कीर्ति न जाने कितनी बार डायरी के पन्नों में अपनी लिखी कविता बार-बार पढ़ती और मुस्कुराती… उसे पूर्ण विश्वास था बहुत अच्छे ढंग से अपनी प्रस्तुति देगी….!
कीर्ति आज काफी खुश थी ….उसके ही मोहल्ले में एक पार्क था ..जिसमें आज शाम 4:00 बजे से महिला दिवस के समारोह का आयोजन होना था …।
इस विशेष दिन के लिए कीर्ति ने भी पूरे महीने भर से तैयारी की थी…. महिलाओं की ताकत धैर्य परिश्रम के ऊपर एक सशक्त रचना अपनी कविता के माध्यम से महिलाओं तक पहुंचाना चाहती थी….!
सवेरे से कीर्ति ने बाल धोए… शाम की तैयारी में… अलमारी खोलकर साड़ी छांटने में घंटों बिता दिए….कौन सी पहनूँ….? जब आयोजन सिर्फ महिलाओं का होता है तो खुद को स्पेशल दिखने की होड़ कुछ ज्यादा ही होती है …और वैसे भी कीर्ति को तो महिला दिवस पर अपनी कविता भी प्रस्तुत करनी थी… सो तैयारी जोर शोर से की जा रही थी…।
पार्क को काफी सजाया गया था चारों और गुब्बारे लड़ियां और रंग-बिरंगी साड़ियों में महिलाएं गजब के सौंदर्य को बिखेर रही थी…!
हर्षोल्लास और सहेलियों के साथ कीर्ति भी पार्क में पहुंची …
कार्यक्रम कुछ सम्मानित महिलाओं के द्वारा प्रारंभ किया गया जो समाज के विशेष वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं… और शिक्षित होने का पूरा ठेका ढोए…उस दिन विशेष में ऐसे विचारों से अवगत करा रही थी… मानो अब दुनिया ही बदल गई है उनके अनुसार महिला हर उस जगह पर है जहां पुरुष है.. या ये कहें पुरुषों से भी आगे…।
कीर्ति उन शिक्षित और सम्मानित महिलाओं में से कुछ महिलाओं को बहुत अच्छी तरह जानती थी… वही शिक्षित और सम्मानित महिलाएं दिन के उजाले में महिलाओं को समान दर्जा देने का ढोंग करके… रात के अंधेरे में अपने ही क्लीनिक में बेटियों को आने से रोका करती हैं…. चंद पैसों की खातिर…!! कीर्ति स्तब्ध थी यह कैसा दोहरा चरित्र है…? और वो भी इस तबके की महिलाओं का… जो समाज में शिक्षित और सम्मानित मानी जाती हैं…। ये दोहरा चरित्र कैसा …
मतलब दिल में कुछ और जुबान पर कुछ और…. ये कैसे हो सकता है…? एक स्त्री ही एक ही स्त्री के लिए अलग अलग समय मे अलग-अलग धारणाएं कैसे रख सकती है….।
जब तक दोहरे चरित्र का त्याग नहीं होगा… महिलाएं वहीं रहेगीं जहां हैं…।
आज कीर्ति ने खुद से भी एक सवाल पूछा…. क्या वह स्वयं भी दोहरे चरित्र की प्रतिमूर्ति नहीं है…?? यदि ऐसा नहीं होता तो कीर्ति को खुद बेटी की अंतरजातीय विवाह के निर्णय ने… पैरों तले जमीन क्यों खिसका दिया था ….अपने आप को आधुनिकता की चादर से ढकने वाली… स्वतंत्र विचारों की प्रतिमूर्ति बेटा या बेटी को जिंदगी के स्वयं निर्णय लेने की छूट देने वाली कीर्ति ….बेटी के इस निर्णय से इतनी लाचार क्यों हो गई ….!! हमेशा सच का साथ देने वाली इस फैसले का स्वागत क्यों नहीं कर पा रही थी …..!
क्या जमाने का डर…. समाज की अवहेलना से कीर्ति खुद भी भयभीत हैं …. और सोच रही है ….यदि ऐसा है तो मेरे जैसी अनगिनत महिलाओं ने अपनी असली भावनाओं इच्छाओं या कह लीजिए सुखद यथार्थ से दूर … बनावटी दुनिया में लीन हैं और उसे ही नियति मान लिया है …असली चेहरे के ऊपर दिखावे का मुखौटा कब तक….??? कीर्ति ने आज खुद के चेहरे से अपने दोहरे मुखोटे को उतारकर सच्चाई देखनी चाही…।
तालियों के बीच जैसे ही मंच पर कीर्ति का नाम पुकारा गया… पहले तो कीर्ति कुछ घबराई …फिर बड़े ही आत्मविश्वास से मंच पर जाते ही अपनी पूरी भावनाओं को महिला साथियों के समक्ष रख ही दिया …।उसने कहना शुरू किया ….
साल का एक दिन महिलाओं के नाम ” महिला दिवस ” … वाह सच में महिला होने का गर्व उस विशेष दिन ही समझ में आता है…. बाकी दिन…?? क्या जरूरत पड़ी एक दिन विशेष को महिलाओं के नाम करने की… बाकी दिन क्या महिलाओं का सम्मान कम होना चाहिए…. और सच तो यह है जहां हम महिलाएं एक विशेष दिन का सम्मान पाकर इतनी खुश हो जाती हैं कि अन्य दिनों की उपेक्षा को नजरअंदाज कर देती हैं …
उपेक्षा वर्ग विशेष से हो…आवश्यक नहीं ….समान वर्ग भी इस कार्य को बखूबी निभा रही हैं….! कीर्ति का संकेत उन दोहरे चरित्र वाली सम्मानित महिलाओं की तरफ ही था…।
पुरुष वर्ग को हम तब ही दोषारोपण करना बंद कर पाएंगे… जब हम महिलाएं एक दूसरे की भावनाओं को समझ कर एक दूसरे का सम्मान कर सकेंगी …।
यदि सही मायने में हमें कुछ अच्छा करना है तो पहले हमें खुद को बदलना होगा… हमें पहल करनी होगी एक नए विचारों के शुरुआत की ….यकीनन जब अपने से आगे निकलती दूसरी महिलाओं को देख कर खुशी हो तब समझिए…हमारी सोच में परिवर्तन संभव है और हम महिलाएं मिलकर कुछ भी कर सकती हैं…।
अपने विचार हमें बड़े बेबाकी से बिना किसी दबाव में स्पष्ट रूप से सामने रखना चाहिए…. हित अहित ..अपनी विवेक बुद्धि से सोच कर फैसला लेना चाहिए… चंद स्वार्थ हेतु अपनी नैतिकता अपनी अस्मिता को ताक पर नहीं रखना चाहिए…!
तालियों की गड़गड़ाहट से स्पष्ट था…. कि कीर्ति के विचारों से महिलाएं सहमत थीं …और खुद को बदल कर एक नए समाज की संरचना करने का आव्हान कर चुकी थीं…।
अंत में कीर्ति ने अपनी कविता सुना कर अपने विचारों को विराम दिया…..
जब तक महिलाएं परस्पर एक दूसरे का सम्मान नहीं करेंगीं….. तब तक समाज में सच्चे सम्मान की हकदार नहीं हो पाएंगीं …।
सच में दोस्तों…..आइए आज से बल्कि अभी से हम सब महिलाएं मिलकर शपथ लें…. चाहे हम महिलाएं किसी भी रूप में हो.. माँ …सास… बहू… बेटी …सच्चे दिल से एक दूसरे की भावनाओं को समझ यथासंभव मदद कर आगे बढ़ने और बढ़ाने की भरपूर कोशिश करेंगे….
एक अच्छी सास बनकर सास बहू के रिश्ते पर लगे प्रश्नचिन्ह को हमेशा के लिए खत्म कर महिला एकता की मिशाल बनेगें….. और बहू के रूप में भी बेटी बन सारे कश्मकश की स्थिति को समाप्त करेगें…..।
वास्तविकता से परे चेहरे पर अच्छाई और सच्चाई का मुखौटा ओढ़े आखिर कब तक खुद से झूठ बोलते रहेंगे….
अब और नहीं ….हम महिलाएं नए समाज की परिकल्पना में… धरातल पर कार्य शुरुआत करते हैं…!
अब समाज बदल रहा है और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल भी रहा है तो क्यों ना हम भी उस परिवर्तन का एक हिस्सा बने…।
साथियों ये मेरा व्यक्तिगत विचार है… मेरे इस विचार पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें…!!
( स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित और अप्रकाशित रचना )
# बेटियां जन्मदिवस प्रतियोगिता
( दूसरी कहानी )
संध्या त्रिपाठी