1960 के दशक में मेरे घर मे काम करने के लिये मेरे पिता ने दुर्गा नामक अधेड़ व्यक्ति को नियुक्त किया था।मेरे पिता का ईंटो के भट्टो का व्यापार था,सामाजिक होने के कारण घर पर काफी लोगो का आवागमन रहता था, इसलिये मेरे पिता ने अपने विश्वासपात्र दुर्गा को भट्टे पर मजदूरी करने से हटाकर घर पर रख लिया था।प्रातः 6-7 बजे दुर्गा आ जाता और रात्रि 10-11 बजे अपने घर जो पास में ही था,सोने चला जाता।यही उसका नित्य कर्म था।
एक बार रात्रि के आठ बजे के लगभग घर के बाहर के कमरे से जोर जोर से बोलने और गाली गलौज की आवाज सुनाई दी।उस दिन हमारे यहां एक रिश्तेदार भी आये हुए थे और कस्बे के 8-10 गणमान्य व्यक्ति भी पिताजी के पास बैठे थे।इन आवाजो से स्वाभाविक रूप से पिताजी की पेशानी पर बल पड़ने थे।
मामला जानने को वे उस कमरे की तरफ गये तो पता चला मेरे बड़े भाई दुर्गा से गाली गलौज ही नही मार पिटाई भी कर रहे हैं, कारण बताया कि इस कमरे में टंगी उनकी पेंट से इसने करीब 2000रुपये निकाल लिये हैं और हाथ मे पकड़े 150-200 रुपये दिखा कर उन्होंने बताया कि ये रुपये पेंट में छोड़े हैं।इसके अलावा कोई भी इस कमरे में आया नही है।मेरे भाई इतने गुस्से में थे कि बात बताते बताते भी उन्होंने दुर्गा के चपत रसीद कर दिये,कि इस नमकहराम चोर को छोडूंगा नहीं।
मेरे पिता असमंजस में दीखे, तब तो समझ नही आया थाबच्चे थे,पर बाद में समझ आया, पिताजी को लगता था कि दुर्गा ऐसा नही कर सकता।पर चोरी तो हुई थी,और दुर्गा के अतिरिक्त कोई उस कमरे में गया भी नही था।सबने समझ लिया कि आज इस वफादार दुर्गा ने पैसों के लालच में अपना ईमान बेच दिया है।दुर्गा बार बार गुहार कर रहा था,बाबूजी मैं घर से कही गया तो नहीं हूँ, मेरी तलाशी छोटे बाबूजी ले चुके हैं, मैंने चोरी नही की,बाबूजी,मेरा यकीन करो,मैंने चोरी नही की है।पर जो स्थिति सामने थी
उसमें उसका विश्वास कौन करता,सब उसे नसीहत कर रहे थे दुर्गा पैसे वापस कर दे,नही तो पुलिस निकलवायेगी।उस समय 2000 रुपये की रकम कोई मामूली रकम नही थी।दुर्गा कह रहा था सरकार जिंदगी भी रेहन रख दूँ तब भी ये रकम मैं कहाँ से दूंगा?
तभी वे रिश्तेदार जो आये हुए थे,बोले भाई मेरी पेंट की जेब से भी 150 रुपये के करीब गायब हैं।अब तो और हड़कंप मच गया,सब दुर्गा की ओर हिकारत से देखते हुए पुलिस को बुलाने को कहने लगे।पिताजी मौन हो गये थे,तभी मेरे चाचा हमारे रिश्तेदार से बोले भाईसाहब आपकी पेंट भी क्या इसी कमरे में टंगी थी,
उनके हाँ कहने पर चाचा बोले पर यहाँ तो एक ही पेंट दिखायी दे रही है,फिर उन्होंने मेरे बड़े भाई से कहा कि लल्ला तेरी पेंट कहाँ है?बड़े भाई ने भी उसी पेंट की ओर इशारा किया जिस पेंट को रिश्तेदार अपना बता रहे थे।
हुआ ये था कि हमारे रिश्तेदार और बड़े भाई की पेंट का रंग एक सा होने के कारण मेरे बड़े भाई जो अपनी पेंट ऊपर के कमरे में छोड़कर आये थे,रिश्तेदार की पेंट को अपना समझ बैठे थे और रिश्तेदार की पेंट में पड़े 150 रुपये हाथ मे लेकर चिल्ला रहे थे कि दुर्गा ने ये रुपये छोड़कर बाकी चुरा लिये हैं।
सारी स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी,कोई चोरी नही हुई थी, बस मेरे बड़े भाई की गलतफहमी मात्र थी।तोहमत बेचारे दुर्गा पर लग गयी थी।मेरे पिता ने दुर्गा की पीठ थपथपाई और मेरे बड़े भाई को सबके सामने कड़ी लताड़ भी लगाई।दुर्गा बस हाथ जोड़े कभी सबकी ओर देखता तो कभी ऊपर की तरफ देख बड़बड़ाता रहा, साहब मैंने चोरी नही की,कोई अपने घर मे चोरी करता है भला,बाबूजी मैं चोर नही हूँ।मेरे पिताजी ने उसको थपथपा कर शांत कराया।
अगले दिन दुर्गा सुबह सुबह प्रतिदिन की तरह घर आया और पिताजी के पास जाकर बोला, बाबूजी आपके लिये मेरी जान भी कुर्बान पर बाबूजी अब घर मे काम नही कर सकूंगा।बाबूजी मुझे माफ़ कर देना,मैं आज ही कस्बा छोड़कर जा रहा हूँ।मेरे पिता के खूब समझाने पर भी नजरे झुकाये दुर्गा ने बस इतना कहा, बाबूजी बस इस हुक्म उबदुली को माफ कर दे और देखते देखते दुर्गा मेरे पिता के चरण छू कर हमारे घर से चला गया, सदैव के लिये।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
एक सत्य घटना,अप्रकाशित