ननद – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

“चरण वंदना, दीदी। बड़े भाग्य हैं हमारे जो आप पधारी हैं, हमारा मार्गदर्शन करने। आपकी उपस्थिति तो मुझे सभी चिंताओं से मुक्त कर देती है।” भाव विभोर होकर रमा ने अपनी बड़ी और इकलौती ननद सरला जी के चरणस्पर्श करते हुए कहा।

“जब तुमने इतने मनुहार से बुलाया तो कैसे न आती? और फिर मेरी प्यारी भतीजी विशु का विवाह है तो मुझे एक सप्ताह पहले आना ही था। मैं अपना फर्ज निभा रही हूं। कोई एहसान नहीं कर रही।” सरला जी ने भी अपने से छोटी भाभी रमा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।

तभी अपनी बुआ की लाड़ली विशाखा दौड़कर आती है और ‘नमस्ते बुआ जी’ कहते हुए सरला जी के गले लग जाती है।  

सरला जी भी उसकी खूब बलैयां लेती हैं, “मेरी विशु को किसी की नजर न लगे। इसे ससुराल में दुनिया की हर ख़ुशी मिले।”

फिर सरला जी विशाखा से कहती हैं, “विशु, बताओ तुम्हें अपनी शादी के उपहार में मुझसे क्या चाहिए? वही दिलवाऊंगी तुम्हें।”

विशाखा उत्तर देती है, “बुआ जी, आपको पता है, मम्मी हमेशा कहती हैं कि तेरी बुआ इस दुनिया की सबसे अच्छी ननद हैं। तो मुझे भी उपहार में आप आशीर्वाद दें कि मेरी ननद भी आपके जैसी हो।”

सरला बुआ ने अपनी विशु पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी और समझाइश भी दी, “विशु बेटी, अपनी मां की तरह सास और ननद को आदर देना। फिर तुम भी अपनी सास की लाड़ली बहू और ननद की प्यारी भाभी बन जाओगी।”

सच में सरला जी हैं ही ऐसी जिन्होंने कभी रमा को ननद वाला रौब नहीं दिखाया बल्कि उसकी बड़ी बहन बन कर हमेशा राह दिखाई और बदले में रमा से खूब मान-सम्मान पाया।  

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अब उनके सहयोगपूर्ण निर्देशन में विशाखा की शादी भी निर्विघ्न संपन्न हो गई और वह अपने सपनों के ससुराल पहुंच गई।

ससुराल में विशाखा का गर्मजोशी से स्वागत हुआ। ऐश्वर्य और वैभव का जीवन जीता छोटा परिवार, जहां सास, ससुर और पति तुषार के साथ उसके सुखी विवाहित जीवन की शुरुआत हुई। तुषार की एक ही बहन है, साक्षी, जो उससे पांच वर्ष बड़ी है और विशाखा को ननद के रूप में मिली।  

विशाखा के ससुर रियल एस्टेट से जुड़े हैं और काफी धन-संपत्ति के मालिक हैं। पति भी एक विख्यात कंपनी में ऊंचे ओहदे पर कार्यरत हैं। सास और ननद साक्षी दोनों ही उच्च शिक्षित हैं। साक्षी का ससुराल भी आर्थिक रूप से सम्पन्न है। इसलिए बाहर जाकर नौकरी न करना मां-बेटी दोनों का अपना फैसला है।  

विशाखा एक विद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षिका के रूप में कार्यरत है। उसकी शादी लोकल ही हुई है और पहले से ही तय शर्त के अनुसार ससुराल में भी किसी को उसके कामकाजी होने से आपत्ति नहीं है, तो उसकी नौकरी निर्बाध रूप से जारी है।  

ससुराल में विभिन्न कार्यों के लिए दो परिचारिकाएं हैं, तो विशाखा के ऊपर घरेलू कार्यों का खास बोझ नहीं है। आरामदायक जीवन है और घर में सबका प्यार और सहयोग उसे मिलता है। उसकी ननद साक्षी दूर के शहर में है। छुट्टियों में मायके रहने आती है, लेकिन फ़ोन पर विशाखा की उससे बातचीत होती रहती है। उसका अपने मायके में पूरा दबदबा है।

अपनी मां और बुआ की दी सीख के मुताबिक विशाखा ससुराल में सब बड़ों को आदर-सम्मान देती है और उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करती है। और बदले में सबसे स्नेह पाती है। पर वह धीरे-धीरे अनुभव करती है कि ससुराल के किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय में उसे शामिल नहीं किया जाता है।  

ससुराल में कोई भी समारोह हो, पार्टी या फंक्शन हो, उसकी कहीं कोई पूछ नहीं होती है। बहू के रूप में उसे रसोई के प्रबंधन की जिम्मेदारी दी जाती है। आगंतुकों की आवभगत, उनके रहने व सोने की व्यवस्था का जिम्मा उसे दिया जाता है। काम उसे स्वयं नहीं करना होता, अपने निर्देशन में परिचारिकाओं से ही करवाना होता है। पर उसे यह अजीब लगता है कि आगंतुकों की सूची तैयार करने व उन्हें उपहार देने संबंधी निर्णयों में उसे बिल्कुल भी महत्व नहीं दिया जाता।  

यहां तक कि शादी के तीन साल बाद जब विशाखा के बेटे पर्व का जन्म हुआ तो उसके जन्मोत्सव में विशाखा के मायके की ओर से किसे निमंत्रण दिया जाएगा, किसे उपहार में क्या दिया जाएगा, जैसे निर्णयों में भी उसे शामिल नहीं किया जाता। उसकी सास और ननद साक्षी ही मिलकर सब तय करती हैं। उसे लगा कि हो सकता है कि किसी के मन में कोई दुर्भाव न हो, बस यों ही उसका मत लेने का ख्याल किसी को न आया हो। इसलिए उसने अपनी ओर से पहल की और अपने मायके से संबंधित निर्णयों में अपना मत सास-मां के समक्ष रखा।

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पर विशाखा को जल्द ही स्पष्ट हो गया कि यह सब अनजाने में नहीं हो रहा था। न केवल सास, अपितु ननद साक्षी ने भी उसे चेताया कि वे दोनों उम्र और रिश्ते में उससे बड़ी हैं और ये सब निर्णय विशाखा के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। उसे जितना कहा गया है, उसी पर ध्यान दे।  

जब विशाखा ने अपने पति को भी अपनी मां और बहन के पक्ष में ही पाया तो उसने स्वयं का मन समझाकर अपने अध्यापन कार्य और पर्व की परवरिश पर ध्यान केंद्रित कर लिया। इसी तरह वर्ष बीतते गए। कुछ वर्षों बाद उसकी सास इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चली गईं।  

मां के जाते ही साक्षी ने मायके पर अपने नियंत्रण को बढ़ा दिया। साक्षी ने विशाखा से कहा भी, “मैं अपने पापा की पहली संतान हूं, इसलिए इस घर पर मेरा हक भाई-भाभी से ज्यादा है। अब मां के स्थान पर मैं हूं और आपसे आशा करती हूं कि आप अपनी बड़ी ननद के निर्देशों के तहत ही इस घर को चलाएंगी।”  

समय अपनी गति से चलता रहा। जब पर्व का 18वां जन्मदिन आया तो बड़े स्तर पर पार्टी आयोजित की गई। आयोजन स्थल घर से काफी दूर था। इसलिए नाते-रिश्तेदारों को देने के लिए उपहार, मिठाई के डिब्बे और फलों की छोटी टोकरियां आदि आयोजन स्थल पर ही ले जाई गईं।  

साक्षी के ससुराल की रिश्तेदारी में भी पर्व के जन्मदिन से एक दिन पहले कोई फंक्शन होने के कारण वह कुछ दिन पहले नहीं आ पाई, तो वह सीधा आयोजन स्थल पर ही आई। तो इस बार कार्यक्रम के लिए मेहमानों की निमंत्रण सूची और उपहारों की व्यवस्था आदि सभी महत्वपूर्ण निर्णयों में विशाखा प्रमुख रही।  

धूमधाम से जन्मदिन मनाए जाने के बाद अतिथियों को विदा किया जाना था। जैसे ही विशाखा के सहकर्मियों ने बाय कहा, विशाखा उन्हें देने के लिए मिठाई के डिब्बे लेने गई तो उसे निर्धारित स्थान पर सब डिब्बे, फल और उपहार आदि गायब मिले। पूछताछ करने पर पता चला कि वह सब तो विशाखा की ननद साक्षी ने अपने हिसाब से अतिथियों को वितरित कर दिए हैं और बचा सामान घर भेज दिया है।  

विशाखा को काटो तो खून नहीं। उसे अपने सहकर्मियों को ऐसे ही विदा करना पड़ा। सबसे बड़ा झटका उसे तब लगा जब उसके नोटिस में आया कि उसके चचेरे भाई-बहनों को कुछ नहीं दिया गया है। जो उपहार जिसके लिए था, उसके स्थान पर अलग ही ढंग से बांट दिए गए। बिना उपहार के जाने वाले अतिथि खुसर-पुसर कर रहे थे। घर भेजे गए उपहार भी इतनी दूर से वापस नहीं लाए जा सकते थे। विशाखा मन मसोसकर रह गई।  

सब अतिथि चले गए। घर आने पर विशाखा ने देखा कि काफी उपहार घर पर वापस भेजे गए थे। ऐसी अनापेक्षित स्थिति में अपनी ननद के समक्ष विशाखा के मुंह से अनायास ही निकल गया, “दीदी, आपने ये सब क्या कर दिया?”  

हमेशा दीदी-दीदी कह, अपनी ननद के आगे-पीछे घूम कर उसे खूब इज्ज़त देने वाली विशाखा की इतनी सी बात साक्षी के अहम पर वार कर गई। सबको सुनाते हुए गुस्से से साक्षी चिल्लाई, “विशाखा, अपनी हद में रहो! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे सिखाने की, कि मुझे क्या करना चाहिए था? अपने आप को इस अकूत संपत्ति की मालकिन मत समझो। पूरा आधा हिस्सा मेरा है। पिता जी तो बहुत वृद्ध हो चले हैं और अंतिम सांसें गिन रहे हैं और मां रही नहीं। तो बड़ी होने के नाते इस घर की मुखिया मैं हूं। इसलिए सब प्रकार के निर्णय मेरे हाथ में रहेंगे। तुम्हें ज्यादा सोच-विचाहर कर अपनी बुद्धि को कष्ट देने की आवश्यकता नहीं है।”।

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यह सब सुनकर विशाखा अपने मन में सोचने लगी, “साक्षी दीदी के सिर पर अहंकार सवार है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे बुद्धिहीन हैं। गलत बातों को चुपचाप सहना भी तो गलत है। मरे शिक्षक होने का क्या फायदा अगर मैं दीदी को अपने दृष्टिकोण और अपने हक के बारे में न समझा पाई। वे बड़ी हैं, आदरणीय हैं। अगर मैं थोड़ा झुक कर, विनम्र होकर अपनी बात उनके सामने रखूंगी तो मैं छोटी नहीं हो जाऊंगी।”  

उधर विशाखा का पति समझ तो रहा था कि उसकी दीदी ने गलत किया है पर तय नहीं कर पा रहा था कि क्या कहे, कैसे कहे?  

विशाखा ने विनम्रता से अपनी बात रखी, “दीदी, आप घर की बड़ी हैं और हमेशा आपका ओहदा बड़ा रहेगा। निश्चित तौर पर आपका घर की संपत्ति पर हक है। मेरी इसमें कभी दखलंदाजी नहीं होगी। मेरा विवाह धन-संपत्ति से नहीं हुआ है। पिताजी हमें जो चाहें प्रसाद स्वरूप दें। उनके न रहने की स्थिति में भी आप जैसा चाहे वैसा करें।”  

फिर थोड़ा और गंभीर होते हुए विशाखा ने कहा, “लेकिन दीदी, अब जो मैं कहने जा रही हूं उसे अन्यथा न लें। मैं आपके भाई की परिणीता हूं। उनके साथ मैंने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया है। इसलिए हमारी गृहस्थी पर हमारा सम्पूर्ण अधिकार है। उसके दायित्व भी हमारे हैं। वैसे भी दीदी,

मेरे विवाह को दो दशक से भी अधिक हो गए हैं और आपके विवाह को उससे भी अधिक। इतने वर्षों में अनेक परिवर्तन आए हैं। नए संबंध विकसित हुए हैं। जैसे कई नए पड़ोसियों का आना और पुराने का चले जाना। आपके भाई के और मेरे कार्यस्थल पर स्थानांतरण के मद्देनजर सहकर्मियों में बदलाव होना आदि।

उनसे हमारा किस प्रकार का सामाजिक व्यवहार है, इसे हम ही बेहतर जानते हैं। इसलिए उपहारों की व्यवस्था उसी के अनुसार की गई थी। दीदी, आप भी तो नहीं चाहेंगी कि आपके रहते समाज में आपके छोटे भाई-भाभी की खिल्ली उड़े। इसलिए हमें नियंत्रित करने की बजाय बेहतरी के लिए हमारा मार्गदर्शन कीजिए।”

अपनी पत्नी विशाखा के अकाट्य तर्कों से गर्वित हो उठा उसका पति तुषार और आज पहली बार बेझिझक होकर साक्षी के समक्ष कह उठा, “दीदी, मैं विशाखा की बातों से पूर्णतया सहमत हूं। हम सब के रिश्तों में तनाव के स्थान पर मिठास बनी रहे, इसलिए में आपसे विशाखा की बातों पर अमल करने की विनती करता हूं।”

अब साक्षी सोचने पर मजबूर हुई, “सचमुच सब ठीक ही तो कह रही है विशाखा। इसे तो संपत्ति का कोई लालच नहीं! कितना गलत समझ रही थी मैं! और अब तो भाई भी विशाखा के साथ है। मूर्खता करती रहूंगी तो अपने मायके से हाथ धो बैठूंगी।”  

प्रत्यक्ष रूप से साक्षी ने कहा, “विशाखा, कितनी समझदार हो तुम! छोटी होकर भी कितनी महत्वपूर्ण शिक्षा दी है तुमने मुझे। अब से तुम मेरा बदला हुआ, सुधरा हुआ रूप पाओगी।  

आओ न, अब से मैं तुम्हारी ननद नहीं बल्कि बड़ी बहन बनकर तुम्हें प्यार करूंगी।”

ऐसा कहते हुए साक्षी ने विशाखा को अपने गले से लगा लिया।

– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

– साप्ताहिक विषय: #ननद

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