नाती का बरहों संस्कार बहुत अच्छी तरह से निपट गया तो मन को सुकून मिला। नीरा मेरी इकलौती बिटिया थी,तो मैंने भी अच्छे से अच्छा करने की कोशिश की थी..पर फिर भी डर लग रहा था कि लेनी-देनी और फल,मिठाई में कहीं कोई कमी ना रह जाये। लेकिन सबको खुश देखकर मेरी ये चिन्ता भी खत्म हो गई।
अब वापस जाने की तैयारी कर रही थी कि नीरा की सासु माँ अपने बेटे यानि मेरे दामाद को साथ लेकर आईं और उससे हमारे पैर छुआकर पति को रुपये का लिफाफा और मुझे अँगूठी की डिब्बी पकड़ा दिया।
“अरे,ये क्या दीदी?” मैं अचकचा सी गई।
“हाँ जी भाभीजी,ये आपके लिये है” मुझे हैरत से देखता देखकर वह हँस दीं।
“पर,,ये तो उल्टा हो रहा है!मेरा मतलब है कि अपने यहाँ ऐसा रिवाज़ नही होता है और ना ही हमने कभी देखा है कि लड़के वालों से हम नेग लें.. मतलब जिन्हें लड़की दी है,कन्यादान किया है,उनसे कैसे ले सकते हैं? बल्कि हमें तो और देना चाहिए!
नही, नही,हम नही ले सकते.. पाप पड़ेगा हमको” हड़बड़ाते हुए बचपन में अपनी दादी और अम्मा लोगों द्वारा कही सुनी हुई बातें मैं बोलती चली गई।
“कैसा उल्टा रिवाज़? अरे बेटा,बेटी के चक्कर में ना पड़िये भाभी जीे! बराबरी का रिश्ता है हमारा! जैसे हम लोग दादी,बाबा बने हैं,वैसे ही आप भी तो नाना,नानी बने हैं?” वह हँस पड़ीं “अब हमारी खुशी तो साँझा हैं ना? और जैसे सचिन मेरा बेटा है,वैसे ही आपने भी तो अपनी पाली-पोसी बेटी हमें दी है!
अब बरसों पुरानी रूढ़ियाँ तोड़नी होगी भाभी जी..इसके लिए किसी को तो पहल करनी पड़ेगी,तो हम और आप ही क्यों नही? औरत होकर भी हम एक-दूसरे की भावनाओं को ना समझें तो फिर क्या फायदा! और डरिये नही,आपको कोई पाप नही पड़ेगा.. क्योंकि ये रिवाज़ भी तो हमारे ही बनाये हुये हैं,ना कि भगवान के बनाये हुये? एक बात और,हम दादी बाबा बने हैं तो आप कितना कुछ लाई हैं,
ऐसे ही आप लोग भी तो पहली बार नाना नानी बने हैं तो हमारी तरफ से ये आपको उपहार है! लेन-देन मायने नही रखते,बल्कि ये तो पीछे रह जाते हैं! छोटी-छोटी बातों से खुशियाँ मिलें, रिश्ते अच्छे बने रहें,हम सुख दुःख में मन से शामिल हों,एक दूसरे के साथ खड़े रहें और हमारे बच्चे हमारी इज़्जत करें..हमारे लिए यही बहुत बड़ी बात होगी,,,है कि नही?
” वह बोले जा रही थीं और मैं हतप्रभ सी उस सुलझी हुई महिला को देख रही थी जो कितनी ख़ूबसूरती से रिश्तों की एक नयी परिभाषा गढ़ रही थी।
कल्पना मिश्रा
कानपुर