मानसी, मेरे प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा मत लो।तुम जानती तो हो,माँ ने मुझे कितने कष्टों से पढ़ाया लिखाया है।साथ ही खुद्दारी से जीने के संस्कार भी तो दिये हैं।
तभी तो तुम्हे समझा रही हूं,मानस।तुम्हारी एक हां, हमारा जीवन संवार देगी।देख लेना माँ भी खुश ही होंगी।
मानसी न तुम मुझे समझ पा रही हो और न ही मां को।
एक बहुत ही साधारण परिवार के अमोल जी को जब पुत्र प्राप्ति हुई,तो उनकी खुशी का कोई पारावार नही रहा।सामर्थ्य से बाहर जाकर भी उन्होंने मुहल्ले के हर घर मे लड्डू बाटे।पुत्र का नाम रखा मानस।अमोल जी एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क का जॉब करते थे।
कम वेतन के कारण उनका हाथ कुछ तंग रहता। फिर भी कभी किसी के आगे हाथ फैलाने की नौबत नही आयी। कभी कभी अमोलजी की पत्नी सुमित्रा सिलाई आदि करके कुछ अलग से कमाई भी कर लेती थी।वो तो ये अच्छा था
कि उनके पास एक छोटा सा अपना पैतृक घर था,जिस कारण किराया नही देना पड़ता था।मानस के आने के बाद अमोल के घर मे रौनक छा गयी थी।अपने ऑफिस से थका हारा आये अमोल की सारी थकान मानस को गोद मे लेते ही दूर हो जाती।अपनी छोटी सी गृहस्थी में अमोल अपनी अपनी पत्नी सुमित्रा और बेटे मानस के साथ खुशी पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।एक दिन सुमित्रा को घर बैठे एक भयानक समाचार मिला, वह तो
अमोल की इंतजार ही कर रही थी,उसी के एक्सीडेंट की खबर ने उसे जैसे बावली बना दिया,मानस को गोद मे लिये बदहवास सी सुमित्रा पैदल ही हॉस्पिटल की ओर दौड़ ली।हॉस्पिटल पहुंची तो सब कुछ खत्म हो चुका था।अमोल उन दोनों को छोड पँछी बन उड़ गया था।निर्दयी ने यह भी नही सोचा उसके मानस का क्या होगा।
सब्र तो एक न एक दिन करना ही पड़ता है, जीवन चक्र तो चलेगा ही।ये अच्छा हुआ अमोल की कंपनी छोटी अवश्य थी,पर संवेदनशीलता दिखाते हुए उन्होंने सुमित्रा को चपरासी की नौकरी दे दी।सुमित्रा ने भी नौकरी स्वीकार कर ली, सोचा कुछ तो आर्थिक श्रोत बन ही रहा है।उसे मानस के भविष्य की चिंता सता रही थी।सुमित्रा ने अब अपनी सिलाई का कार्य भी अधिक करना प्रारंभ कर दिया था।अपनी नन्ही आंखों से अपनी माँ की तपस्या को देख देख मानस भी बड़ा होता जा रहा था।समझ आने पर उसे अपनी माँ पर गर्व था जिसने कम उम्र में ही विधवा होने पर भी कभी भी कही भी अपने सम्मान से समझौता करते नही देखा था।ये संस्कार उसके दिलो दिमाग मे छाये थे।वह चाहता था,अब उसकी मां को कुछ भी ना करना पड़े,वह कमाये और मां बस आराम करे।
ईश्वर ने सुनी मानस का जॉब एक बड़ी इंडस्ट्री में लग गया।अब घर मे कोई तंगी नही थी,सुमित्रा को भी अब न नौकरी करने की जरूरत थी और न ही कपड़ो की सिलाई करके कमाने की।मानस की कंपनी में ही उसकी मुलाकात मानसी से हो गयी।मानसी भी उसी कंपनी में कार्यरत थी।दोनो की मुलाकात कब प्रेम में बदल गयी,उन्हें भी पता नही चला।
मानस ने जब मानसी को अपने जीवन की सहचरी बनने का प्रस्ताव रखा तब उसने मानस को बताया कि मानस मैं सब कुछ पहले ही तुम्हे बताना चाहती हूं,पहले भी बताना चाहती थी,पर बता न सकी,मेरे पिता मुरारी लाल ही इस कंपनी के मालिक हैं।सुनकर मानस अचंभित रह गया।असल मे मानस मैं अपने को आजमाना चाहती थी कि क्या मैं पिता की बैशाखियों से अलग भी अपना अस्तित्व रखती हूँ या नही।फिर पिता के सुझाव पर ही अपनी इंडस्ट्री में जॉइन कर लिया था।मानसी बोली मानस मैंने अपने पिता को हमारे विषय मे बता दिया है और वे हमारी शादी को तैयार भी हैं, बस चाहते है कि मानस इस कंपनी को संभाल ले और यही कोठी में अपनी मां के साथ आकर रहे।
मानसी मेरी योग्यता तो अभी इंडस्ट्री के एम.डी. बनने की नही है।सेठ जी अपनी पुत्री की शादी के एवज में शायद मुझे पुरुस्कृत करना या फिर अपनी बेटी के भविष्य को सुरक्षित करना चाहते हैं।
कैसी बात कर रहे हो मानस?मेरे पिता के मनोभावो समझने का प्रयास करो।
मानसी देखो मेरा ये छोटा सा घर है,छोटी सी नौकरी है, मैंने तुमसे कुछ भी छिपाया नही है।सब तुम्हे पता है।मैं अपनी इस दुनिया से खुश हूं,इस अपनी छोटी सी दुनिया मे तुम्हारा सदैव स्वागत है, पर मानसी मुझ जैसे स्वच्छंद पंछी को सोने के पिंजरे में कैद होने को मत कहो।मानसी मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे पिता जितनी सुविधा तो नही जुटा सकता पर तुम्हे किसी चीज की कमी न हो इसका प्रयास मैं भरसक करूँगा।आ जाओ मानसी अपने इस घर मे।मुझे मेरे आत्मसम्मान से समझौता करने को बाध्य मत करो,मानसी।
असमंजस की स्थिति में मानसी मानस को कोई उत्तर न दे पायी और वापस घर आ गयी।सेठ मुरारीलाल जी द्वारा बेटी मानसी को गुमसुम और उदास देख पूछा,बेटी क्या बात है,क्या प्रॉब्लम है,सब ठीक तो है ना।मानसी पिता की सहानुभूति पा फफक पड़ी।और उसने मानस का निर्णय बताया।साथ ही कह दिया पापा मैं बिना मानस के नही रह सकती।
मुरारीलाल जी मानसी के सिर पर हाथ रखते हुए बोले,बेटी तू और हम बहुत ही सौभाग्यशाली हैं जो हमे मानस जैसा हीरा मिला है।बिटिया आज के जमाने मे क्या कोई ऐसे ही मिल जाता है जो करोड़ो की संपत्ति को ठुकरा दे,यह सब देवी स्वरूपा उसकी माँ के संस्कारो का परिणाम है।हम मानस जैसे दामाद को नही खो सकते।जा बेटी मानस की मां की छाया में।मानसी असमंजसता से निकल चुकी थी,वह दौड़ ली मानस के पास।
एक सादगी भरे समारोह में खुद सेठ मुरारीलाल जी ने ही कन्यादान किया और मानसी मानस एक हो गये।सेठ मुरारीलाल जी के चरणस्पर्श करने जैसे ही मानस झुका तो उन्होंने उसे बाहों में थाम लिया।भीगी आंखों से बोले मानस तूने मानसी से झूठ कहा था कि तुझे उसके पिता की संपत्ति नही चाहिये, तू तो निराला ठग निकला रे,मेरी अनमोल संपत्ति मेरी मानसी को ही चुरा ले गया।बाबूजी बाबूजी कहते कहते मानस मुरारीलाल जी से चिपट गया।
मुरारीलाल जी बोले बेटा, अब जीवन मे करने का कोई उत्साह तो रहा नही,बस इतनी बात इस बूढ़े की मान लेना,मैं अपनी संपत्ति का ट्रस्ट बनाऊंगा,जो निराश्रित वृद्धजन के लिये होगा,उसे जरूर संभाल लेना,मानस मेरे आग्रह को ठुकराना मत मेरे बच्चे।मानस ने मुरारीलाल जी के चरणस्पर्श कर लिये और सेठ जी ने मानस और मानसी को गले से लगा लिया।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित
*सोने के पिंजरे से ज्यादा आत्मस्वाभिमान की टूटी फूटी झोपड़ी कही ज्यादा अच्छी होती है*