*ये क्या अनर्थ कर दिया तुमने* वाक्य पर आधारित कहानी:
*नया उजाला*
अरे झुमरू ये क्या कर दिया रे तूने,पंडित जी के मुँह से अपना मुँह लगा दिया?रे,हममें तो इनके चरणों को छूने की भी औकात नही है।
तो क्या करता बापू,पंडित जी चक्कर खा गिर पड़े थे,मुहँ से सांस नही देता तो ये मर जाते।
वो तो ठीक है बेटा, पर तू नही समझेगा।कोई न कोई अनहोनी आज होकर रहेगी।भगवान जाने क्या होगा?पंडित जी के मुँह से एक हरिजन मुँह लगा दे,इसे बेटा ये बड़े लोग स्वीकार नही करेंगे।लगता है गावँ में हमारे दिन पूरे हो गये हैं।
बापू एक बात तो बता इस गंगा नदी में तो हम भी नहाते है और गांव के बड़े लोग भी,गंगा तो मैली नही होती,तो ये बड़े क्यो हमे हिकारत से देखते हैं।
चल जल्दी से घर को,सब भगवान की माया है।
गंगा किनारे बसा तिगरी नामक गाँव,जहां यूँ तो सभी बिरादरी के लोग रहते थे,पर वहाँ उच्च जाति कही जाने वालों की अधिकता थी।दलित समाज की एक अलग बस्ती थी।वैसे कोई वैमनस्य भाव किसी से नही था,पर निम्न कहे जाने वाले अपनी नियति मान इस मर्यादा का पालन खुद ही करते कि जिससे टकराव की स्थिति पैदा न हो।गाँव मे ही विष्णु पंडित रहते थे,कर्म कांड,शास्त्रों के बड़े विद्वान थे
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।गांव में उनकी सलाह से ही सामान्य रूप से शुभ कार्य सम्पन्न होते।चूंकि गाँव गंगा नदी के किनारे ही बसा था, सो गाँव वाले गंगा में ही स्नान करते।निम्न कहे जाने वाले भी गंगा स्नान तो करते पर बड़े लोगो के स्नान के बाद ही।
गंगू का छोरा झुमरू और विष्णु पंडित का बेटा आशीष दोनो छोटे पन से ही कब दोस्त बन गये और छुप छुप कर कब से साथ ही खेलने लगे,ये तो उन्हें भी पता नही चला।लेकिन एक बात थी कि विष्णु पंडित जी ने कभी दोनो को एक साथ खेलने को मना नही किया।धीरे धीरे झुमरू आशीष के घर आने जाने लगा,वहां कोई उसे किसी छोटे मोटे काम को कहता तो झुमरू पूरे उत्साह से उस काम को कर देता।विष्णु पंडित जी पूरे नियम से चाहे सर्दी हो या गर्मी गंगा मैया में ही स्नान करते थे।गंगा स्नान कर वही किनारे पर बैठ पूजा पाठ करके ही घर वापस आते थे।
विष्णु पंडित जी कई दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे,फिर भी गंगा स्नान उन्होंने नही छोड़ा,बस इतना किया कि साथ मे आशीष को ले जाते।उस दिन जब विष्णुजी गंगा स्नान को जाने को उद्यत हुए तो आशीष उन्हें दिखाई नही दिया,तो वे स्वयं ही अकेले धीरे धीरे गंगा की ओर चले गये।स्नान तो उन्होंने कर लिया
पर जैसे ही नदी से बाहर आये तो कपड़े पहनते हुए पंडित जी को चक्कर आ गया और बेसुध होकर वे वही गिर पड़े।उस समय गंगा किनारे कोई था नही,वह तो संयोगवश झुमरू पहुंच गया।उसे कुछ सूझा ही नही,बस उसने समझा पंडित जी का सांस रुक गया है,इसलिये उसने अपने मुँह
को पंडित जी के मुँह से लगा कर जोर जोर से सांस फूंकने लगा।पंडित जी को होश आने लगा था कि गंगू ने इस दृश्य को देख लिया।बाप बेटे का वार्तालाप चल ही रहा था कि आशीष भी पहुंच गया।विष्णु पंडित जी को घर पंहुचा दिया गया।
गंगू हद से ज्यादा परेशान था,पता नही गांव वाले झुमरू की गुस्ताखी की क्या सजा मुकर्रर करे।वह सोच रहा था कि आज की रात ही गांव छोड़ दिया जाये।सोचते सोचते शाम हो गयी,इस बीच कुछ जरूरी सामान को बांध लिया,डर के कारण उसने झुमरू को भी घर से निकलने नही दिया।बस रात होने का इंतजार था।
इतने में ही दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनाई दी।गंगू का चेहरा पीला पड़ गया,उसे लगा गांव वाले ही होंगे।किसी प्रकार दरवाजा खोला तो सामने विष्णु पंडितजी को तीन चार अन्य ग्रामवासियों के साथ खड़े पाया।गंगू के होश उड़ गये, वह सीधा विष्णु पंडित जी के पैरों में लेट गया।माई बाप हैं
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आप,मेरे बेटे ने बहुत बड़ी गलती कर दी है,उसे माफ कर दो,जिंदगीभर गुलाम बनकर रहेंगे माई बाप।हमे माफ कर दो। पर ये क्या विष्णु पंडित जी ने गंगू को अपनी बाहों में भर उठाया और बोले अरे गंगू गलती तुमसे कहाँ हुई है मेरे भाई,झुमरू ने तो मेरी जान बचाई है।गलती तो हम सब से होती रही है जो जानवरो तक को तो अपना मान पाल लेते है पर अपने ही भाइयों से अछूत व्यवहार करते हैं।माफी तो हमे मांगनी है।
गंगू आश्चर्य से विष्णु पण्डितजी को देख रहा था।उसे लग रहा था अंधेरा छट रहा है,नयी सुबह का उजाला फैल रहा है।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित