निर्मोही – डाॅ उर्मिला सिन्हा

समय अपनी गति से चल रहा था।सबकुछ नियति के हाथों में है।

 आकाश में चांद रजत थाल के समान लटका हुआ है…उज्जवल धवल चांदनी चहुंओर फैली हुई है…गंगा के आंखों में सूनापन…नींद कोसों दूर थी ।

     भविष्य का पता नहीं….बेमुरव्वत वर्तमान… और अतीत में उलझा बावडा़ मन।

  बाल-विधवा …मूंगा.. न नैहर में कोई न ससुराल में…आगे नाथ न पीछे पगहा।

    दुसरों का सेवा-टहल कर उसने अपनी आधी उम्र व्यतीत कर दी…जो मिला खाया …पहना…असंतोष उसे होता है जिसे कुछ उम्मीद होती है ..यहां तो सबकुछ नसीब के सहारे।

  आज गंगा को याद आ रही है …उसकी प्यारी बिटिया जिसे उसने जन्म भले ही नहीं दिया हो … अपना पेट काट पाल-पोसकर..बडा़ किया था.. दुनिया के झंझावातों से बचाया था।

उसे आज भी याद है…वह दुसरे  गांव से काम निपटा कर सांझ ढले  वापस आ रही थी…अचानक सरसों के खेत से किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी… उसके पांव ठिठक गये…इधर उधर देखा…ग्रामीण परिवेश…भूत-प्रेत…कीचीन…जिन्न …की अनेक झूठी-सच्ची कहानियां सुन रखी थी.. दूर-दूर तक किसी का नामोनिशान नहीं।  वह भागना चाह रही थी.. फिर वही धीमी-धीमी सिसकियां।

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     पैर जैसे जम गये…गंगा ने जी कडा़ किया.. आहिस्ता-आहिस्ता सरसों के खेत में आगे बढी़”..जय हनुमान ज्ञान गुण सागर…!” बुदबुदाते हुए

  चिथडों में लिपटी नवजात कन्या …  उसका दिल धक् कर गया.. फिर उसे होश नहीं, कैसे  बच्ची को गोद में उठाया …थर-थर कांपते…दौड़ते हुए सरपंच के सामने जा खडी़ हुई..”यह..यह…” बोली नहीं निकल रही थी….जिला-जवार उमड़ पडा़ …आजतक ऐसा देखा न सुना।

 सर्वसम्मति से बच्ची गंगा को सौंप दी गयी।




  उसके कलेजे का टुकडा़ लाली दिन दूनी ..रात चौगुनी बढ़ने लगी ..गंगा लाली को निर्धन की पोटली के समान संभाल कर रखती।एक अज्ञात भय हृदय में रहता।”कोई मेरे लाली को मुझसे छीन न ले।”

“मां…मां “…कह लाली उससे ढेरो बातें करती।

“मां मुझे लाल फ्राक चाहिए।”

“मैं मीठी रोटी खाऊंगी ,हलवा भी।”

  वह गांव के स्कूल जाने लगी..कुशाग्र बुद्धि …आज्ञाकारिणी …लाली ..सबकी चहेती…शिक्षक आश्चर्य करते…”आपकी बेटी बहुत प्रतिभाशाली है…परिश्रम मेधावी दिमाग के बल पर एकदिन बडा़ नाम करेगी।”

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  गंगा गद गद हो जाती.. “हे सुरुज देव मेरी बिटिया की रक्षा करना।”

  समय बीतते देर लगती है।

“मां..मां मेरा चयन  विदेशी छात्रवृति की प्रतियोगी परीक्षा में पास होने के  कारण हुआ है “खुशी से हांफते कांपते लाली गंगा के गले जा लगी।”

“मतलब…”गंगा के लिये काला अक्षर भैंस बराबर।

बधाई देने वालों की तांता लग गयी …”बहुत किस्मतवाली हो लाली की मां…इस परीक्षा में गिनती के बच्चों का चयन हुआ है…उसमें तुम्हारी बिटिया भी है।””

  “विदेश पढने जायेगी लाली।”

   भावी प्रबल है…उसे कोई बदल नहीं सकता।

जिस बच्ची को माता-पिता ने गले का फंदा समझकर फेंक दिया था …वह आज विमान पर सात समंदर पार उड़ चली …पढाई..रहन-सहन सबका खर्चा सरकारी बस उसे सिर्फ मन लगाकर पढना है ,अहोभाग्य।

अभी तक यन्त्रवत सबकुछ होता गया…लाली का पासपोर्ट जरुरी कागजात… उसका विदेश गमन…  चार वर्षों का विछोह कैसे सहेगी गंगा।

   ” पत्ते के ओट में मनुष्य का भाग्य छिपा रहता है।”

  “मैं इंतजार करुंगी …अपनी बिटिया का ।”

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 गंगा अपनेआप को दिलासा देती…लाली वहां की बातें फोन पर बताती..”मां ,यहां सबकुछ वहां से  बिल्कुल अलग शानदार …सुंदर …रोमांचक है!तुम अच्छी तरह रहना …पढाई पूरी कर नौकरी मिलते ही तुम्हें लेने आउंगी मेरी प्यारी मां।”

   आज लाली को विदेश गये कई वर्ष बीत गये…न खत..न पैसा..न कोई समाचार…गंगा भी बूढी   लाचार हो चली है ।सिर्फ बिटिया से मिलने की लालसा है।

  कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई  ।इसी बीच पडोसी  से सूचना मिली कि “तुम बेकार चिंता करती हो

बगल गांव वाले बता रहे थे.”लाली  विदेश में  पढाई पूरी कर नौकरी कर रही है। वहीं विवाह कर लिया है ..एक बेटा भी है  संसार के समस्त सुख सुविधाओं  का उपभोग कर रही है।”

  गंगा का दिल टूट गया…जीने की चाहत नहीं…किंतु हाय रे ममता “कहीं आने पर मां को खोजा तो,मैं कहीं नहीं जाऊंगी ।”

  कभी-कभी आहत दिल से आह निकलती है..”काश हम कभी मिले ही न होते..”पछतावा होने लगा है  आखिर उसने ऐसी निर्मोही औलाद से आस ही क्यों लगाया।कैसे भूल गई  कि वह  सिर्फ पालक थी  असली मां नहीं।

    मन ही मन पछताती लाली को विदेश पढने ही क्यों भेजा।यहीं अपने कलेजे से लगाकर रखती।

 फिर खुश होती उसकी बेटी कुशल से तो है ।

#पछतावा

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना-डाॅ उर्मिला सिन्हा।

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