भाई रमेश तुमने नोट किया,जबसे माँ बीमार पड़ी है, तब से नयना ने यहां जल्दी जल्दी आना शुरू कर दिया है।
बस सुरेश तुमने कह दिया जबकि मेरे मन मे ये बात पहले से ही थी।
माँ के तो अब चला चली के दिन है,ये घर और प्लाट पिता छोड़ कर गये हैं।नयना कहीं हिस्से बटाने की चाह तो नही रखती।
लगता तो नही,उसे किस चीज की कमी है, सम्पन्न परिवार में उसकी शादी हुई है,फिरभी अपने मन की वह जाने। उसका अधिकार है,माँ जैसा चाहेगी करेगी,हमे स्वीकार करना चाहिये।
रामस्वरूप जी की एक परचून की दुकान थी।थोक और फुटकर दोनो तरह का व्यापार करते थे।दुकान से इतना मिल जाता था जिससे उन्होंने घर बना लिया था,और एक प्लाट भी खरीद लिया था,साथ ही अपनी बेटी नयना के हाथ भी एक अच्छे सम्पन्न परिवार के लड़के समीर से कर दिये थे।
दो बेटे रमेश और सुरेश थे जो पढ़ाई लिखाई में अधिक नही चल पाये तो उन्हें भी रामस्वरूप जी ने अपने साथ दुकान पर लगा लिया।उनका सोचना था,अभी से व्यापार करना सीख लेंगे तो उनके परलोकवासी होने पर अपना कामधंधा तो करते रहेंगे।
रमेश और सुरेश में वैसे तो कोई ऐब नही था पर उनकी जैसी कम रुचि पढ़ाई लिखाई में रही,वैसी ही व्यापार में भी रही।दुकान जाते,सब काम भी करते,पर बस मशीन की तरह।आधुनिक युवक होने के बावजूद उन्होंने कभी सोचा ही नही कि पिता के व्यापार को कैसे बढ़ाया जाये?
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रामस्वरूप जी सुलझे विचारों के थे,इस कारण उन्होंने अपने पीछे कोई विवाद ही न रहे पहले ही वसीयत कर दी और उससे दोनो बेटों को भी अवगत करा दिया।उन्होंने दुकान के दो हिस्से कर आधी आधी दुकान दोनो बेटों को भरे पूरे माल के साथ दी,साथ ही कह दिया कि
जब तक चाहो साथ व्यापार करो जब न बने तो आधी आधी दुकान दोनो की।घर व प्लाट उन्होंने अपनी पत्नी दुर्गा के नाम वसीयत कर दी और दुर्गा को ही अधिकार दे दिया कि अपने बाद वह जिसे अपनी संपत्ति देना चाहे दे सकती है।इस प्रकार रामस्वरूप जी निश्चिंत हो चुके थे।
कुछ ही दिनों में रामस्वरूप जी की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी।उनके जाने का दुख तो स्वाभाविक रूप से सभी को था,पर आर्थिक रूप से कोई दिक्कत घर मे नही आयी।नयना की शादी हो ही चुकी थी।दोनो भाइयों पर कोई जिम्मेदारी थी नही,भरी पूरी दुकान के वे स्वामी थे ही।
घर मे माँ के साथ दोनो भाई भी पहले की तरह रह रहे थे।रामस्वरूप जी के गोलोकवासी होने के उपरांत उनकी पत्नी दुर्गा को अधिक सदमा लगा और वे बीमार रहने लगी।पिछले तीन महीने से तो वे बिस्तर से उठ भी नही पा रही थी।दोनो भाई सेवा कर ही रहे थे।
माँ की बीमारी की सुन नयना माँ को देखने बार बार आती रहती थी,माँ को बेइंतिहा प्यार जो करती थी।रमेश व सुरेश दुकान को रूटीन में चला रहे थे,वे होलसेल का काम संभाल नही पाये, बस फुटकर का काम रह गया,इस कारण आमदनी कम हो गयी,पर इतनी भी नही कि अपना अपना खर्च भी ना चला सके।माँ की बीमारी ने उनके इलाज का खर्च का अतिरिक्त भार अवश्य डाल दिया था।
नयना ने अपनी मां से पाये संस्कारो के बदौलत अपनी ससुराल में अपनी जगह बना ली थी,उसका पति समीर तो उसके बिना कुछ भी नही करता था।सासु मां ने भी पूरे घर की जिम्मेदारी नयना को सौंप दी थी।नयना पर कोई रोक टोक भी नही थी।मायके में नयना की मां की बीमारी की बात सुनकर एक बार उनका पूरा परिवार उन्हें देखना आया,उसके बाद आठ दस दिन बाद नयना माँ को देखने आती रही।
बार बार मायके माँ को देखने आने पर ही रमेश सुरेश को लगा कि कही नयना के मन मे घर व प्लाट में अपना हिस्सा लेने का तो नही।इसी कारण दोनो भाई इस विषय मे बात कर रहे थे।इस वार्तालाप को नयना ने जो तभी आयी थी,
सुन लिया।उसे अपने भाइयों की आर्थिक स्थिति और सामर्थ्य का पता था,वह अपने भाइयों के उसके प्रति प्रेम को भी समझती थी।नयना ने उनकी बात न सुनने का आभास देते हुए अचानक उनके पास जाकर बोली,भैय्या रमेश आप बड़े हो मैं छोटी बहन हूँ तुम्हारी,क्या मेरी एक छोटी सी प्रार्थना स्वीकार करोगे,ना तो नही बोलोगे,बोलो ना भाई सुरेश तुम ही बोलो।अरे पगली बता ना क्या बात है?जो तू कहेगी वही होगा,तू बोल तो सही।
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भाई, माँ बीमार है,उन पर काफी खर्च भी हो रहा है, मैं ये कुछ रुपये लायी हूँ इन्हें स्वीकार कर लो,मना मत करना।ये मेरे अपने हैं भैय्या, समीर से पूछकर लायी हूँ।माँ पर मेरा भी फर्ज बनता है।कह कर नयना की आंखों से आंसू बहने लगे।दोनो भाइयो ने नयना को अपनी बाहों में समेट लिया।
उन्हें ग्लानि हो रही थी कि वे अपनी बहन के बारे में क्या सोच रहे थे।वे नयना से रुपये लेना नही चाहते थे पर नयना की जिद के कारण उन्हें रुपये रखने पड़े। नयना को गर्व था अपनी ससुराल पर जहां उसे अधिकार मिले थे,अपनी मर्जी से जीने के।
आज रक्षाबंधन के अवसर पर रमेश व सुरेश नयना से राखी बंधवाने उसकी ससुराल पहुचे।नयना ने पहले से ही थाली में राखी, मिठाई,रोली रख सजा कर रखी थी।राखी बंधवाने के बाद दोनो भाइयो ने एक लिफाफा नयना को उपहार के रूप में दिया।नयना ने खुश होकर उस लिफाफे को अपने सिर से लगा कर अपने पास रख लिया।
भाइयो के जाने के बाद नयना ने उस लिफाफे को समीर के सामने खोला तो वह आश्चर्यचकित हो गयी,उस लिफाफे में उसके लिये एक सोने की चेन और एक अगूठी के साथ वह लिफाफा भी था जिसे वह मां के इलाज के लिये अपने भाइयों को देकर आयी थी।नयना की आंखे बरस रही थी और समीर उसे सांत्वना दे रहा था।दोनो ओर के रिश्ते आज सरोबार थे,बिल्कुल निःशब्द।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित
*#मायके में आपके रिश्ते बने होते हैं पर ससुराल में बनाने पड़ते हैं*
VM