बेटी के जन्म की खुशियाँ गम में तब्दील हो गई। पापा तो अपनी परी को बग़ैर देखे ही चल दिए। दुर्घटना ऐसी हुई कि अस्पताल आते समय रास्ते में ही प्राण पखेरू उड़ गए। आँसुओं का सैलाब लिए पति को अंतिम विदाई देने आद्या घर पहुँचती है। वह बेटी को देखना भी नहीं चाहती है।
” आद्या बेटी ! मैंने तेरा देवी का नाम रखा है। इस मासूम को क्यों सजा दे रही है। देख भूख से तड़प रही है। ” माँ रोते हुए कहती है।
क्या करे आद्या, लोगों के तानें सुन सुनकर परेशान हो गई, ” कैसी मनहूस बेटी, आते ही बाप को खा गई। ” है भी हुबहू अपने पिता जैसी। दूध पिलाने के लिए गोद में लेते ही पति याद आ जाते हैं।
माँ समझाती है, ” यही तो एक निशानी है तेरे पास दामाद जी की। याद है उन्होंने तारा नाम सुझाया था। अब इससे ही अपनी ज़िंदगी रोशन करना है तुम्हें। “
स्थिति सामान्य होने लगती है। किन्तु आद्या अपनी बेटी की परवरिश मात्र कर्तव्यबोध वश ही करती है। मानसिकता तो भावनाओं को उजागर कर ही देती है। बड़ी हो रही तारा भी अब समझने लगी है, ” नानी माँ ! ये मेरी सगी मम्मा ही हैं ना। सबकी मम्मा लोग आती हैं स्कूल पर मेरे लिए आप आती हो। “
” तारा ! तुम्हारी मम्मा को ऑफिस भी जाना होता है ना। ” नानी के पास यूँ ही बहलाने के सिवा कोई चारा नहीं है।
माँ की बेरूखी का असर तो साफ़ ही है। साथ ही तारा ने स्वभाव भी अपने पापा का ही पाया है। बात बात में तुनकबाजी और कैसे भी अपनी बात मनवाना। उसकी उद्दंडता की शिकायतें स्कूल से भी आती हैं।
माँ सलाह देती है, ” आद्या! घर मैं देख लूँगी। तुम तारा को समय दो। उससे बात करो, घुमाने ले जाओ। रात को अपने पास सुलाओ, कहानियाँ सुनाओ। “
धीरे धीरे माँ बेटी की दिनचर्या पटरी पर आने लगती है। तारा अपनी सहेली नव्या के साथ पढ़ाई के लिए वनस्थली जाना चाहती है। कोई ना तो कहने से रहा। वैसे भी वह अपने मन का ही करती है।
तारा एम बी ए करके एक आत्मविश्वासी युवती बन कर आती है। उसे एक फर्म में नौकरी भी मिल जाती है। आद्या के ऑफिस में नए मेनेजर प्रीतम नियुक्ति पर आए हैं। उन्हें अधेड़ आद्या में अपनी स्वर्गवासी माँ की झलक मिलती है। अतः उनका अक्सर आना लगा रहता है। तारा से भी बातचीत होती रहती है। पिताविहीन तारा को घर में एक मर्द की उपस्थिति भाने लगती है।
लोहा गर्म जानकर आद्या माँ से मशविरा करती है, ” मुझे प्रीतम एक सुलझे हुए इंसान लगते हैं। ऐसा व्यक्ति तारा के साथ निभ सकता है। आप तारा से बात छेड़ कर देखो। “
और सचमुच सब तय होकर चट मंगनी पट ब्याह होने में देर नहीं लगती। चूँकि प्रीतम के परिवार में कोई नहीं है, दीदी की शादी हो चुकी है। अतः वे ससुराल को अपना घर बना लेते हैं।
शांत गम्भीर प्रीतम से नकचढ़ी तारा की नोकझोंक बहस का रूप भी ले लेती है। तारा के रोष के आगे प्रीतम का धैर्य भी जवाब देने लगता है। आद्या झिझकती हुई दामाद जी से कहती है, ” हो सकता है मातृत्व से तारा का तेज कुछ कम हो जाए। लेकिन वह तो माँ बनने को ही तैयार नहीं।
प्रीतम अपने दिल की बात सासू माँ से साँझा करते हैं। वे चाहते हैं कि सासू जी उनके लिए सरोगेट मदर बन जाएँ, मदर तो हैं ही। उन्होंने डॉ से बात कर ली है। तारा को सामान्य परीक्षण के लिए अस्पताल जाना ही है। सब कुछ तय होने पर आद्या ऑफिस से छुट्टी ले लेती है। वह अपनी माँ के साथ लंबे टूर के बहाने एक आश्रम में चली जाती है।
अब घर में प्रीतम और तारा अकेले रह जाते हैं। एक दूसरे को समझने का अवसर मिल जाता है। यदा कदा चर्चा में ज़िक्र आ जाता है कि परिवार बच्चों से ही पूर्ण होता है। एक दिन प्रीतम टूर के बहाने दो दिन के लिए चल देते हैं। वे सासू माँ से सतत सम्पर्क में रहते हैं।
तारा सोचती है, ” अकेला रहना बड़ा मुश्किल है। शायद इसीलिए दम्पति बच्चे की चाह रखते हैं। तभी टेक्सी का हॉर्न सुनकर तारा बाहर आती है। आद्या का हाथ थामे प्रीतम मुस्कुराते हुए आ रहे हैं। पीछे पीछे नानी गोद में छोटे बच्चे सा कुछ उठाए हुए है।
तारा दौड़कर बाहर जाती है, ” अरे नानी ! ये क्या है। कौन है ये गुलाबी सी गुड़िया या गुड्डा ? अरे माँ ! इसके नैन नक्श हुबहू नक्षत्र जैसे और गोरा गुलाबी रंग…। “
आद्या, बेबी को तारा की गोद में दे देती है। लम्बी साँस भरते हुए बताती है, ” और गकरा गुलाबी रंग मेरी तारा जैसा, है न। यह है प्रीता। प्रीतम का प्री और तारा का ता। और इस नानी माँ ने इसे घुंघराले बाल दिए हैं। “
सरला मेहता
इंदौर म प्र