ज्योति को आज अपनी सास की बहुत याद आ रही थी, रानी बिटिया की शादी थी। शादी में की जाने वाली इतनी रस्में और रिवाज वह कैसे निभाएगी,
उसे तो कुछ मालुम ही नहीं है। घर में ज्योति की दो ननन्दों पूजा और आरती की शादी हुई तब सासु जी ने कितना कहा था
-‘ज्योति बेटा! ये सारी रस्म और रिवाज याद रखना । रानी बिटिया की शादी में तुम्हें भी ये सब निभाने पपड़ेंगे’ तब तो ज्योति ने उनके ऊपर झाड़ू मारा था
– ‘ये सारे चोचले हैं, आप ही करो मुझे नहीं सीखना।’ आज उसकी मारी झाड़ू उसे ही दर्द दे रही थी। रानी के ससुराल वाले आधुनिक विचारों के थे
मगर उनका कहना था कि ‘विवाह हम पूरे रीति रिवाज के साथ करेंगे, हमारे पूर्वजों ने जो रिवाज बनाए हैं, सबका अपना अलग महत्व है।
‘ज्योति को समझ नहीं आ रहा था क्या करे? रानी का इतना अच्छा रिश्ता छोड़ नहीं सकती थी। सासुजी तो असमय साथ छोड़ भगवान के यहाँ चली गई।
ताई सास और काकी सास से कुछ पूछना मतलब…..। खैर हिम्मत करके वह ताई सास से पूछने गई तो सबसे पहला झाड़ू तो उन्होंने यही मारा कि
‘घर में दो ननन्दों की शादी हुई तब क्या सोई हुई थी बहुरिया।’ ज्योति का सिर ऊंचा नहीं हो रहा था। और कोई अवसर होता तो ज्योति जवाब देती,
मगर यहाँ बेटी के भविष्य का प्रश्न था, उसे डर था कि अगर वह ठीक से रस्में नहीं कर पाई तो समधन के आगे नाक नीची हो जाएगी।
इसलिए वह बहुत नम्रता से बोली -‘ताई जी मुझे क्षमा करें, मैं उस समय कुछ ध्यान नहीं रख पाई आप घर की बड़ी है, आपकी पौती की शादी है।
आप जैसा बताऐंगी मैं वैसा ही करूँगी।’ताई जी इतना सम्मान देख खुश हो गई और उनके निर्देशन में विवाह के सारे रिवाज सआनन्द सम्पन्न हो गए।
ज्योति को इस बात का पछतावा रहा कि ‘काश! मैंने अपनी सासुजी पर झाड़ू नहीं मारा होता, और उनकी बात मानी होती, तो मुझे ताई जी की चार बात नहीं सुननी पढ़ती।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित