“मेरी मम्मी मेरे साथ रहेगी “
उदय ने कहते हुए माँ की पैकिंग करने लगा राघव जी गुस्से भरी हुई नज़र से पत्नी को देख रहे थे और अनू पत्नी- माँ के बीच में फंसी मृगतृष्णा सी बैचैन थीं बेटे के साथ जाकर पति को दूखी नहीं करना चाह रही थी वही उदय जिसने दिन रात केवल मेहनत इस लिए किया ताकि वह अपने मम्मी को इस घर से निकाल के एक सुख शांति भरी जिंदगी दे सकें
बाप बेटे में कभी नहीं बनता था
अनू माध्यम थीं दोनों के बीच की राघव व अनू का एक ही बेटा था उदय लेकिन आज उसकी दादी से कहासुनी हो गया और पिता ने थप्पड़ मार दिया फिर युवा खून घर छोड़ कर जानें पे तुल गया।
उदय जाना तो पहलें भी चाहता था लेकिन माँ की ममता रोक लेतीं हर बार
दोनों माँ बेटे में मौन संवाद ज्यादा होता एक- दूजे के हृदयँ से गहरा नाता था लेकिन आज उदय कुछ भी नहीं सुनने और समझने के स्थिति में था वही राघव जी और उनकी माता श्री कविता देबी जी खुद को श्रेष्ठ मानकर एक अलग ही अभिमान के अंधकार में थे
“अरे जाने दे राघव दो चार दिन में, माँ बेटे को दाल रोटी और घर की अहमियत समझ में आ जायेगा “
कविता देबी ने राघव से कहा तो बेटे ने भी सहमति दी
अनू सभी के बीच में केवल एक कोल्हू की बैल बनकर नाच रही थी लेकिन कोई भी समझना नही चाह रहा था
थकहार कर वह भगवान् के सामने बैठ गई मन में एक ही बात आ रहा था उस का घर टूटेगा या बचेगा उसके समर्पण के बदले में क्या मिला
“मम्मी चलोगी न साथ”
उदय ने माँ के कंधे पे हाथ रख कर कहा
“हूहहह माँ हूँ जरूर चलुगी तेरे साथ”
अनू ने कहते हुए उदय के मस्तक पर हाथ फेरी दोनों माँ बेटे के आंखों में दूख भरी संवाद खत्म हो गया और उदय माँ के गोद में मस्तक रखकर आंखें बंद कर लिया अनू भी वही दरवाजे पे टिककर बैठ गई थोड़ी देर में उदय सो गया रसोई से खटपट की आवाज आ रहा था शायद राघव जी कुछ भोजन इत्यादि मंगा कर माता श्री के साथ खा रहे थे छत के ऊपरी हिस्से में जेठानी का परिवार चला गया था चारों ओर एक सन्नाटा छा गया अनू के सामने अतित उभर कर सामने आ चुकीं थीं
जब बहू बनकर आई थी तो उसी दिन चाची सास ने कानों में कहा था बहूरानी संभल कर रहना अपनी जेठानी जी से चुकीं नई थी और पहले के वक़्त लड़की कहाँ कुछ ज्यादा जानती थी ससुराल के बारे में एक पशु ही तो थी वह जिसे जिस खुंटे से बांध दिया गया बंध गई
सभी के मन जीतने की कोशिश करतीं लेकिन जीत नहीं पाई और हार गई खुद की दुनियाँ सबसे बड़ा दौलत खुद के पति को ही उदय, पति -पत्नी के बीच का वह बच्चा था जिसके कोख में आते ही ससुराल में कोई खुश नहीं हुआ लेकिन अनू के लिए तो वह उसके मातृत्व बेल का सबसे बड़ा और खुबसूरत फूल था उसके कोख को उपाधि देने वाला अंश था उदय उसका जीवन था जिसे देखकर हर बार अनू के अंदर जीने की जज्बा मिलता उदय का जन्म हुआ तो अनू सोची शायद राघव जी उदय को अपना लेगें आखिर वह उनका अंश है लेकिन उनका स्वभाव नहीं बदला बल्कि एक छोटी सी बात अनू के मन मस्तिष्क को बदल दिया
एक दिन दिया -बत्ती करते हुए अनू के हाथों से लालटेन का कांच टूट जाता हैं तो कविता देबी बरस पड़ी
“अब कांच के पैसे तेरे बाप देगें एक तो बच्चा पैदा कर के बैठ गई काम करने के डर से उपर से बीस रूपये अलग से”
अनू पति के तरफ़ देखती रही लेकिन उसके पति को कोई फर्क नहीं पड़ा शायद उदय केवल उसका बच्चा था
“अब दूध के लिए मत बोलना”
कहते हुए कविता देबी ने बीस रुपये का कांच मंगाई और बदले में उदय के हिस्से का दूध काट दिया गया उस रात उदय चीनी मिला पानी पीकर रात भर माँ के साथ जागा अनू कोई लेखिका नहीं थी लेकिन उस दिन के बाद वह खुद की आपबीती आत्मा में लिखती गई राघव और उसके बीच एक स्त्री पुरुष का समझौता तय होता गया उदय के बाद अनू के जीवन में दूसरा कोई फूल नहीं खिला और उदय बचपन से ही अपनी माँ को तिरस्कृत होतें देखता हुआ बड़ा हुआ उसने हमेशा अपने स्थान पे अपने चचेरे भाई को पाया और माँ के स्थान पर बड़ी माँ को उसने महसुस किया था उसकी माँ रात्रि में तकिये से लिपटकर कैसे सिसकियां छुपाती है वह जानता था उसका जीवन में मास-महीने का सर्द हवाओं सी अनदेखी अंधकारमय रात्री की पहर अतः जिस उम्र में बच्चे मौजमस्ती करते हैं उदय उस उम्र में सब के नज़र से दूर जाग कर मेहनत करता उसके लिए एक ही सपना था एक छोटा सा घर जिस में उसकी मम्मी स्वंतत्र एवं खिलखिलाती हुई मिले
राघव जी दुनियाँ के सामने अनू को पत्नी का दर्जा दिये जबकि उनके हृदयँ में सदा उनकी भाभी रहीं और समाज के सामने उनकी भाभी का झक- सफेद रंग की साड़ी एक अनदेखी पर्दा डालने का काम करता कविता देबी सब कुछ जान कर भी घर में शांति बनाए रखने के लिए मौन रहीं और कमज़ोर हिस्सा मानते हुए अनू पे हमेशा हकुमत करतीं रहीं अनू सोचते हुए भावुकता से टूट गई थी और बेटे के चेहरे को देखने लगीं उसका उदय एक नवजात शिशु के रूप से एक नवजवान युवक में बदल गया था उन्नीस साल का युवा सच में वक्त रुकता नहीं कहते हुए अनू ने आंसू पोछते हुए उदय के मस्तक के नीचे तकिया लगाकर घड़ी में देखतीं है एक बज रहा था रात्री का वह बेटे के लिए नूडल्स बनाने रसोई में जाती है तो खटपट के आवाज पे राघव जी रसोई में आ जाते हैं
“बेटे को समझाओ बाप हूँ मैं अरे एक थप्पड़ मार दिया तो क्या हुआ”
“बाप है तो खुद समझा सकते हैं”
अनू ने कहा और नूडल्स में नमक डालने लगीं
“अरे पागल हो क्या? बात करता है मुझे से वह”
“क्यों नही करता आखिर कारण क्या है”
“मुझे नहीं मालूम लेकिन तुम ने क्या फैसला किया है”
“उदय के साथ जा रहीं हूँ”
“कैसे जा सकतीं हो आखिर तुम्हारी मुक्ति मुझे से हैं बेटे के हाथों नहीं”
राघव ने नया पैंतरा चलने की कोशिश करते हैं तो अनू बोल उठीं
“मुक्ति तो शरीर को मिलता है जो तुम ने बहुत पहले ही दे दिया यह अनू तो जीवित लाश है तुम्हारे पत्नी की हां उदय की माँ जरूर जीवित है और जब तुम अपने भाभी को माँ को आज तक नहीं छोड़ पाये तो मैं अपने बेटे को कैसे छोड़ दू”
राघव जी अनू को देखकर हैरान थे थोड़ी देर की चुप्पी साध कर फिर बोले
“अतित को भूल जांव हम फिर से कोशिश करते हैं एक सुखी भविष्य की”
“अतित को कैसे भूल जांऊ मेरी जवानी है उसमें और मेरे बच्चे का बचपन उसमें कैद हैं”
कहते हुए अनू पहली बार राघव जी के सामने रौंधे गले से कहतीं है
“जानते हो जी मुझे माँ या जेठानी जी के रवैया पे गुस्सा नहीं आता था बल्कि तुम से नफ़रत होता था मेरे बच्चे के सामने उसके पिता के पैसों से उनके लिए खिलौने होतें और मेरा उदय आटा से बना चिड़िया उड़ा कर खेलता फिर वह भी अपनी माँ के जैसे तीज त्योहार के साथ समझौता कर लिया मौन समझौता”
नूडल्स बन गया था और अनू पहली बार बिना पति को पूछे अपने बेटे के लिए तैयार नूडल्स लेकर जा रहीं थी
राघव चुप थे और अनू उदय के साथ बातचीत करतीं नज़र आ रही थी
कविता देबी बड़ी बहू के कमरे में सोनें चलीं गई थी
उदास परेशान राघव जी सुबह की बात सोच रहे थे जब माता श्री को चाय देने अनू आई तो उस के हाथ से कप छुट के टूट गया तो माता श्री ने आदत अनुसार अनू को खरी खोटी सुनाई तभी उदय अपनी मम्मी के तरफ़ से जबाव देने लगा मैं ने भी आनक फानक में एक थप्पड़ मार दिया घर के सभी लोग थे अत: उदय के मन पे थप्पड़ लग गया
राघव जी अतित और वर्तमान में उलझ चुके थे आज उनकी स्थिति उस कहावत जैसा हो गया था
अब पछताने से क्या फायदा जब चिड़िया चुग गई खेत।
अभिलाषा श्रीवास्तव
गोरखपुर