” मम्मी, हमारे सारे फ्रैंड्स समर वैकेशन में अपने अपने नानी या दादी के घर जा रहे हैं।हम क्यों नहीं जाते मम्मी? पूरी छुट्टियां ऐसे ही चली जाती हैं। प्लीज़ चलो न…हम भी चलते हैं।”
बेटी सानिया अपनी मां से कहने लगी।
‘बेटा,हम भी चलेंगे पर कोई अच्छी सी हिलस्टेशन …
जितना पैसा गांव के गंवारों में ख़र्च होता है न, उतने में तो हम कुल्लू मनाली घूम आएंगे।
मैं और तुम्हारे पापा,बड़ी पोस्ट में हैं, हमारे रिश्तेदार हमारे आगे कुछ भी नहीं है।सभी या तो खेती बाड़ी करते हैं या छोटी नौकरी…. उनके यहां न तो ए सी है ,न कोई और फैसिलिटीज,मेरा तो दम घुटता है गांव में …
तुम वहां कंफर्ट नहीं रह पाओगी। मुझे तो सारे रिश्तेदारों से एलर्जी हो गई है।”
अपनी मां की बातें सुन सुन कर सानिया भी वैसा ही सोचने लगी थी।
स्नेहा को अपनी नौकरी का इतना अभिमान था कि उसने कभी भी अपने बच्चों को उनके परिवार के बीच ले जाना भी उचित न समझा था।
समय चक्र बढ़ता गया, सानिया की शादी बहुत बड़े घराने में तय हो गई।
वक्त था ,मामा मामी और बुआ फूफा के दस्तूर का। पंडित ने जैसे ही एक एक रिश्ते पुकारे ,स्नेहा अपने पति का मुंह ताकने लगी।
अभिमान से भरी स्नेहा ने आमंत्रण तो सबको भेजा था लेकिन कोई एक भी रिश्तेदार शादी में शामिल होने नहीं आया।
वहां उपस्थित सभी मेहमानों ने खुसुर फुसुर शुरू कर दी ।
किसी तरह सानिया की विदाई तो हुई लेकिन इतनी भीड़ में एक भी चेहरा न था , जिसे वो अपना कह सके।
आज अपने नए संबंधियों की नजर में स्नेहा सबसे फकीर नजर आ रही थी।उसका अभिमान चूर चूर हो गया था।
दोस्तों,ये कहानी पूरी तरह सत्य है ।आज के परिपेक्ष्य में इंसान अपनी नौकरी और पैसों के अभिमान में अपनों की अहमियत कम आंकने लगा है। रिश्ते चाहे कम हों पर खतम नहीं होना चाहिए।
अपने बच्चों को समय समय पर उनके परिवार के सदस्यों से मिलवाना, सबको समझना और सामंजस्य बनाकर जीना अवश्य सिखाना चाहिए ताकि जिंदगी में कभी किसी मोड़ पर इस तरह पछताना न पड़े।हो सकता है कुछ रिश्ते मन खट्टा करते हों पर जिंदगी में सभी बुरे मिलेंगे, ऐसा असंभव है। कभी कभी खुद की पहल भी रिश्तों में मिठास भरती है।
कितना भी दौलत कमाइए, क्या फायदा जब अपने ही न हों।
#अभिमान
स्वरचित व मौलिक
पुष्पा ठाकुर
छिंदवाड़ा