की जा चुकी थी।

कुछ दिनो बाद,उसे उसके घर भेज दिया गया और फिर पूर्णमासी के पावन दिन आश्रम में हवन हुआ जिसमें वो पति और सास के साथ शामिल हुई।उसके पांव भारी हो चुके थे और सब बहुत खुश थे।उसने  महेश को बताना चाहा कि उसके साथ क्या हुआ था यहां पर उसकी आंखों पर अपनी मां की मानिंद पट्टी बंध चुकी थी,बाप बनने के मादक एहसास ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी।बेचारी माया भी खामोश हो गई।

समय बीता और माया ने गोरा, स्वस्थ,खूबसूरत लड़का पैदा किया।सब चकित थे,ये बच्चा किसके रंग रूप पर गया है पर भगवान का अद्भुत उपहार समझ सब खुश हुए।

महेश को हीनता का भाव आने लगा था, मैं एकदम गेहुए रंग का , बालक इतना गोरा,गुलाबी,क्या सिर्फ  अपनी मां पर गया था?धीरे धीरे, वो घर से बाहर, ज्यादा वक्त बिताने लगा,कुछ लड़कियां जो उसके इर्द गिर्द काम करती,उनसे घनिष्ठता बढ़ाने लगा।

माया ने लाख समझाया,एक बेटे के बाप हो,ये सब बातें शोभा नहीं देती अब आप पर,लेकिन उसने कान न दिया।

एक दिन,महेश की मां घबराई हुई माया के पास आई कि महेश को पुलिस जेल में पकड़ के ले गई है,उसके साथ रहने वाली किसी अमीर घराने की लड़की ने आरोप लगाया है उस पर  कि महेश की वजह से वो प्रेगनेंट है।

माया धक्क रह गई,ये हो ही नहीं सकता?

क्यों भला?ये क्या कह रही है तू? सास को लगा,बेचारी शॉक्ड हो गई है।

माया असमंजस में थी,पति की बेगुनाही साबित करवा सकती थी वो लेकिन फिर उसके अपने संबंध खराब हो जाते उन लोगों से,भला उसकी सास और पति ये सच जानकर बौखला नहीं उठेंगे कि उनका मुन्ना,उनका न होकर आश्रम का प्रसाद था।

कुछ समय अस्थिरता में गुजरा पर पति पर पुलिस का कसता शिकंजा ज्यादा देर न देख सकी माया,उसका दिल पसीज उठा,अपने निर्दोष पति को यूं पिटते न देख पाई और बदहवास दौड़ते हुए जाकर,पुलिस कमिश्नर के आगे सारी दलील पेश की।

फिर आपकी औलाद?ये कैसे हुई?उलझन से पूछा था उन्होंने।

पति की जान बचाने को तत्पर उसने सब राज उगल दिए,परवाह नहीं की ,ये सब उसके विरुद्ध जा सकता था।

जेल से तो छूट गया महेश लेकिन सच जानकर अपने छोटेपन के एहसास की कारागार से न निकल पाया।वो कुंठित होने लगा,पत्नी को देखता तो गुस्सा और बेबसी हावी होती,बच्चे को देखता तो हीनता सवार होती,फलस्वरूप उन दोनो से दूरी बना ली।

मां का व्यवहार भी रातों रात बदल चुका था,कुलटा,व्यभिचारिणी,चरित्रहीन किन किन उपनामों से उसे आरोपित करती वो,उसकी एक हंसी न बर्दाश्त करती।

मां बेटे के अपराधबोध ने निरपराध बहू का जीना मुहाल कर दिया और एक दिन गुस्से में आकर उसके कलेजे के टुकड़े को गायब कर दिया घर से।महेश ने अपने निसंतान दोस्त अखिल की अपना बेटा मुन्ना सौंप दिया जो अब्रॉड में था।

माया तो बच्चे के वियोग  में पागल ही हो गई,सारा दिन,उनके आगे गिड़गिड़ाती,रोती और अपने बच्चे को ढूंढ लाने को कहती पर उन्होंने न सुनना था,न सुना,उल्टे उस पर ही दोषारोपण किया कि अपनी लापरवाही के चलते वो एक बच्चे तक को नहीं संभाल पाई।

उनके बढ़ते अत्याचारों से हारकर,एक दिन दुखिया माया,घर छोड़ चली और किसी ट्रेन में बैठ कर वहां आ गई जहां से आज उसका बेटा मुन्ना उसे लिवा के ले गया था।

आपको इनके बारे में पता कैसे चला?किसी के पूछने पर वो बोला…अपना खून जोर मारता ही है,, मै शुरू से जान गया था कि मेरी मां के साथ  कुछ गलत हुआ है और जिनके साथ मै पला बढ़ा हूं,वो मेरे अपने नहीं हैं,आज महत्वपूर्ण ये नहीं है कि मैं,मेरी मां तो कैसे पहुंचा,जरूरी ये चिंतन है कि हम ऐसे कैसे समाज में रह रहे हैं जहां एक स्त्री की इतनी बेकद्री है?

इनको लोग पगली कहते हैं,ये सब मौसम की मार सहकर, आधे पेट खा कर,जुल्म सहती हुई अधमरी हो गई हैं,इसका जिम्मेदार कौन है?क्यों हम पुरुष वर्ग अपने साथ रह रही औरतों की इज्जत नहीं करते?मेरी मां को मेरी दादी जबरदस्ती आश्रम ले गई,मेरे पिता चुप रहे,उनको पुलिसिया जुल्म  से बचाने के लिए,मेरी मां ने अपनी फिक्र नहीं की और मेरे पिता ने उन्हें उनकी औलाद से ही दूर कर दिया,ये अपराध हमारे समाज में कब तक पनपते रहेंगे?अगर मै जागरूक होकर,अपनी मां को आज नहीं ले जाता  तो ये यहां सब मार सहती हुई दम तोड देती!तो पगली कौन हैं?मेरी मां?या समाज की वो सोच जो  उन स्त्रियों से दुर्भाव रखती है जो बेसहारा होती हैं,सब औरतों को बांझ कहने में मिनट नहीं लगाते,क्या वो  लोगों की मानसिकता बांझ नहीं है जो बिना सोचे समझे औरतों को कटघरे में खड़ा करती है?

प्रिय पाठकों!आपको ये कहानी कैसी लगी,अवश्य बताएं,कुछ चीजे हमारे समाज को जोंक की तरह चिपकी हुई हैं और उसका रक्त पी रही हैं,क्या उनसे मुक्ति नहीं होनी चाहिए,क्या एक बदलाव अपेक्षित नहीं है सामाजिक विचारधारा में?

 डॉक्टर संगीता अग्रवाल

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