मैं अपने घर की बाल्कोनी में बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा था जो थोड़ी देर पहले मुझे मेरी माँ ने बनाकर दी थी वो भी अदरक डालकर…
सच तो यह था कि मुझे माँ की हाथों की बनी चाय बहुत पसंद थी,मैं जब भी घर पर होता पत्नी को छोड़ मेरी माँ को ही चाय के लिए बोलता था,इससे पत्नी साहिबा नाराज होती थी या नहीं ये तो नहीं जानता पर अक्सर कहती रहती थी लटके रहो माँ की पल्लू से वही साथ रहेगी जीवन भर,..और माँगना मुझसे आगे तब चाय क्या चाय की पत्ती तक न दूँगी…
मैं हँस देता और कहता तुम दो या न दो माँ तो ताउम्र देगी वातसल्य का अमृत भी और चाय भी…
जब मैं पाँच साल का था तभी मेरे पिता मुझे मेरी माँ की गोद में छोड़कर दुनिया से विदा हो गए थें..तब लेकर आज तक माँ के वातसल्य और ममता के आगे पिता की कमी कभी खली ही नहीं..हाँ उनके प्यार बिना दिल का एक हिस्सा जरूर खाली रहा..जो गाहे बेगाहे एकांत में आँसूँ बन कर आँखों से टपक पड़ता है….सच कहूँ तो आज पचास के उम्र में भी पिता के साये को तरसता हूँ मैं..कभी कभी बहुत याद आती है उनकी..
खैर …काफी सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था मैं,
माँ पत्नी और दो छोटे छोटे बच्चे, मुन्नी और बबलु,दोनों ही पढने और शैतानी में अव्वल….
चाय की चुस्कियों के साथ…अखबार पर नज़र दौड़ा रहा था..तभी एक खबर पढ़ मन करूणा से भर गया…
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खबर ही कुछ ऐसी थी…
एक बेटे ने पत्नी के खातिर अपनी माँ की हत्या कर दी थी..
खबर हृदयविदारक थी..अंतरात्मा तक को झकझोर देने वाली..मेरा मन व्यथित हो उठा था और न चाहते हुए भी आँखों के सामने…वो मंजर पुनः सामने आ गया..जिसे सोचने मात्र से मेरी रूह काँप जाती है..उस दिन मैं ऐसा सहमा कि आज तक संभल नहीं पाया…मैं हर घड़ी बस माँ ही माँ करता रहता..
हर खाली समय कोशिश रहती की माँ के साथ बिताऊँ..
पत्नी माँफोबिया हो गई आपको कहकर चिढाती रहती ..है
माँ भी कहती दो दो बच्चों का बाप हो गया फिर भी बच्चे की तरह करता रहता है..
कहते हैं कोई भी निर्णय अकेला नहीं होता, वह अपने पहले के और बाद के निर्णयों से किसी न किसी रूप से जुडा रहता है..दूसरी हम सहमत हो या न हो परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि निर्णय ही प्रशासन का हृदय है…
उस रात का लिया निर्णय मेरे लिए किसी अग्नि परिक्षा से कम नहीं था..
काफी जोरों से हवा चल रही थी उस रोज..,आँधियों के भी आसार थे,मैं बाल्कोनी में बैठा माँ और पत्नी का इंतजार कर रहा था,कब आए कि माँ के हाथों की बनी चाय की प्याली नसीब हो ,बाजार गयी थी दोनों…।…बच्चों के नाना नानी आये हुऐ थे इसलिए दोनों बच्चें उनके साथ मग्न थे…तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी किसी अंजान नंबर से फोन था..फोन उठाने के बाद सामने वाले ने जो कुछ भी कहा सुनकर बेचैनियाँ बढ़ गयी,मन काफी घबराने लगा और मैं फोन करने वाले के बताए हास्पिटल की ओर अपनी स्कूटर से जल्दी जल्दी पहुँचा.।
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माँ और पत्नी का एक्सिडेंट हो गया था और दोनों काफी जख़्मी थे,किसी तरह कुछ लोगो ने उन्हें हास्पिटल पहुँचा दिया था,इस नेक काम में फोन करने वाला भी शामिल था शायद.मैं दौड़ा दौड़ा रिशेप्शन पर पहुँचा पता किया दोनों ऑपरेशन ठियेटर में थी,नर्शें भाग दौड़ कर रहीं थी,तभी एक डाक्टर बाहर आया मैं भाग कर उसके पास गया,उसने मुझसे मेरा परिचय और उन दोनों से संबंध पूछा मैने सारी बात बतायी तब उसने जो कहा मेरे लिए किसी अग्नि परिक्षा से कम न थी.दोनों के ही सर में काफी चोट थी और दोनों का ही खून काफी बह चुका था.।
डाक्टर था कि चिल्लाए जा रहा था जल्दी करें समय कम है दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता,मुझे माँ या पत्नी दोनों में से किसी एक को चुनना था क्योंकि उनके पास जो साधन था किसी एक को ही बचा सकते थे.।
बहुत कठिन और तकलीफ़देह क्षण था मेरे लिए और उससे भी ज्यादा तकलीफ देह था मेरा निर्णय लेना,कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ. क्या न करूँ,एक अजीब सी दुबिधा थी मन में.। शायद इसलिए कि कभी कभी कोई निर्णय लेना काफी कठिन हो जाता है खासकर तब,जब आपको आपके अपनों में से किसी एक को चुनना हो.। इसे बदकिस्मती कहें या संयोग दोनों का ही ब्लड ग्रूप B- था जो कहीं खोज़ने पर भी नहीं मिल रहा था और मेरा ब्लड ग्रूप-AB+ जो उन्हें दिया नहीं जा सकता था.। उनके पास कुछ “O” हीं बचा था जो किसी एक लिए भी पर्याप्त नहीं था लेकिन इतना था कि एक को दिया जा सके.! और फिर मैने वो निर्णय लिया जो शायद ही कोई बेटा लेता होगा…।
अपने ही कृत्य से मैं इतना आहत हो चुका था इतनी घृणा हो रही थी मुझे खुद से कि ऑपरेशन ठियेटर से निकल “आई. सी. यू” में भर्ती हो चुकी पत्नी को एक पल के लिए देखने तक नही गया था मैं वहीं जर्बत खड़ा खुद को कोशे जा रहा था..सारा शरीर शिथिल पड़ा था मानो काटो तो खून नहीं..
थोड़ी देर बाद मेरे सामने मेरी माँ का मृत शरीर था,मैं अभागा अपनी माँ की बली दे कर अपनी पत्नी की जान बचाई थी सिर्फ़ इसलिए कि माँ ने अपनी ज़िंदगी जी ली थी लेकिन पत्नी के आगे काफी जीवन पड़ा था और उसके साथ दो मासूम ज़िंदगी भी जुड़ी थी.। मैं माँ से लिपट कर रोए जा रहा था जिसने मुझे जन्म दिया पाला पोषा आज मैनै अपनी पत्नी के लिए उसकी बली चढ़ा दी थी,मैं रो रहा था चिल्ला रहा था मुझे माफ़ कर दो माँ मुझे माफ़ कर दो…
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पास खड़ी नर्शें और डाक्टर मुझे संतावना दे रहे थे.।
तभी माँ की आवाज आयी….
क्या किया तुमने जो माफ़ कर दूँ ,..
क्यूँँ खामोखाह पागलों की तरह चिल्लाए जा रहा है , बच्चें जाग जाऐंगे ले चाय पी,आदरक डाल कर बनायी है तेरे लिए….
मैं चाय की प्याली किनारे रख झट माँ से लिपट गया.।
पीछे खड़ी पत्नी भी असमंजस में थी आखिर क्या हुआ…जो मैं इसतरह ..माँ से माफी मांग रहा..
माँ ने पूछा…आखिर हुआ क्या बता तो सही…
मेरे कुछ कहने से पहले…मेरी पत्नी बोल उठी.
होना क्या है… माँ जी…
कोई सपना देख लिया होगा जागती आँखों से …
या फिर हो सकता है हम सास बहू को लेकर ही कुछ सोच रहे हों,माँ बेहतर कि पत्नी.?
मानों मेरी पत्नी को मेरे दिल का हाल पता हो..
पगले….माँ मेरे बालों को सहला रही थी और धर्मपत्नी के होठों पर मुस्कान विरजमान
और मैं सोच रहा था किसे क्या कहूँ.मैं तो ये भी नहीं जानता था कि मैं गलत था या सही लेकिन जो भी था निर्णय तो मेरा ही था….
विनोद सिन्हा “सुदामा”