मैं कला प्रदर्शनी में देख तो वह पेंटिंग रही थी, लेकिन मेरा ज़ेहन मेरी बेटी की ओर ही था। वैसे मैंने अब तक शादी तो नहीं की है, लेकिन ग्यारह वर्ष की बेटी है मेरी, चित्रांशी, जो कमाल के चित्र बनाती है। वह नौ वर्ष की थी जब मुझे चाँदनी-चौक में एक औरत के साथ रोती मिली थी, जो उसे बुरी तरह मार कर चुप करवा रही थी।
मेरे द्वारा शक़ से पूछे जाने पर वह उसे छोड़ कर भाग गई। बहुत तलाश करने पर भी जब उसके माँ-बाप का पता न चला तो मैं उसे एक अनाथालय में देने गई। वहाँ वह मुझसे ऐसे चिपक गई जैसे मेरी ही बेटी हो। तब, ममत्व से द्रवित होकर मैंने उसे अपने पास ही रख लिया। चित्रांशी मूक और बधिर ज़रूर है, किंतु उसका हर चित्र जो बोलता है, वह संसार की कोई और कृति नहीं बोल सकती।
जिस पेंटिंग को मैं निहार रही थी, वह बिल्कुल उसके बनाए एक रेखाचित्र का रंगीन विस्तार लग रही थी। इस तरह से दो कलाकारों की कृतियों का दो अलग आयामों में मिलना एक दुर्लभ संयोग ही लग रहा था। यह एक और संयोग हो गया जब एक सुदर्शन सज्जन मेरे पास आ खड़े हुए और बोले—
“बहुत देर से देख रहा हूँ, आपको। आपकी भाव-भंगिमा से पता चलता है कि इस पेंटिंग में कुछ और ही देख रही हैं आप। है न?”
“जी आप कौन?” मैं उनकी बेबाकी से चौंक पड़ी।
“ये पेंटिंग मैंने ही बनाई है,” तब मैंने जाना वह उस पेंटिंग के चित्रकार थे।
आने वाले आश्चर्यजनक पलों से अनजान मैंने अपने शोल्डर-बैग में से मोबाइल निकाला और उन्हें एक रेखा-चित्र दिखाया जिसे देख कर वह भी हैरत में पड़ गए और उनके मुँह से निकला—
“आपने बनाई है यह?”
“जी नहीं, मेरी बेटी ने।“
वह अवाक से मुझे देखते रहे, फिर मुझे लगा उन्हें ग़श आ जाएगा तो उन्हें सहारा देकर एक ओर ले गई। वह बैठ गए और मेरी ओर देख कर बहुत दीन स्वर में पूछा— “बुरा न मानिएगा, क्या वह आपकी सगी बेटी है?”
“नहीं, मैंने उसे पाला है,” मेरा ज़वाब सुन कर उनकी आँखें चमक उठीं।
“क्या आपकी बेटी बोलती-सुनती नहीं?” अब मेरा माथा ठनका तो उनकी आँखों की हैरत मेरी आँखों में उतर आई।
वह आवेश से काँपने लगे थे, जैसे खोई दौलत मिलने की सम्भावना जगी हो, और मेरी हालत ऐसी होने लगी जैसे मेरी दुनियां उजड़ने वाली हो। वह अपने मोबाइल में कुछ ढूँढने लगे, और उन्होंने एक तस्वीर मुझे दिखाई; मेरी चित्रांशी थी, अपने असली माँ-बाप के बीच। मेरे आँसू बह निकले।
“मैंने इसका नाम चित्रांशी रखा है,” मेरे शब्द जैसे कि मेरे हृदय के दर्द के बोझ से बोझिल हो गए थे।
“कितनी समानता है न, इसका नाम इसकी माँ ने चित्रा रखा था,” मेरे शब्दों से वह समझ गए कि उनकी बेटी मेरे ही पास है।
“इसकी माँ बहुत तक़लीफ़ में होंगी न!” मैं एक माँ के दुःख को समझने का प्रयास करने लगी।
“चित्रांशी को कोई औरत बहका कर ले गई थी। बेटी से वह बिछड़ने के ग़म को मेरी पत्नी सह नहीं पाई, और…” वह फफक पड़े, और मेरी भी आँखें छलक गईं। इन दस मिनट्स में जाने क्यों उनसे बेहद हमदर्दी सी हो आई।
उन्होंने पहले बेटी और फिर पत्नी को खो दिया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ या कहूँ उनसे। कुछ समझ नहीं आया तो मैंने गैलरी खोल कर अपना मोबाइल उनके हाथ में दे दिया। वह विस्मय से चित्रांशी के पिछले दो सालों के फोटोज़ और उसके बनाए चित्र देखने लगे।
“आप और आपके पति क्या करते हैं?” मोबाइल लौटाते हुए उन्होंने अचानक पूछा।
“जी, मैंने विवाह नहीं किया है, अभी तक सोचा नहीं। मेरे माता-पिता और एक भाई गाँव में रहते हैं; मेरा विवाह न करना उन्हें अखरता है। मैं दिल्ली में जॉब करती हूँ।“
“चित्रांशी स्कूल तो नहीं जाती होगी।“
“जाती है न! अब मैंने उसका एडमिशन ‘स्पेशल स्कूल’ में करवाया है, और पास में ही फ्लैट भी ले लिया है। स्कूल वालों की बहुत सपोर्ट मिलती है,” मैंने उन्हें बताया तो वह बहुत प्रसन्न दिखे।
“मैं जयपुर में रहता हू्ँ। कला-प्रदर्शनी के सिलसिले में ही दिल्ली आया था। ये पेंटिंग मैं हर प्रदर्शनी में रखता हूँ, क्योंकि मुझे पता है अगर मेरी बेटी देखेगी, तो इससे मुझे पहचान लेगी। क्योंकि…”
“क्योंकि क्या?” मैं अब हर बात से घबरा रही थी।
“क्योंकि यह पेंटिंग मेरी बेटी के बनाए रेखाचित्र पर ही आधारित है। उसकी माँ ने सिखाया था उसे।“
“सच में! मैं बेहद हैरतो-उलझन में हूँ,” मेरी आँखों से फिर आँसू बह निकले।
“सुनिए, आप ही चित्रांशी की माँ हैं अब। मैं आपका दुःख समझ रहा हूँ, क्योंकि मैं बिछड़ने का दर्द जानता हूँ, रात-दिन वही भोगता जो हूँ। आप दुःखी न हों। मैं चित्रांशी को आपसे अलग नहीं करूँगा, अब मुझे कोई चिंता नहीं, उसे आप जैसी माँ जो मिल गई है,“ वह शांत दिखने की कोशिश करने लगे।
“लेकिन मैं आपको दुःख-दर्द में कैसे जीने दूँगी, जबकि आपकी बेटी मिल गई है?” उनके विचार जानकर मेरा हृदय कमल सा खिल उठा था।
“अब वह आपकी ही बेटी है, और सदैव रहेगी,” उन्होंने दृढ़ता से कहा।
“आप महान हैं! क्या बेटी से मिलने नहीं चलेंगे?” मैं इसके अतिरिक्त कुछ न कह पाई।
“नहीं! मैं जाऊँगा तो वह मेरे साथ चलने की ज़िद करेगी। मेरे प्राण बसते हैं, उसमें, वह जानती है,” उनकी आँखें बहुत रोकने के बावज़ूद फिर से बरसने लगीं।
“मैं समझ नहीं पा रही क्या करूँ,” मैं रूआँसी हो गई।
“हाँ एक काम हो सकता है, अगर इतनी देर में आपने मुझे कुछ समझा है…” वह चुप हो गए।
“कहिए न, मैं वह सम्भावना भी देखना चाहती हूँ,” मैं अधीर हो उठी।
“यदि हम एक हो जाएं तो, कितना अच्छा होगा। चित्रांशी हम दोनों को ही प्रिय है, दोनों ही उससे दूर नहीं रह सकते। आप सोच लीजिए, मेरे बारे में जो मालूमात करना हो कर लीजिए, फिर फैसला लीजिएगा,” उन्होंने अत्यंत सादगी से अपनी बात रख दी।
वह मुझे दिखने में ही नहीं, व्यवहार और प्रेम में भी सुदर्शन लगे।
“मुझे अभी आपका नाम तक पता नहीं।“
“जी, सुदर्शन है मेरा नाम,” उन्होंने बताया तो मेरे हृदय के तार झंकृत हो उठे।
—TT (तरन्नुम तन्हा)