नन्ही शबरी -मीनाक्षी चौहान

घर में आज पूजा है। माँ जी ने प्रसाद बनाने का जिम्मा मुझे सौंप दिया। खुद की तबियत ठीक नहीं है। हाथ नहीं लगा सकतीं इसलिए। जुटी हुई हैं कामवाली दीदी के साथ, लोगों के आने से पहले इधर सजाने उधर समेटने में। और ये कामवाली दीदी भी ना……इतना काम फैला है आज और ये अपनी तीन साल की गुड्डो को साथ ले आईं। प्यारी है पर मुझे गुड्डो की चीजों से छेड़खानी, धरा-उठाई कतई पसंद नहीं। माँ जी को ही भाता है ये सब। इसके आने पर बड़ी खुश-खुश रहतीं हैं।
इधर मेरा दिल बैठा जा रहा था पहली बार प्रसाद जो बनाने जा रही थी। पंचामृत तो जैसे-तैसे बना लिया था अब बारी थी पंजीरी बनाने की। इधर आटा भूनना शुरु ही किया था कि उधर से माँ जी ने सुनाना शुरु कर दिया। “देखो, आटा गुलाबी सा रखना, जला मत डालना। मखाने भून कर ढंग से कूट लेना और हाँ ……..शक्कर जरा ठीक डालना, कंजूसी मत करना।”
जैसा कहा वैसा कर दिया। “माँ बन गई पंजीरी।” मैनें किला फ़तह करने का बिगुल बजा दिया।


“राम ही जाने, क्या मैनें बताया क्या इसने बनाया” मेरे किले को माँ जी ने एक फूँक में उड़ा दिया। माँ जी को तो जैसे पक्का पता था कि मैनें कुछ ना कुछ गड़बड़ की ही होगी। मुँह लटक गया मेरा।
“फीता-फीता”……..रसोई में आलू प्याज़ से उठा-पटक कर रही गुड्डो के मुँह से ये सुनकर मैं ठिठक गयी। माथा पीट लिया अपना। गुस्सा भी आ रहा था मुझे और हँसी भी। वो अपना काम कर चुकी थी। उसकी नन्ही-नन्ही उँगलियों पर पंजीरी लगी देख कर समझ गई ‘फीता-फीता’ का मतलब। परात में रखी पंजीरी में ऊपर से और शक्कर डाल कर मिला दी।
पूजा शुरु हुई। भोग के लिये रसोई से पंजीरी ले जाते हुए मेरी नज़र भगवान जी की मन्द-मन्द मुस्कुराती हुई तस्वीर पर पड़ी। मैं भी मुस्कुरा दी। आज दूसरी बार भगवान जी जूठा जो खाने जा रहे थे।

मीनाक्षी चौहान

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!