मुफ्त की चाकरी – रश्मि झा मिश्रा :

 Moral Stories in Hindi

लाली का ब्याह चंदन से हुआ था… चंदन राधा का इकलौता बेटा था… राधा चंदन के बचपन में ही गुजर गई थी… चंदन अपनी काकियों और आसपास के सब, दूर पास के रिश्तेदारों के घर… उठते बैठते… उनके छोटे बड़े काम, सौदे निपटाते, डोलते, बड़ा हो गया था… कोई खास पढ़ाई भी नहीं की… यूं ही इधर-उधर से इतना कमा लेता था जिससे गुजर हो सके…

 लाली भी अपने पति की तरह… सबके छोटे बड़े कामों के लिए तैयार रहती थी… दिन कटते जा रहे थे…

 जब देखो तब…” राधा की बहू… जरा मेरे गोपाल के लिए एक जोड़ा कपड़े तो सिल दे…!”

” जी काकी… कल तक दे दूंगी सिल के…!”

” अरे वाह… कल क्यों… आज ही चाहिए…!”

” पर… काकी…… ठीक है… सिल दूंगी…!”

‘ राधा की बहू… मेरे ब्लाउज की फिटिंग कर देना… बड़ी ढीली हो गई है…!”

” जी काकी… पर आज कैसे करूंगी…!”

” आज नहीं… अभी कर दे… मैं यहीं बैठी हूं… तू जल्दी से सिल दे…!”

‘ अच्छा काकी अभी कर देती हूं…!”

 लाली सिलाई करके दो पैसे कमाना चाहती थी…लेकिन लोगों को मुफ्त के काम निकालने की जो आदत हो गई थी… इस कारण लाली अपने काम समय पर खत्म नहीं कर पाती थी…

 चंदन की सगी काकी का घर पास ही था… काम तो वह भी मुफ्त में ही करवाती थी… लेकिन दूसरों के काम मुफ्त में होते देख… वह जल भुन जाती थी…

” राधा की बहू… इस तरह मुफ्त में काम करती रहेगी… तो सब करवाते ही रहेंगे.… सब तो यहां ताक में रहते हैं… उसका किया तो मेरा क्यों नहीं… थोड़ा टाल दिया कर… उनका काम करना ही है तो बाद में करके दे… पहले अपने काम के सौदे निपटा ले… चंदन भी कुछ कमाता धमाता नहीं ढंग से… तू भी इस तरह मुफ्त की चाकरी करती रहेगी… तो कल को बाल बच्चे होंगे उनका क्या होगा…!”

 लाली हंस कर टाल जाती… उसका काम आराम से चल रहा था, तो काकी की बातें वह अनसुनी कर जाती…

इसी तरह दिन निकल रहे थे… आखिर लाली तीन साल के भीतर ही दो बेटियों की मां बन गई… देखते-देखते बेटियां बड़ी होने लगीं… उनकी ज़रूरतें बढ़ने लगी…

 अब लाली के लिए मुफ्त के काम करना असंभव हो रहा था… लेकिन लोग थे की मानने का नाम ही नहीं ले रहे थे… और काकी की नसीहत तो रोज की बात हो गई थी…

 वह अपना कोई ना कोई काम… कभी लाली थोड़ा मसाला पीस दे… राधा की बहू जरा बटन सिल दे… लेकर आ जाती… और दूसरों के काम ना करने की लंबी चौड़ी नसीहत चिपकाती रहती…

 चंदन ने कुछ काम धंधा तो शुरू किया था… लेकिन चार लोगों के परिवार के लिए वह अभी पर्याप्त नहीं था…

 लाली ने इस बार घर की बढ़ती जरूरतों को देखकर… बहुत सारा काम इकट्ठा कर लिया था… पर ये मुफ्त के काम रास्ते के कांटे थे… आज अगर किसी को मना भी कर देती, तो सगी काकी के काम करते देख… फिर दूसरी काकियां धरने पर बैठ जातीं…

” वाह बहु… इतने दिन से… बहु बहु किया… लाड़ दिखाया… सब भुला दिया तुमने… आज वह सगी और हम लोग पराए हो गए…!”

 ऐसे ऐसे उलाहने मिलते… की लाली झख मार कर उनके काम खुद मांग लेती…” लाइए काकी मैं अभी करके दे देती हूं…!”

 पर इस समस्या से अब वह परेशान हो चुकी थी…एक दिन सगी काकी अपने चावल की बोरी लेकर आ गई… ” राधा की बहू… जरा इसमें कंकर पत्थर देखकर… छांटकर… बनाकर दे देना तो… मुझ बूढ़ी की आंखें अब कहां काम करती हैं… आराम से कर देना… जब तुझे फुर्सत मिले… इसमें कोई हड़बड़ी थोड़े ही है…!”

 लाली के तो मानो सर पर वह बोरी जम गई… घंटों का काम था… दो बेटियों की जिम्मेदारी… घर का काम… ऊपर से सिलाई के इतने सौदे… अब वह चावल कब बीनेगी… 

 काकी रोज आती…” नहीं हुआ लाली बहु… ठीक है कल देखना…!”” परसों देखना…!” करते दस दिन हो गए…

 आखिर काकी ने कहा…” देख बहू नहीं करना है तो साफ-साफ ना कर दे…!”

 लाली ने नज़रें झुकाए… मशीन चलाते हुए ही कहा… “जी काकी मुझसे नहीं होगा…!”

 काकी गुस्सा होने की जगह मुस्कुरा उठी… “चल बहू… आखिर तूने ना बोलना तो सीखा… शुरुआत तो तुझे मुझसे ही करनी थी… तभी तो दूसरे नहीं आएंगे…!”

 लाली झेंप गई…” नहीं काकी… वो… बस……!”

” छोड़ दे बहू… मैं तो खुश हूं, कि तूने ना बोलना सीख लिया… अब यही ना दूसरों से भी बोल… और अपनी मेहनत का पैसा जहां से मिले… बस वही काम कर… मुफ्त की चाकरी बहुत हो गई……!”

रश्मि झा मिश्रा

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