मुट्ठी में चांद –  बालेश्वर गुप्ता: Moral stories in hindi

बाबू सरकार हमारी न हिम्मत है और न औकात जो आपकी तरफ देख भी सके।मेरी बिटिया को माफ कर दो सरकार,हम यहां से कही भी दूर चले जायेंगे।बाबू सरकार — हमे –माफ –कर दो।

       जमीदार विक्रम के यहां बचपन से ही रामू उनकी हवेली पर ही काम करता था।पहले बचपन मे अपने पिता के साथ आता,वही खेलता फिरता,छोटा मोटा काम करता,पिता के न रहने पर खुद ही सब काम करने लगा।प्रकाशी से शादी हुई तो दोनो पति पत्नी हवेली पर साथ जाने लगे।विक्रम दोनो से खुश थे,जी लगा कर काम जो करते थे।रामू और प्रकाशी को संतान न होने का दुख सताने लगा था।अकेले में दोनो सोचते पता नही उन्होंने क्या पाप किये हैं जो भगवान ने उन्हें बच्चे को तरसा रहा है।सोचते सोचते दोनो की आंखे भीग जाती।

     जमीदार विक्रम के भी युवराज का जन्म हो गया,नाम भी उन्होंने उसका युवराज ही रखा।प्रकाशी तो बस युवी को ही हर समय गोद मे लिये रहती।ऐसा लगता वही इसकी मां है।प्रकाशी युवी के ऊपर पूरी ममता लुटाती।

    भगवान के घर देर तो हो सकती है पर अंधेर नही।प्रकाशी के पावँ भी पूरे सात वर्षों बाद भारी हो ही गये।खुशी से रामू और  प्रकाशी झूम उठे।दोनो आने वाले बच्चे की कल्पना में डूबे रहने लगे।अपने समय पर प्रकाशी ने बच्ची को जन्म दिया। बच्ची का नाम रखा दीपा।दीप समान ही तो वह उनके जीवन मे आयी थी। एक महीने बाद से ही प्रकाशी पर दो बच्चो के पालने की जिम्मेदारी आ गयी थी,युवी और दीपा की।प्रकाशी बहुत खुश थी वह तो युवी को भी अपना ही बच्चा मानती थी।अब युवी अकेला नही रह गया था उसे दीपा का सानिध्य मिल गया था।दोनों पूरे दिन हवेली में उधम मचाते।उन्हें रोकने वाला कोई नही था।

जमीदार विक्रम को भी अच्छा लगता था कि उनके युवी को दीपा का साथ मिल गया है, वे भी दीपा से स्नेह करने लगे थे। यही कारण रहा कि विक्रम सिंह जी ने युवी का जिस स्कूल में दाखिला कराया वहीं दीपा का भी कराया।दोनो एक साथ स्कूल जाते।बचपन से ही साथ साथ खेलते खेलते पढ़ते पढ़ते युवी और दीपा एक दूसरे से कब प्रेम करने लगे,ये तो उन्हें भी पता नही लगा।प्रेम तो वे समझ नही पाये, पर इतना समझ रहे थे कि एक दूसरे के बिना वे अधूरे हैं, बिना एक दूसरे के वे रह नही पाते।जब कुछ और बड़े हुए तब उन्हें अहसास हुआ अरे ये ही तो प्यार है।अब उनकी कोशिश अधिकतर साथ रहने की होती।

      कस्तूरी भले ही मृग की नाभि में अंदर छुपी हो उसकी सुगंध तो चहुँ ओर बिखरती ही है।तब भला जमीदार के बेटे और उनके चाकर की बेटी के प्रेम की महक कैसे ना बिखरती?ये ठीक है जमीदार साहब दीपा से स्नेह करते थे पर दीपा थी तो उनके चाकर की बेटी ही।चाकर की बेटी से उनके बेटे का नाम जुड़े,ये उन्हें स्वीकार्य नही था।युवी और दीपा के प्रेम प्रसंग का पता चलते ही उन्हें रामू पर क्रोध आया,उन्हें लगा कि वह उनकी सहृदयता का नाजायज लाभ उठा उनसे रिश्ता जोड़ना चाहता है।रामू और प्रकाशी को तो इस प्रेम प्रसंग का ज्ञान भी नही था।विक्रम सिंह जी ने तुरंत रामू को तलब कर उसको अपनी औकात में रहने की चेतावनी दी। भौचक्का सा रामू विक्रम सिंह जी के पैरों में लेट रोकर कह रहा था बाबू सरकार हम यहां से चले जायेंगे।

     सचमुच ही रामू प्रकाशी और दीपा को लेकर उसी रात वहां से पलायन कर गया।दीपा कहती रह गयी बापू युवी और मैं एक दूसरे के बिना नही रह सकते,हमे अलग मत करो बापू,हमे अलग मत करो।अपनी बिटिया के अंतर्नाद को सुन रामू दहल गया।उसने दीपा को अपने से चिपका लिया।मेरी बच्ची ये तूने क्या कर लिया अरे पगली हमारी हैसियत क्या चांद को मुठ्ठी में लेने की है?बिटिया हम तो चाकर है,हमारे दिल थोड़े ही होता है,होता भी हो तो उस पर भी मेरी बच्ची अपना अधिकार कहाँ होता है?भूल जा बेटी भूल जा, युवी को भूल जा।वो तेरी किस्मत में कभी भी नही हो सकता।

     बेसुध हुई दीपा को लेकर रामू दूसरे शहर में अपने रिश्ते के भाई श्याम के पास आ गया।अगले दिन से ही श्याम ने रामू को मजदूरी पर लगवा दिया।दीपा युवी को भूल ही नही पा रही थी,कहती किसी से कुछ नही थी,पर अपनी बिटिया की मनोदशा को रामू खूब समझ रहा था,पर वह भी तो बेबस ही था।

    उधर युवी की हालत दिन प्रतिदिन खराब होती जा रही थी।युवी धीरे धीरे अवसाद में जा रहा था।अपने पिता के सामने बोलने की हिम्मत थी ही नही,अब तो ये भी नही पता था कि दीपा है कहाँ?युवी अपने कमरे में गुमसुम सा लेटा एकटक छत की ओर देखता रहता।विक्रम सिंह जी से अपने बेटे की यह दशा देखी नही जा रही थी।पर अपनी आन बान के आगे वे बेटे के प्यार को कैसे प्राथमिकता दे,यही तो हिचक थी,वरना दीपा को तो वे स्वयं भी काफी स्नेह करते थे।

    युवी की हालत बिगड़ती जा रही थी,अब विक्रम सिंह जी का धैर्य जवाब दे गया।जब बेटा ही नही रहेगा तो आन बान शान किस काम की।उन्होंने दीपा को अपनाने का मन बना लिया।कई दिनों की खोजबीन के बाद विक्रम सिंह जी ने रामू का पता निकाल ही लिया।

        अरे दीपा देख तो मेरी बच्ची कौन आया है,आंख खोल दीपा।अपने पापा की आवाज सुन अनमनी दीपा ने आंखे खोली तो सामने युवी को देखा, एकदम कमजोर,आंखे अंदर धंसी हुई सी।युवी को देख दीपा उठने का प्रयास कर ही रही थी कि विक्रम सिंह जी ने दीपा को थाम लिया।बेटी देख मैं तेरे युवी को तेरे पास लेकर आया हूँ,मुझे माफ़ कर दे बेटी।दीपा रोते रोते पापा कहते कहते विक्रम सिंह जी से चिपट जाती है।रामू और विक्रम सिंह जी अपनी आंखें पोछते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़े युवी और दीपा को कमरे में अकेले छोड़कर बाहर आ जाते हैं।युवी और दीपा के प्यार ने विक्रम सिंह जी और रामू की हैसियत को एकाकार कर दिया था।चांद आज वास्तव में मुट्ठी में था।

 बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवं अप्रकाशित

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