नेक दिल इंसान – शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

गाँव में एक नवयुवक रहता था। विन्दास मस्त मौला, बहुत ही सीधा साधा ,भोला सा नाम था हरिया। पढाई लिखाई में मन नहीं लगा तो दसवीं कर के छोड़ दी। कोई काम मिल जाता तो कर लेता, नहीं तो वह ऐसे हो घूमते-फिरते जिसको जरूरत होती उसकी मदद कर देता।

मसलन किसी की गाय घुम गई तो वह ढूंढने  में मदद करता, किसी के खेत पर कोई जरुरत आ गई वह पहुँच जाता, जन्म मरण, बीमारी कैसी भी आवश्यकता हो हरिया तैयार रहता। इस तरह बिना कुछ लिए वह सबकी मदद करता और सब उसे गँवार समझते। गाँव के लोगों में धारणा थी कि यह अनपढ़ गंवार है कुछ नहीं समझता तभी तो सबकी मदद करता फिरता है, अपना कोई काम नहीं करता। 

इसके  विपरित हरिया की सोच थी किसी  जरूरतमंद की सेवा करना इन्सानियत है, मानव सेवा है सो वह तहे दिल से इन नेक कामों को अंजाम देता। नेकी कर दरिया में डाल वाली सोच का था हरिया।

उसके परिवार में माँ, भाई-भाभी एवं उनका तीन बर्षीय पुत्र था। माँ हमेशा उसके लिए चिन्तीत रहती। उसे कोई पक्का  काम मिल जाए तो  उसका भी घर बस जाए। ऐसे निठल्ले  को कौन अपनी लड़की देगा। माँ उसे बहुत समझाती कि कोई पक्का काम पकड ले तो तेरी भी घर गृहस्थी बसा कर में अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाऊं ।पर उस पर कोई असर नहीं होता । जिस दिन काम मिल जाता पूरे पैसे माँ के हाथ पर धर देता ।

एक दिन वह सड़क के किनारे पुलिया पर  बैठा था तभी तेज गति से एक कार आई। एक छोटा बच्चा वह उसके सामने जा रहा था, कार की चपेट में आता इस के पहले ही वह चीते की सी फूर्ति से दौडा बच्चे को उठाकर सड़क के उस पार निकल गया, उस तरह उसने बच्चे की जान बचा ली।

अब तो वह गंवार गांव  का हीरो बन गया। सब उसकी सराहना कर रहे थे कि अपनी जान पर खेल कर उसने बच्चे की जान बचा ली। आज सबको वह एक नेक दिल इंसान  लग रहा था। 

गाँव के सरपंच तक यह बात पहुंची। उन्होंने उसे बुला भेजा। उन्हें ऐसे ही जीवट वाले इंसान की आवश्यकता थी सो उन्होंने उसे अपने यहाँ काम पर  रख लिया। वह घर – बाहर से सम्बंधित सभी कार्य करता।उसकी ईमानदारी एवं कठोर परिश्रम से  कार्य करने की क्षमता से प्रसन्न हो कर सरपंच जी ने उसका मेहनताना भी बढ़ा दिया। 

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सरपंच जी की एक किशोरवय बेटी थी। वह दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी। एक दिन वह किसी काम से बाहर गया हुआ था वहाँ उसने देखा कि वह गांव के एक अवारा लड़के के साथ बात कर रही थी। हरिया जानता था कि वह लडका लोफर है, बदमाश टाइप का है lशराब पीना जुआ खेलना उस‌की आदत है। 

 फिर उसने मिताली पर नजर रखनी शुरू कर दी ।कई बार उस लड़के के साथ देखा। वह परेशान हो रहा था कि कैसे मिताली को उससे मिलने से रोका जाए। वह जानता था यह बात यदि उसने सरपंच जी को बताई तो वे कभी भी उसका विश्वास नही करेंगे। बह  उधेड़बुन में था कि क्या करे। वह अपनी पेनी नजर मिताली पर रखे हुए था।

एक दिन उसने देखा कि मिताली अपने हाथ में एक गठरी सी बेग के नीचे छिपाकर जा रही है वह चुपचाप उसके पीछे हो लिया कुछ दूर जाने पर देखा की खेत के किनारे वही लड़का खडा है और मिताली  भी उसी ओर जा रही है। वह उसका पीछा करते खेत में छुपकर देख रहा था।

लडका मिताली से पूछ रहा था कि तुम गहने और रुपये तो ले आई हो ना अब हम शहर भाग चलते है, ये गहने और रुपये हमारे खर्चे में काम आयेंगे, तब तक में कोई काम ढूंढ लूंगा।  तभी उसने पलक झपकते उस लड़के के हाथ से गठरी छीन ली। लड़का उससे हाथापाई करने लगा।

उसने उसकी पिटाई कर अधमरा कर वहीं पटक दिया और मिताली को लेकर घर आ गया। मिताली को देखकर परिवार वालों की जान में जान आ गई।

 सरपंच जी उसके ऊपर चिल्ला  पड़े साले गंवार , एहसान फरामोश तू मिताली को कहाँ ले गया था। मैंने तुझ पर भरोसा किया और तूने उसका यह सिला दिया।

मालिक पहले मेरी बात तो सुन लें । 

किन्तु सरपंच जी इतने क्रोधातुर थे कि उन्होंने उसके हाथ से वह गठरी ले दो-तीन झापड़ मार दिए और बोले गंवार तो गंवार ही रहेगा, कितना भी उसको मान दो उसकी कीमत वह क्या जाने।

तभी मिताली बोली पापा हरिया को मत मारो यह मुझे लेकर नहीं गया था ,लेकर आया है। आपकी बेटी की 

इज्जत और यह रकम जो मैं लेकर  गई थी यह  लौटा लाया है,  यह गंवार नहीं एक सच्चा इंसान है। और फिर मिताली ने पूरी बात उन्हें बताई। 

अब वे अपनी सोच और अपने कॢत्य पर शर्मिन्दा   थे। उसके पास जा उसके सिर पर हाथ फेर कहा मुझे माफ कर  दे हरिया मैंने कितना गलत  सोचा तेरे बारे में।

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वह  हाथ जोड कर बोला मालिक आप माफी मांग कर मुझे शर्मिंदा न करें मैंने आपका नमक खाया है उसीका कर्ज चुकाया है। मैं गरीब जरुर हूँ किन्तु गंवार नहीं। सही गलत सब समझता हूं।

सरपंच जी उसे गले लगाते हुए बोले हरिया आज से जीवन पर्यन्त हमारे परिवार के सदस्य की तरह रहेगा।  मैं तेरा ऋणी हूं तूने मेरे घर  की इज्जत  जो बचाई है।हरिया के सुखद भविष्य की अपेक्षा करते 

हुए हुए कहानी यहीं खत्म करती हूं।

शिव कुमारी शुक्ला

स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित

 

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