देवकी एक ग्रामीण साधारण महिला थी जिसके दो बेटे थे । पति बहुत पहले ही गुजर चुके थे। उसके दोनों ही पुत्र शहर में रहकर अच्छी नौकरी करते थे। भरा पूरा परिवार था, अच्छी खासी गृहस्ती बसा ली थी दोनों ने लेकिन बस एक कमी थी देवकी के दोनों बेटों में छत्तीस का आंकड़ा था।
दोनों ही एक दूसरे की शक्ल नहीं देखना चाहते थे लेकिन मां तो मां होती है वह तो दोनों ही बेटों को लेकर चलना चाहती थी इसलिए कभी देवकी बड़े बेटे के घर रहने चली जाती कभी छोटे बेटे के लेकिन देवकी जब भी अपने बेटों के घर जाती उसके दोनों ही बेटे उसका गांव का मकान और उसके हिस्से की खेती भी अपने नाम पर कराने की कोशिश करते रहते थे।
देवकी ने कई बार कहा भी कि उसके ना रहने के बाद यह सब उन्हीं दोनों का है लेकिन दोनों में इतना लालच था कि वह बंटवारा नहीं करना चाहते थे बल्कि पूरी जमीन और मकान अकेले हड़प लेना चाहते थे।
देवकी अपने बेटों की मंशा जान चुकी थी इसलिए देवकी ने अंतिम समय तक गांव के मकान में ही रहने की इच्छा जाहिर की और वहीं रहने लगी।
कभी कबार उसके बेटे और उसके नाती पोते वहां आकर रहते लेकिन देवकी ने अपने मरते दम तक गांव में ही रहने की ठान रखी थी। बेटों को भी सिर्फ संपत्ति से मतलब था इसलिए उन्होंने भी मां की सुध लेना छोड़ दिया।
अब देवकी का जीवन गांव वालों के भरोसे ही कटता था। जब देवकी ने अंतिम समय में खाट पकड़ ली तो गांव वालों ने उसके पुत्रों को सूचना दी। छोटा बेटा पास में ही रहता था
इसलिए वह तुरंत ही मां के पास पहुंच गया। मां खाट पर अधमरी सी लेटी हुई थी। बेटे ने पहले तो हालचाल पूछा फिर धीरे से मां के बूढ़े जर्जर हाथ को उठाकर एक कागज पर अंगूठा लगवा लिया। देवकी सब समझ रही थी लेकिन अब उसके अंदर विरोध करने की क्षमता नहीं रह गई थी।
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कुछ देर बाद बड़ा बेटा भी वहां पहुंचा। छोटा बेटा किसी काम के लिए घर से बाहर गया तब तक बड़े बेटे ने भी मौका देख कर किसी कागज पर देवकी का अंगूठा लगवा लिया। दोनों ही पुत्र आज सिर्फ संपत्ति अपने नाम कराने के लिए गाँव पहुँचे थे।
धीरे-धीरे गांव में खबर फैल गई कि देवकी का अंतिम समय आ गया है। देवकी के मकान के अंदर और बाहर तक पूरा गांव भरा पड़ा था। खाट के दोनों तरफ खड़े दोनों बेटे अपनी चतुराई पर मुस्कुरा रहे थे।
देवकी खाट पर पड़े अपनी अंतिम सांसे गिन रही थी और अपने बेटों की कुटिलता पर उसे हंसी आ रही थी क्योंकि देवकी शायद अपने बेटों के इस खोखले रिश्ते को बहुत पहले ही पहचान चुकी थी
इसलिए उसने अपने हिस्से की ज़मीन गाँव मे विद्यालय बनाने के लिए दान कर दी थी। अब झटका लगने की बारी उसके बेटों की थी यही सोचते हुए उसने एक मुस्कान के साथ अपने प्राण छोड़ दिए।
मौलिक
स्वरचित
अनुराधा श्रीवास्तव ” अंतरा “