निशानी –  अरूण कुमार अविनाश

दीवाली की सफाई हो रही थी। एक पुराने ट्रंक से कुछ चीजें बाहर निकली। उन चीज़ों में एक पुरानी HMT की चाभी वाली कलाई घड़ी थी। मैं बड़े अनुराग से उस घड़ी को इस तरह कपड़े से पोछने लगा जैसे उसे पोछ नहीं – सहला रहा होऊ।

इतवार का दिन था। दुकान की साप्ताहिक छुट्टी थी और बेटी भी चूँकि घर में ही थी इसलियें कुछ खुद के इरादे से कुछ पत्नी के दिशानिर्देशों के अंतर्गत मैं और बेटी सफाई के नाम पर कबाड़ समझें जाने वाली चीजें टटोल रहें थे।

दीवाली में अभी समय था। त्योहार करीब हो तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन भी दुकान खोलना पड़ता है। फिर तो दुकान पर पत्नी की भी सहायता लेनी पड़ती है।

ससुराल से खबर आयी थी कि ससुरजी की तबियत खराब चल रही है। वे अपने सभी बच्चों से मिलना चाहतें है अतः पत्नी पुत्र के साथ मायके गयी हुई थी।

पत्नी बेशक मायके में थी पर सुबह-सुबह बेटी को हुक्म दे दी थी कि अगर पापा दुकान पर नहीं जाते है तो मोटा- मोटी घर की सफाई चालू कर दो। ज़्यो-ज़्यो दीवाली करीब आती जायेगी सबकी मशरूफियत बढ़ती जायेगी।

हाई कमान का आदेश !

हुक्मउदूली की हिम्मत किसमें थी ?

अतः पिता-पुत्री काम से लगे हुए थे। इसी क्रम में हम पुराना ट्रंक खोल बैठे थे।

मेरी बेटी जो कॉलेज की छात्रा थी और जो उस समय सफाई में मेरी मदद कर रही थी – घड़ी के प्रति मेरे लगाव को देख रही थी बोल पड़ी – ” पापा, इस घड़ी के साथ बहुत अटेचमेंट है आपका – है न ?”

” तुम्हारें दादा जी ने मुझें तब गिफ्ट दिया था जब मैं पहली बार कॉलेज जा रहा था। ” – मैं पुरानी स्मृतियों में खोता हुआ बोला।

बेटी ने धीरे से मेरे हाथ से घड़ी ले ली। उत्सुकतावश घड़ी में चाभी भरी –जब वर्षो से रखी हुई घड़ी चल पड़ी तब हर्ष मिश्रित स्वर में बोली– ” अरे ये तो चलने भी लगी –पापा जब ये आपको इतनी पसन्द है तो इसे पहनते क्यों नहीं ?–खामखाह ट्रंक में छोड़ रखें है।”

” चुपचाप वापस रख दे –पापा की निशानी है – गुम-गुमा गयी तो बहुत दुख होगा मुझें।”–मैंने एक मीठी सी झिड़की दी।




पिताजी को गुज़रे कई साल हो चूके है – पिताजी से सम्बंधित हर चीज़ को धरोहर समझता हूँ मैं – ये बात मेरी बिटिया रानी जानती है। वह मेरे मनोभाव को समझ रही थी अतः चुपचाप घड़ी वापस ट्रंक में रख दी और एक पुराना एलबम उठा कर उसके पन्ने पलटने लगी।

बेटी के साथ-साथ मैं भी उन तस्वीरों का अवलोकन करने लगा।

दरअसल ये एलबम भी पिताजी का ही था। जिसे मैं पिताजी की मृत्यु के बाद अपने पास रख लिया था। चूँकि एलबम पिताजी का था इसलिये इसमें ज्यादातर तस्वीरें मेरी माँ पिताजी छोटे भाई खुद मेरी और मेरी छोटी बहन की थी।

पिताजी की युवावस्था की एक तस्वीर – जिसमें मैं और उम्र में मुझसे दो साल छोटा भाई था पिताजी ने दोनों भाइयों को एक साथ गोद मे उठा रखा था –चित्रित थे– बेटी देर तक उस तस्वीर को देखती रही फिर बोली – ” पापा बचपन में बहुत कयुट लगते थे आप दोनों भाई।”

” और अब !” – मैं हँसा।

” अब भी पर बचपन की बात ही और होती है।” – बेटी पन्ने पलटती हुई बोली –” ये तस्वीर देखों आप –इसमें आप चाचा और बुआ तीनों कैरम खेल रहे हो।”

मैं बचपन की उस तस्वीर में खो गया। कितना निर्दोष होता है बचपन – न द्वेष न ईर्ष्या न लालच। बचपन में साथ पले-बढ़े बच्चें जब बड़े हो जाते है तब जेहन रोशन हो जाता है। ज्ञान मिल जाता है। तेरा-मेरा का भाव उत्पन्न हो जाता है। स्वार्थ प्रबल हो जाता है।

” पापा, एक बात कहूँ !”

” क्या?”

” बचपन में आप चाचा और बुआ कितना हिल-मिल कर रहते थे –बाद में ऐसा क्या हो गया कि चाचा और बुआ दोनों से हमारा कोई रिश्ता न रहा ?”

” बाद में तेरे चाचा और बुआ का नेचर बदल गया। दादाजी की मृत्यु के बाद प्रोपर्टी के लिये विवाद हुआ जिसमें उनका असली चेहरा सामने आया।”

” गलती दोनों तरफ से हुई थी। कुछ बातें आप चाचा को समझा नहीं पाये कुछ बातें चाचा समझना ही नहीं चाहतें थे। पर आप भी तो बड़ा भाई होने का फर्ज अदा न कर सकें।”

खुद के प्रति बेटी का जजमेंट सुन कर मैं अपना आपा खो बैठा।

वर्षो से छुपा मन का आक्रोश ज़ैसे बाहर निकला हो –छोटे भाई पर तो हाथ उठा न सका था –दबी हुई इच्छा ज़ैसे प्रकट हुई हो –अनजाने में क्रोधवश बड़ी हो चुकी बेटी पर हाथ उठ गया।

चटाक।

विधुत गति से मेरा हाथ उठा था और बेटी के कोमल गाल पर उँगलियों की छाप छोड़ गया।

हम दोनों ही अवाक रह गये।

मैं बेबशी से मेरे हाथ को देख रहा था।

बेटी की आँखें डबडबाई हुई थी और ओठ व्यंग से मुस्कुराहट में फैले फिर वह अपने कमरे की ओर दौड़ पड़ी।

कई लम्हों तक मैं किंगकर्तव्य विमूढ़ सा वहीं खड़ा रहा फिर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।

मेरा ज़ेहन अतीत की यादों में डूब गया।




मेरे पिता एक छोटी सी परचून की दुकान के मालिक थे।

दुकान छोटी सी ज़रूर थी पर जरूरत की हर चीज़ उपलब्ध थी इसलिये ग्राहकों की कमी नहीं थी।

मजे से परिवार का गुजारा चल जाता था। मैं घर का बड़ा लड़का था इसलियें  बचपन से ही पिता को दुकानदारी में सहायता करने लगा।

कई बार तो मैं स्कूल से मिला होमवर्क भी दुकान पर बैठ कर करता था। यही कारण था कि बहुत कम उम्र से ही मुझें दुकानदारी समझ में आने लगी थी।

मेरे पिता के तीन संतान हुए। मैं , मुझसे छोटा भाई और सबसे छोटी एक बहन।

छोटा भाई पढ़ाई- लिखायी में ज़हीन था।

घर दुकान से चिंता मुक्त। सिर्फ खेलकूद और पढ़ाई पर ध्यान –परिणाम भी अच्छा निकला –पहले इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई की तदोपरांत एक मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद पर आसीन हो गया।

छोटी बहन की शादी में हमनें खूब खर्च किया था। खूब दान-दहेज़ देकर एक सरकारी अधिकारी से उसका विवाह किया था।

युवा होते ही मैंने दुकान की पूरी जिम्मेवारी सम्भाल ली थी। पिता दुकान पर बैठते ज़रूर थे पर काम काज मैं ही देखता था। एक तरह से पिता रिटायर हो चूके थे।भाई-बहन को पढ़ाने-लिखाने एवम विवाह में भी मैंने ही जिम्मेदारी निभायी थी।

पिता सिर्फ आदेश देते थे। उन आदेशों की अनुपालना के लिये सारा प्रयास मेरा होता था।

पिता के जीवन काल में ही छोटा भाई और बहन सेटल हो गये थे। तरक्की मैंने भी की थी। पिता की छोटी सी दुकान को विस्तार दिया था। पिता के जीवनकाल में ही मैंने बगलवाली दुकान और एक गोदाम खरीद ली थी।

यही गोदाम और बगलवाली दुकान झगड़े का कारण बना।

भाई को लगता था कि उसने जो भी कमाया बनाया बचाया सब उसका था।

पर मैंने जो भी जोड़ा बनाया वह सिर्फ दुकान की आमदनी थी।

जबकि ऐसा नहीं था।

पिता की दुकान से मैंने दुकानदारी ज़रूर सीखी थी पर विस्तार के लिये मैंने दोस्तों से बैंक से कर्ज़ भी खूब लिया था। दिन रात मेहनत की। कई बार रिस्क लिया। सरकारी अमले से हफ्तावसूली गैंग से बिगड़ेल ग्राहकों से मैं अकेला ही निपटता रहा।

पिता की मृत्यु के बाद भाई और बहन जो कि दूसरे शहरों में रहते थे। फ़ौरन जमीन-जायदाद घर-दुकान सबका हिसाब-किताब लेखा-जोखा की जानकारी और बंटवारा चाहतें थे।

तब पिता की मृत्यु से दुखी– मैं ये दूसरा सदमा झेल न सका। क्रोध में बहन से कह दिया कि तुम्हारी शादी में जो भरपूर दहेज दिया नगद रुपये दिये शादी में जो दूसरे खर्चे किये वो सब क्या था !

भाई से कहा कि तुम्हारी पढ़ाई के खर्चे कोचिंग की फीस बाद में इंजीनियरिंग कॉलेज की फीस और होस्टल का खर्चा वो सब क्या था ? जब तक नोकरी नहीं मिली तक तक बड़े शहर में रहने खाने का खर्चा कौन देता था ?

क्रोध में कुछ मैंने कहा तो उन दोनों ने भी कहा।

बाद में मामा और दूसरे रिश्तेदारों ने बीच-बचाव किया। एक निश्चित समय के अंदर एक निश्चित पर मोटी रकम मैंने कर्ज़ लेकर भाई-बहन को चुकाई। कुछ पुश्तेनी सम्पत्ति का बंटवारा किया गया। सब कुछ बट गया फिर दिलों में गहरी खाई खुद गयी। अब तो हाल ये है कि नाते-रिश्तेदारों के घर शादी या दुःख में हम भाई बहन में मुलाकात भी होती है तो महज औपचारिकतावश राम- राम दुआ-सलाम फिर वो अलग-थलग बैठते है मैं अलग- थलग।




दरवाजे पर आहट-सी हुई।

मैंने दरवाजे की दिशा में देखा।

बेटी चाय की ट्रे लेकर अंदर आ रही थी।

तुरन्त मेरी नज़र वाल क्लॉक पर पड़ी। शाम के पांच बज रहें थे।

हे भगवान !

कितना समय हो गया।

दोपहर एक बजे वो वाकया हुआ था। कुल चार घँटे गुज़र गये थे। दोपहर में तो लंच भी नहीं लिया था और अब चाय का वक़्त हो गया।

बेटी ने सिर पर दुपट्टा ले रखा था।उसकी आँखें सूजी हुई थी। दुपट्टा भी ज़रूर उसने गाल पर छपे उंगलियों के निशान को छुपाने के लिये ओढ़ा था।

वह छोटे-छोटे कदमों से मेरे पास आयी। चाय की ट्रे मेरे बेड के पास साइड टेबल पर रखी फिर मेरे पैताने पलंग पर बैठ गयी। उसने मेरे दोनों पैरों को जकड़ कर पकड़ लिया फिर फफक पड़ी।

”  स–स–सॉरी पापा।”– उसके ओठों से कातर स्वर निकला।

मेरे ह्रदय से ज़ैसे चीत्कार सी निकली हो। मैं तड़प उठा।

ताकत लगा कर बेटी के हाथों से अपने पॉव छुड़ाया। उसके सिर को अपने सीने से लगा कर मैं भी फफक पड़ा।

जाने कितना ही वक़्त हम उसी दशा में रहें। फिर जब आंसुओ का जोर कम हुआ तो मैं उसका चेहरा उठा कर देखा। उसके आँसू पोछे।

” पापा सॉरी ।” –वह बुदबुदाई।

” पगली – गलती मैंने की और सॉरी तुम बोल रही हो।”–मैं आहत स्वर में बोला।

” गलती किसी की भी हो पर गलतफहमी किसी को नहीं होना चाहियें। खून के रिश्तों में चाहें कोई भी झुकें जीत दोनों की होती है। माहौल खराब होता है तो दोनों की हार होती है। मैं आप से जीत कर भी हार जाऊँगी और अपनी हार मान कर भी जीत जाऊँगी।”

वह क्या कह रही थी वह मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था पर मेरा मन फिर अतीत में डूबने-उतराने लगा – कितना प्यारा होता है बचपन –पिता के जीवन काल में सब कुछ सामूहिक था। पिता के जाते ही तेरा-मेरा होने लगा।

ठीक है भाई-बहन ने जल्दबाजी मचाई– उसका कारण भी था–दोनों दूर रहते थे। बार-बार उनका आना सम्भव नहीं था। इसलियें उन्होंने गैर-मुनासिब मोके पर वो बात कही। पर ओवर रियेक्ट तो मैंने भी किया था। बरगद के एक ही दरख़्त से कई शाखाएं  निकलती है पर बाद में उन सबों का अपना-अपना अस्तित्व हो जाता है। बंटवारा तो होना ही था बस तल्खी से हुआ।

एक बार भाई-बहन से प्रति सकारात्मक भाव से सोचने लगा तो मन में बचपन की उन स्मृतियों का तांता लग गया जब हम साथ थे एक दूसरे के मददगार थे।

एक दूसरे को पिता के क्रोध से बचाने के लिये छुपा लेते थे। झूठ बोल लिया करतें थे।

” पापा ये चाय तो ठंढी हो गयी मैं दूसरी चाय बना कर लेती हूँ।” बेटी ट्रे उठाती हुई बोली।




बेटी के बोलने से मेरी तन्द्रा टूटी।

” क्या ?”

” मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूँ।”

” चाय रहने दो–खाना ही खायेंगे –मगर पहले एक बात बताओ।”

क्या?

” मुझें क्या करना चाहियें।”

” किस सिलसिले में ?”

” बुआ और चाचा से सम्बन्ध ठीक करने के लिये।”

” गलती किसी की भी हो आप आगे बढ़ कर सॉरी बोलिये –भाई से जीत कर भी क्या जीतेंगे और हार कर भी क्या हारेंगे? समझिये कि दादा जी ने जायदाद के नाम पर कुछ भी नहीं छोड़ा था  और दादाजी की निशानी के नाम पर आपके पास कोई घड़ी या भौतिक वस्तु नहीं है सबसे बड़ी निशानी तो सगे भाई-बहन है।” वह पल भर के लिये रुकी फिर बोली– ” आपके भी दो बच्चें है कल को आपके सामने या आपके बाद हम भाईं-बहन भी इसी तरह लड़े तो आपकों कैसा लगेगा ?”

” ठीक है मेरी माँ “– मैं अनुरागपूर्ण स्वर में बोला –” तू जैसा चाहती है वैसा ही होगा–मेरा फोन दे और खाना गर्म कर।”

मैंने मोबाईल से भाई का नम्बर सर्च कर रिंग किया।

फोन किसी दूसरे आदमी ने उठाया। ज़रूर भाई ने ये नम्बर बंद कर दिया होगा तो कंपनी ने किसी और को अलॉट कर दिया होगा।

भाई के एक दोस्त से भाई का नम्बर लेकर भाई को फोन किया।

” अब क्या हो गया ?”– मेरी आवाज पहचान कर भाई के मुँह से चिढ़ा हुआ स्वर निकला।

” भाई सॉरी।” –मैं आर्त्तनाद कर उठा।

कुछ देर तक उधर से कोई आवाज न आयी फिर भाई के सिसकने की आवाज़ आयी जिसकी तीव्रता उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गयी।

दस मिनटों तक हममें से किसी ने कुछ न कहा सिर्फ रोने सिसकने की आवाज़ आती रही फिर भाई बोला –भईया सॉरी तो मुझें बोलनी चाहिये—-

                                          अरूण कुमार अविनाश

 

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