आज बाबू जी का पारा सातवें आसमान पर फिर से चढ़ा था।दीपू ने किसी तरह परीक्षा पास की थी। रमेश जी काॅलेज में अध्यापक थे।तीन बच्चे थे उनके राजू,दीपू और मीरा। मीरा और राजू हमेशा अव्वल नंबर से पास होते थे। रमेश जी सीना तान कर निकलते थे ।एक अध्यापक और पिता को और क्या चाहिए। उसके बच्चे उसी की तरह होनहार हों क्योंकि तभी तो समाज में मान सम्मान मिलता है कि देखो अध्यापक जी के संस्कार और ज्ञान जिस पर मां सरस्वती की अपार कृपा है, लेकिन दीपू ने उन्हें हमेशा हताश किया था। तारीफ करने वाले राजू और मीरा की तारीफ तो कम करते पर दीपू पर ज्यादा तंज कसते थे।
दोनों बच्चों का योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी और उच्च पद प्राप्त हो गया था। दीपू भी अपनी पढ़ाई में लगा था।
रमेश बाबू जहां एक तरफ खुश थे दूसरी तरफ दीपू की चिंता उन्हें चैन से सोने नहीं देती थी। कहते हैं ना मां – बाप को उन्हीं बच्चों की फ़िक्र ज्यादा होती है जो किसी भी तरह से कमजोर होते हैं। दीपू ने बी ए की परीक्षा पास कर ली थी,अब वकालत की पढ़ाई करने का फैसला लिया था। पिता ने भी साथ निभाया कि चलो वकील बन जाएगा तो कुछ ना कुछ कमा ही लेगा।
वक्त अपनी रफ़्तार से भाग रहा था।राजू अमेरिका में कार्यरत हो गया था और मीरा की शादी दूसरे शहर में बड़ी धूमधाम से हो गई थी। सब अपनी -अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए थे। जितना ऊंचा पद उतनी ज्यादा जिम्मेदारी भी होती है।राजू पहले तो साल भर में आ जाता था परिवार से मिलने।अब अंतराल लम्बा होने लगा था। रमेश जी के जिद्द करने पर किसी तरह शादी को राजी हुआ तो उन्होंने ने भी उतनी ही काबिल कन्या देख कर विवाह तय कर दिया। चार – पांच दिनों की छुट्टी लेकर राजू आया और विवाह के बाद वापस चला गया।
थोड़े दिनों में बहू अल्का का भी विजा मिल गया तो वो भी चली गई। रमेश बाबू बहुत खुश और संतुष्ट थे की अच्छी बहू मिली है और बेटा बहू अपनी जिंदगी में खुश हैं तो इससे बड़ा संतोष माता पिता के लिए कुछ भी नहीं होता है।
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राजू ने भी वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली थी। यूनिवर्सिटी उसी शहर में थी तो माता – पिता की देखभाल और पढ़ाई लिखाई सब आराम से चल रहा था। रमेश जी अध्यापक थे समाज में उनका मान सम्मान बहुत था।लोग मिसालें देते थे उनकी योग्यता और उनका शिक्षा के प्रति समर्पण की।
उनके पढ़ाए हुए छात्र उच्च पद पर आसीन थे और जब भी शहर आना होता तो रमेश जी से मिलने जरूर आते थे। एक शाम सब्जी लेकर लौट रहे थे तभी उनकी मुलाकात गरिमा से हुई जो बहुत ही मेघावी छात्रा थी।झट से उसने रमेश जी का पैर छूआ और सब्जी का थैला जबरजस्ती उनके हांथ से लेते हुए बात करती – करती चलने लगी। गरिमा ने बताया की वो उच्च न्यायालय में वकील है और उसका नाम भी खूब है।
दीपू के लिए बोली,” सर आप दीपू को प्रैक्टिस के लिए मेरे पास भेज दीजिए वो धीरे-धीरे सीख जाएगा।”
दीपू ने भी अब मेहनत करने की ठान ली थी। कहते हैं ना समय के साथ परिपक्वता और समझ इंसान को आ ही जाती है। वकालत चलने लगी थी। दीपू ने आज एक महत्वपूर्ण केस जीता था और मंदिर जाकर भगवान को प्रसाद चढ़ाया और अपनी पहली कमाई मां के हांथ में रखते हुए दोनों के पैर छूकर आशीर्वाद लिया।
रमेश बाबू को आज अहसास हुआ कि बेटे ने अपनी पहली तनख्वाह को हमें देकर ना हमारा सम्मान बढ़ाया है बल्कि अपनी इस खुशी को हमारे साथ बांटा है। इसके पहले कभी नहीं हुआ था। राजू अपनी दुनिया में मस्त था मीरा अपनी दुनिया में व्यस्त।
जिस बेटे को ताउम्र नालायक समझ कर मैं अपमान करता रहा सही मायने में वो ही लायक निकला।अगर ये भी ज्यादा होशियार होता तो हमारा ख्याल रखने वाला तो कोई था ही नहीं। गरिमा दीपू की सीनियर थी, साथ में काम करते – करते दोनों की दोस्ती प्यार में बदलने लगी थी। दीपू की शादी की चर्चा अब चलने लगी थी। दीपू सोच नहीं पा रहा था कि घर में कैसे बताए अपने और गरिमा के रिश्ते को। वैसे ही बाबू जी को हमेशा ही निराश किया है मैंने।अब प्रेम विवाह का सुन कर तो वो और भी नाराज़ हो जाएंगे।
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रविवार के दिन रिश्ते की बात करने के लिए कुछ लोग आने वाले थे। दीपू को समझ में नहीं आ रहा था कि वो कैसे अपनी बात रखे। मां ही ऐसी होती है जो पिता की डांट से भी बचाती है और पिता और बच्चों के बीच की अहम कड़ी भी। राजू ने मां से अपने दिल का हाल बताया तो वो खुशी से झूम उठी क्योंकि गरिमा बहुत अच्छी लड़की थी और वो दीपू को अच्छी तरह समझती भी थी और बड़े – छोटे के सम्मान भी बहुत था उसके दिल में। अच्छा मूड़ देख कर रमेश जी से गरिमा और दीपू की बात बताई। पहले तो वो नाराज़ हुए फिर समझाने – बुझाने पर मान गए। पिता का दिल नारियल की तरह होता है ऊपर से कड़क और अंदर से नरम।
आखिरी जिम्मेदारी थी जो वो भी निभाने का वक्त आ गया था।राजू ज्यादा छूट्टी नहीं ले पाया था क्योंकि उसका कोई जरूरी प्रोजेक्ट चल रहा था। मीरा ने दीपू के साथ मिलकर शादी की तैयारियां की थी। अच्छी तरह से शादी व्याह सम्पन्न
हो गया था सारे मेहमानों के साथ ही राजू और मीरा भी चले गए थे। दीपू ही घर पर था और मां – पापा की देखभाल के लिए एक मात्र सहारा भी था। बुढ़ापे में अगर आपको दो वक्त की रोटी और परिवार का सुख प्राप्त हो तो समझिए की इससे बड़ा सुख जिंदगी में और नहीं है। जिस औलाद की चिंता सबसे ज्यादा थी आज वही उन्हें चिंता मुक्त करके उनका बुढ़ापे को संवार दिया था। रमेश बाबू की अपनी दिनचर्या थी और बच्चों के साथ बुढ़ापा अच्छी तरह से गुजर रहा था।
पत्नी का साथ तो था ही साथ में भरे-पूरे परिवार का सुख भी था। जिंदगी में सब को सबकुछ मिले जरुरी नहीं है लेकिन अगर संतोष मिले तो सबकुछ मिल जाता है।अब रमेश बाबू दीपू के प्रति संतुष्ट थे और समझदार बहू ने घर को अच्छी तरह संभाल लिया था। बुढ़ापे की लाठी मजबूत थी फिर क्या सीना तान कर निकलते थे रमेश बाबू। घर गृहस्थी की गाड़ी अपनी रफ़्तार से वक्त के साथ आगे बढ़ निकली थी अब उनको किसी बात की चिंता नहीं थी।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी