रंजन एक समृद्ध परिवार का खूबसूरत पढ़ा लिखा लड़का था। अभी सात माह पूर्व एक कंपनी में उसकी बढ़िया नौकरी लग गई। माँ की इच्छा थी कि अब जल्दी से बहू घर पर आ जाए। बहुत अच्छे घरों से उसके लिए रिश्ते आ रहै थे। कुछ लड़कियाँ तो पढ़ी लिखी होने के साथ बेहद खूबसूरत थी।
मगर रंजन को कोई रिश्ता पसंद नहीं आ रहा था। उसका दिल गवाह ही नहीं दे रहा था, कि इनमें से किसी लड़की से वह विवाह करे। ऐसा भी नहीं था कि उसने किसी लड़की को पसन्द कर रखा था, और वह उससे शादी करना चाहता था। माता-पिता दोनों बहुत परेशान थे। रंजन की उम्र बढ़ती जा रही थी, उसके सभी दोस्तों का विवाह हो गया था। माँ भी समझा-समझा कर थक गई थी। जब माँ का बस नहीं चला तो उन्होंने सब कुछ ईश्वर के ऊपर छोड़ दिया।
सावन का महिना था, चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी। खुशनुमा मौसम था। गाँव के बाहर प्राकृतिक रमणीय टैकरी पर एक शंकर मंदिर था। रविवार के दिन रंजन और उसके मित्रों ने वहाँ जाने का सोचा। वे लगभग ५ बजे वहाँ पहुंचे। टैकरी के बाईं ओर एक नदी बह रही थी। एक छोटे से जल प्रपात से पानी कोलाहल करते हुए बह रहा था।
नदी के दूसरी ओर कुछ दूरी पर एक छोटा सा गाँव बसा था। सारे दोस्तों ने मंदिर के दर्शन किए और इधर- उधर घूमकर वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लिया। सूर्यास्त हो रहा था और वहाँ सूर्यास्त का नजारा बहुत ही सुन्दर दिख रहा था। मंदिर में आरती का समय हो रहा था। शंख और घन्टियों की आवाज से पूरा वातावरण गुंजायमान हो रहा था।
रंजन और उसके साथियो कीआरती में शामिल होने की इच्छा नहीं थी अत: वह टैकरी से नीचे उतरने लगे। जब वे उतर रहै थे, रंजन की नजर एक स्त्री पर पड़ी, सफेद साड़ी पहने, हाथ में फूलों की डलिया और दीपक लिए वह सीढ़ियां चढ़ रही थी। धीमी चाल, नजरे झुकी हुई थी । उसके चेहरे पर उदासी साफ नजर आ रही थी। रंजन को लगा कि चेहरा जाना पहचाना है।
उसे कहाँ देखा यह उसे समझ में नहीं आ रहा था।उसके काले घने बाल कमर तक लहरा रहै थे। एक अजीब आकर्षण था उसमें, रंजन उसे मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए देखता रहा। उसकी इच्छा हुई की मंदिर में जाकर उसे देखे मगर उसके दोस्त टैकरी के नीचे उतर गए थे, और उसकी राह देख रहै थे।रंजन की उत्सुकता कम नहीं हो रही थी, उसने एक पुजारी जी से,
उसके बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- यह बड़ी ही प्यारी बच्ची है। बहुत दु:खी है। शादी के छह माह बाद ही इसके पति का देहांत हो गया। ससुराल वालों ने इसे अप शकुनी कहकर घर से निकाल दिया।मायके में भी माता- पिता नहीं है। भाई भौजाई ने सहारा नही दिया ,तभी से नदी पार उस गाँव में एक छोटे से कमरे में रहती है। कमरे के बाहर खाली जगह में सब्जियाँ और फूल के पौधे लगा रखे हैं।
सब्जियाँ और फूल की मालाएँ बनाकर बेचती है,और अपना गुजर बसर कर रही है। बहुत मृदुभाषी है। रोज इस समय मंदिर मेंआती है। भजन इतने मधुर सुनाती है कि बस सुनते ही जाओ।रंजन का मन दौड़ रहा था, उस स्त्री की ओर।नजरों ने जबसे उसकी छवि देखी तभी से मस्तिष्क उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था। वह अनमना सा दोस्तों के साथ घर आ गया। कई प्रश्नों ने उसे घेर रखा था,
उन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए उसने सोचा कि कल वह इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए फिर से मंदिर जाएगा। दूसरे दिन वह फिर मंदिर गया, निगाहें उसी युवती को ढूंढ रही थी। आज वह आरती में सम्मिलित होने के लिए रूका। वह आई सफेद साड़ी में लिपटी, बड़ी-बड़ी खूबसूरत ऑंखें और ऑंखों के नीचे झलकती काली झांइयां। पहचानी सी सूरत को न पहचान पाने की बैचेनी रंजन के चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
उस युवती ने भोलेबाबा को पुष्प बिल पत्र अर्पित किए। तब तक आरती का शंख और घंटिया बजने लगे उसने दीपक जलाकर रख दिया और आरती के स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगी। आरती और प्रसाद के बाद सभी लोग मंदिर से चले गए। उस युवती ने मंदिर में रूककर एक भजन गाया। रंजन मंदिर के बाहर सीढ़ियों पर बैठा उसका भजन सुनता रहा।
वह उसका इन्तजार कर रहा था। वह उससे बात करके उसके बारे में जानता चाहता था। उसका मन उसी की ओर खिंच रहा था। जब वह घर जाने के लिए सीढ़ियां उतर रही थी, वह उसके साथ हो लिया। उससे कहा -‘आप बहुत अच्छा गाती है। आप गलत न समझिए पर आपको देखकर लगता है कि मैं आपसे पहले भी मिल चुका हूँ पर याद नहीं आ रहा।’
युवती ने कहा ‘धन्यवाद! तुम रंजन हो ना! मैने तुम्हें कल ही पहचान लिया था, मेरा रूप रंग लिबास सब बदल गया है, तुम कैसे पहचानोगे। मैं पूजा जो तुम्हारे घर के सामने वाले मकान में रहती थी। मैं आठवीं में थी और तुम दसवीं कक्षा में। पापा के ट्रांसफर के बाद हम दूसरे गाँव में चले गए। मैं बी.ए.फाइनल में थी तब मेरी शादी तय हो गई, मैं परीक्षा भी नहीं दे पाई।
किस्मत की मार शादी के छह महिने बाद ही यह रूप जिन्दगी का हिस्सा बन गया। उसकी बड़ी-बड़ी ऑंखें डबडबा गई थी। बात बदलने की दृष्टि से उसने कहा अंकल आंटी कैसे हैं? मेरे मम्मी पापा भी मेरा साथ छोड़ गए। बस अब इन प्रभु का ही सहारा है।’ रंजन के मुख से कुछ शब्द नहीं निकल रहै थे, वह अपलक उसे देख रहा था, और उसकी वाणी में छिपे दर्द को महसूस कर रहा था। बातें करते-करते वे कब टैकरी से नीचे आ गए पता ही नहीं चला। रंजन उसे जाते हुए देखता रहा।
मन में जो जिज्ञासा थी,उसे पहचानने की, वह तो शांत हो गई। मगर मन बैचेन था,उसी की ओर खिंचता चला जा रहा था। वह उसके जीवन में खुशियाँ भरना चाहता था। उसे लग रहा था कि जिस हमसफर की उसे तलाश थी, वह पूजा ही है। उसकी मन:स्थिति मम्मी -पापा से छिपी नहीं थी। माँ ने पूछा-‘बेटा क्या बात है? कुछ परेशान लग रहै हो।’ रंजन ने कहा-
‘माँ आपको याद है। हमारे घर के सामने शर्मा अंकल का मकान था….. ‘ माँ ने बात काटते हुए कहा- ‘हाँ याद है, उनकी एक प्यारी सी बच्ची थी पूजा । कितनी प्यारी …बड़ी-बड़ी ऑंखें थी उसकी।’ माँ…आज उसकी ऑंखों में सिर्फ ऑंसू है। वह मिली थी मुझे मंदिर में, अंकल आंटी का देहांत हो गया। शादी के छह माह बाद ही उसका पति शांत हो गया।
इसमें उसका क्या कसूर था,सास -ससुर ने उसे अपशकुनी कहकर घर से निकाल दिया। माँ क्या उसे खुशियाँ पाने का कोई अधिकार नहीं है?’ ‘है ना बेटा! पर तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’ माँ शायद आपको यह ठीक न लगे मगर मैं उससे शादी करना चाहता हूँ।’ ‘कैसी बातें कर रहा है, बेटा! लोग क्या कहेंगे। कहेंगे अश्विन भारद्वाज के बेटे को कोई लड़की नहीं मिल रही थी,
जो एक विधवा से शादी की। नहीं बेटा यह ठीक नहीं है।’ माँ ! “लोगों का तो काम ही होता है बाते बनाना” हम उनकी बातों पर क्यों ध्यान दे, मेरे इस कदम से पूजा का जीवन संवर जाएगा। उसके दु:खी जीवन में खुशियाँ आ जाएगी। माँ अभी मैंने उसे कुछ नहीं कहा है। अगर आपकी और पापा की सहमति होगी, तो ही मैं उससे बात करूँगा। यह आप दोनों पर है, कि आप बेटे की खुशियाँ चुनते हैं
या लोगों की कही अनर्थक बातों को महत्व देते हैं।’ दोनों ने अपने बेटे की खुशियाँ का मान रखा। रंजन ने मंदिर के पंडित जी से अपने मन की बात कही तो वे बहुत खुश हुए। पूजा से बात की तो वह भी यही बोली, कि लोग क्या कहेंगे। तब रंजन ने उसे भी समझाया कि “लोगों का तो काम ही होता है बातें बनाना” तुम बस अपनी इच्छा बताओं। और फिर…..। रंजन और पूजा विवाह के बंधन में बंध गए।
पंडित जी ने विवाह की रीति सम्पन्न कराई और रंजन के माता- पिता ने आशीर्वाद दिया। आज दोनों मंदिर दर्शन करने जा रहै थे। पूजा ने लाल चुनरी पहनी थी, चेहरे पे मुस्कान थी, हाथों में फूल की डलिया थी और रंजन के हाथों में था नारियल, जिसे प्रभु को अर्पित कर, ये अपने नये जीवन की शुरुआत करने वाले थे।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
#लोगों का तो काम ही होता है बातें बनाना