नोक झोंक – रीटा मक्कड़

“सुनो आज लगता है पुदीने की चटनी में तुम हरी मिर्ची डालना भूल गयी हो..”

“क्या कह रहे हो कभी मिर्ची के बिना भी चटनी बनती है”

“सच कह रहा हूँ खुद ही खा कर देख लो..आज तो दाल भी बीमारों जैसी लग रही है बिल्कुल फीकी सी..!!”

“अब इस उम्र में कितनी मिर्ची खाओगे..रोज़ तो पेट मे तुम्हारे जलन होती रहती है..तुम्हारी सेहत के लिए जो अच्छा है वही तो बनाती हूं। ये हर चीज़ में नुक्स निकालने की तुम्हारी आदत गयी नही अब तक..!!”

“तो तुम भी कहाँ सुधर गयी हो..मेरी कहाँ सुनती हो अपने मन का ही करती हो न”

“तुम न देख लेना जब नही रहूंगी तब तुम्हे पता चलेगा..जब कोई पूछने वाला नही होगा न तब याद करके रोते रहना कि कितना अच्छा खाना बनाती थी।”

“नही वैसे तुम कहाँ जाने वाली हो?”


“बस मुझे अब लगने लगा है कि मेरे पास अब समय कम ही बचा है।”

“चुप रहो तुम ऐसी फालतू की बातें मत किया करो।”

“सच कह रही हूं मुझे लगता है मुझे जल्द ही ऊपर वाले का बुलावा आने वाला है।”

“पर  मुझे तो ये लग रहा है कि मैं तुम से पहले ही चला जाऊंगा..मेरा समय बस पूरा होने वाला है।”

“चुप रहो खबरदार आज के बाद ऐसी बात मुँह से निकाली तो..तुम्हारे बिना मैं अकेली कैसे जीऊंगी।”

“फिर तुमने क्यों की ऐसी बात..मैं भी कहाँ रह पाऊंगा अकेला तुम्हारे बिना.. तुम भी आज के बाद ऐसी बात कभी मत करना।”

“सच्ची में यही सोचती हूँ कि अगर मैं पहले चली गयी तो तुम्हारा क्या होगा..हम दोनों ही एक दूसरे के बिना जी नही पाएंगे..काश हम को जब भी ऊपर वाले का बुलावा आए एक साथ ही आये और हम इस जहां से एक साथ ही रुख्सत हों…काश..!!”

मौलिक एवं स्वरचित

रीटा मक्कड़

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