शकुंतला देवी की गर्दन उस मुर्ग़े की गर्दन की तरह तनी रहती जिसके हरम में कई सारी मुर्ग़ियाँ हों। शकुंतला देवी की तनी गर्दन का राज उनके अपने पाँच चूज़ों से जुड़ा था।शकुंतला देवी के पति धर्म दास रेलवे दफ़्तर में बड़े बाबू थे।वह रेलवे की लेट चलने वाली ट्रेनों का हिसाब अपने रजिस्टरों में दर्ज करते।किंतु वह घर पर पत्नी के प्रसव की ट्रेन का हिसाब कभी न रख पाये जो कभी लेट नहीं हुई ।नियमित रूप से हर दो साल पत्नी के प्रसव से एक लल्ला अवतरित होता रहा।देखते- देखते घर का आँगन पाँच लल्लाओं की धमाचौकड़ी का अखाड़ा बन गया ।शकुंतला देवी को इस बात का घमंड था कि उनकी कोख ने एक भी लल्ली नहीं जनीं ।इसी बात से शकुंतला देवी की गर्दन मुर्ग़े की तरह तनी रहती कि वह पाँच पुत्रों की माँ हैं।घर पर रिश्तेदारों के या मोहल्ले वालियों के आने पर जब भी कभी बच्चों की चर्चा चलती तो शकुंतला देवी गर्व से कहती कि मुझे क्या चिंता मेरे तो पाँच पांडव है ।
पाँच पूतों की संख्या होने और उनके नाम पांडवों सरीखे होने भर से पूत पांडव नहीं हो जाते।रेलवे कालोनी के निम्न मध्यम वर्गीय माहौल में परवरिश पाते लड़कों में ऐसा कुछ ख़ास नहीं था जिससे गर्दन ऊँची की जा सके।किंतु शकुंतला देवी को यह मुग़ालता था कि महाभारत की कुंती की तरह उनका भविष्य , पांडव सरीखे उनके पाँच पुत्रों की छत्र छाया में महफ़ूज़ होगा ।किंतु सत्य तो यह है कि ईश्वर की या स्वयं की छत्र छाया के अतिरिक्त किसी अन्य पर भरोसा करना ,भविष्य के साथ जुआ खेलना सरीखा है।जब तक मनुष्य स्वयं से समर्थ रहता है तब तलक नाते- रिश्तों की हक़ीक़त पता नहीं चलती।किंतु उम्र के अंतिम दौर में जब शरीर अशक्त और असहाय हो जाता है तब ही नाते-रिश्तों का असल मूल्यांकन हो पाता है ।
पाँच पांडवों का नाम पाए पुत्र बड़े होकर अपने अपने कामकाज से लग चुके थे।पुत्रों के पिता धर्म दास के जब छ: महीने रिटायरमेंट के बचे थे तो अचानक रेलवे दफ़्तर में ही उन्हें दिल का ऐसा दौरा पड़ा कि घर पर वह सहकर्मियों के कंधे पर ही वापिस आये।शकुंतला देवी की माँग पर लगे सिंदूर का लाल रंग मिट गया ।किंतु पति की मृत्यु बड़े पुत्र के लिये वरदान बन गई ।युधिष्ठिर पिता के स्थान पर रेलवे की नौकरी पर लग गये।अगले पुत्र भीम सेन नौकरी पाने की जुगत में भरपूर गदा घुमा रहे थे ,पर उन्हें जल्द समझ आ गया कि कलियुग में गदा नहीं लक्ष्मी काम आती है ।यहाँ शकुंतला देवी के ज़ेवर घूस के रूप में अर्पित किये गये तब भीम सेन लाईफ़ इंश्योरेंस में क्लर्क की कुर्सी पर विराजमान हो पाये।दो पुत्र तो नौकरी की वैतरणी पार कर गये।नौकरी के बाद दोनों बेटे शादी के हक़दार हो चुके थे। और फिर यहाँ कौन मछली की आँख भेदनी थी।सात फेरों के बाद दोनों को अपनी अपनी द्रौपदी मिल गई ।
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एक रसोई और तीन औरतें ।कहावत है कि ज़्यादा रसोइयों से खाना बर्बाद हो जाता है ।किंतु यहाँ खाने का तो कुछ ख़ास नहीं बिगड़ा अलबत्ता बर्तन खूब खड़खड़ाए ।पांडव पुत्रों ,द्रौपदियों और शकुंतला के मध्य हाई लेवल मीटिंग हुई ।मीटिंग पश्चात वर्तनों का बँटवारा हो गया।बड़ा अपने वर्तन लेकर छत पर बनें दो कमरों में शिफ़्ट हो गया।छोटे ने नीचे घर का एक कमरा और स्टोर हथिया लिया।बाक़ी बचे अर्जुन,नकुल और सहदेव,तीनों माँ से ही हिलगे रहे।पहले घर में एक औरत और एक चूल्हा था अब तीन औरतें और तीन चूल्हे बन गये थे ।इससे ज़्यादा चूल्हों की गुंजाइश इस घर में नहीं थी अतः अर्जुन और नकुल अपनी क़िस्मत आज़माने दिल्ली प्रस्थान कर गए ।बाक़ी बचे सहदेव , उसने पिता के रेलवे संपर्कों के सहारे ग़ाज़ियाबाद के रेलवे स्टेशन पर ही चाय कैंटीन का ठेका ले लिया ।
हमारी कहानी की मुख्य पात्र चूँकि शकुंतला देवी हैं अत: उनके पुत्रों की कथा के विस्तार में न जाकर इतना जान लेना काफ़ी है कि अर्जुन और नकुल ने दिल्ली में ही अपनी अपनी द्रौपदी तलाश लीं और दिल्ली में ही सैटल हो गये।सहदेव ने रेलवे स्टेशन के पास ही किराए का मकान ले लिया ,अलबत्ता उनकी शादी पारंपरिक रूप से माँ शकुंतला देवी के सहयोग से संपन्न हुई ।
पाँचों पुत्र अपनी अपनी दुनिया में रम चुके थे ।शकुंतला देवी जिनकी गर्दन अपने पाँच पांडव नामधारी पुत्रों के कारण गर्व से तनी रहती थी अब उसमें थोड़ा लोच आ गया था ।पर एक सांत्वना शेष थी कि यदि उन पर कभी कोई विपदा आई तो सहारे के लिए एक नहीं पाँच-पाँच पुत्र खड़े होंगे ।
और उस मनहूस सुबह अनहोनी घटित हो गई।वर्षों से दिल में जिन पाँच सरियों की नींव पर भरोसे की इमारत खड़ी थी ,उस इमारत के परीक्षा की घड़ी आ गई ।छत से सीड़ियों पर उतरती शकुंतला देवी की साड़ी फँसी ओर सीड़ियों से वह फुटबॉल की तरह टप्पे खाती आँगन में आ गिरीं।घर का आँगन हाय-हाय की आवाज़ों से दहल उठा ।बूढ़ी हड्डियों में अब वो लोच कहाँ बचा था जो सीढ़ियों की टक्कर बर्दाश्त कर पाता।जिस कूल्हे की ताक़त से पाँच- पाँच पुत्रों को गोद में उठाकर टहलाया था वह कूल्हा चटक गया था। माँ का हिप-बोन फ़्रैक्चर हादसा एक ऐसी परीक्षा का इम्तिहान बन गया था जहाँ वर्षों से पाले पाँच पांडवों के मिथक की परीक्षा होनी थी।
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हल्दी का दूध , घरेलू लेप आदि से जब कोई राहत नहीं मिली तो डाक्टर की सलाह ली गई ।डाक्टर हड्डी तो जोड़ नहीं सकता था , दर्द की दवा लिखी और चलता बना।कुछ दिन तो दोनों द्रौपदियों ने सास को झेला पर अब उन्हें यह बोझ बर्दाश्त के बाहर होने लगा था । वास्तव में समस्या थी भी गंभीर ।शकुंतला देवी की संपूर्ण दिनचर्या उनकी उस खाट तक सीमित हो आई थी जिस पर एक अपाहिज की भाँति वह पड़ी थीं।खाट पर रोटी-पानी देने तक तो ठीक था पर विकट समस्या तो मल-मूत्र निष्कासन और उसके साफ़ सफ़ाई की थी।बहुओं ने किसी तरह दो-तीन तक तो निभाया पर इसके बाद उन्होंने हाथ खड़े कर दिए ।नौकर-नौकरानियों से बात की गई किंतु गंदी साफ़ सफ़ाई के लिए कोई भी राज़ी नहीं हुआ।अस्पताल भी बीमार को तो भर्ती करते हैं पर ऐसे मरीज़ को नहीं ।ले दे कर एक ही विकल्प बचता है कि इस काम को घर का ही कोई अपना सँभाले ।किंतु वह पुत्र जिन पर बचपन से अब तक शकुंतला देवी ने गर्दन तान के रखी थी मुँह छिपाए भाग रहे थे ।
जब इस समस्या का कोई समाधान नहीं दीख रहा था तो बड़ी द्रौपदी ने झुंझलाते हुए कहा- “ अम्मा जी हमारे साथ रहती हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी पूरी ज़िम्मेदारी हमारे सिर पर ही हो।हमारे अलावा और बेटे भी तो हैं ।उनको भी पुत्र -धर्म निर्वाहन करना चाहिए।”शकुंतला देवी की नियति अब उस फुटबॉल की तरह हो गई जो पाँच खिलाड़ियों के बीच एक दूसरे के पाले में डालने को प्रतिस्पर्धी थे।
अगली सुबह दिल्ली के लिए टैक्सी बुक की गई।प्रोग्राम था कि अम्मा को अर्जुन या नकुल के घर थोप कर मुसीबत से निजात पाई जाये।पिछली सीट पर किसी तरह दोनों बहुओं के साथ अम्मा को लिटा दिया गया।आगे ड्राइवर के साथ युधिष्ठिर विराजमान थे।दुनिया देखी अम्मा को अहसास हो गया था कि उनकी दुर्दशा के दिनों का आग़ाज़ हो चुका है ।पहाड़ गंज की एक पतली गली के मुहाने पर कार रुकी ।अर्जुन का घर गली के अंदर था।गली के अंदर कार जा नहीं सकती थी अत: युधिष्ठिर ने किसी तरह अम्मा को गोद में उठाया ।बचपन में अम्मा ने न जाने कितनी बार इस पुत्र को गोद में उठाया होगा पर वो निःस्वार्थ था ।किंतु आज पुत्र की गोद में माँ निःस्वार्थ नहीं है ,माँ की सेवा से भागने का षड्यंत्र है।शकुंतला देवी को कंधे पर लादे कलियुग पुत्र और बहुओं का क़ाफ़िला अर्जुन के घर के दरवाज़े पर आकर रुक गया ।आस पड़ोस के लोग इस अजीबोग़रीब सीन से आश्चर्य चकित थे ।बंद दरवाज़ा खटखटाया गया ।दिल्ली वाली बहु ने दरवाज़ा खोला।बाहर का नजारा देख कर वह चौंक गई।सास के फ़्रैक्चर की सूचना उसे पहले से ही थी।दिल्ली वाली का मस्तिष्क संभावित योजना के षड्यंत्र को तुरंत भाँप गया।दरवाज़ा रोककर खड़ी होते उसने पूछा-“ यह अम्मा को यहाँ क्यों लाए हो ?”
बाहर खड़ी दोनों बहुओं का सम्मिलित स्वर गूंजा -“ अम्मा की सेवा का ठेका हमने ही नहीं लिया ।यह सब भाइयों का फ़र्ज़ है।इतने दिन हमने सँभाला अब कुछ दिन…….बात काटती हुई दिल्ली वाली बोली-“ इतना बड़ा पुश्तैनी घर और मालमत्ता सब कुछ तो तुम लोग हथियाये बैठे हो और अब जब अम्मा की थोड़ी सेवा का भार पड़ा तो तुम्हें सब भाइयों का फ़र्ज़ याद आ गया।कान खोल कर सुन लो .. इस एक कमरे के छोटे घर में मैं किसी को घुसने नहीं दूँगी… हम दोनों मियाँ-बीबी नौकरी करते हैं तो अम्मा को पीछे क्या भूत देखेंगे ?” घर के अंदर अर्जुन,बाहर मच रही चिल्ल-पों को सुन रहा था ।अपना पक्ष मजबूत करने को उसने दिल्ली में ही रह रहे छोटे भाई नकुल को मोबाइल से तुरंत आने को कहा ।
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पाँच पुत्रों के मध्य ‘माँ की सेवा कौन करे’ के नुक्कड़ नाटक की नौटंकी का लुत्फ़ उठाने गली वाले भी इकट्ठा हो गए थे ।माँ को कंधे पर लादे युधिष्ठिर के पैर डगमगाने लगे थे।उसने माँ को पास बने चबूतरे पर लिटा दिया ।तीन बहुओं के मध्य महाभारत चल ही रहा था कि इसी बीच अपने वाहन (स्कूटर) पर चौथे पुत्र नकुल प्रगट होते हैं ।नकुल को विश्वास है कि यहाँ से दुतकारे जाने के बाद अगला निशाना वह ही बनाया जाएगा ।पर उसे ज्ञात है कि आक्रमण ही सुरक्षा का अचूक विकल्प है ।अत: उसने अर्जुन का पक्ष लेते भाभियों को संबोधित करते कहा- “ भाभी जी आप समझा करो , कि हम दिल्ली वाले कैसे एक-एक कमरे के मकान में गुज़ारा कर रहे हैं।एक कमरे के मकान में कहाँ तो हम रहेंगे और कहाँ अम्मा को रखेंगे ।”
चबूतरे पर पड़ी शकुंतला देवी लाचारी से देख रही थीं अपने उन पाँच पुत्रों को जिन्हें कभी गर्व से उन्होंने पाँच पांडव कहा था।आज टूटा कूल्हा लिये असहाय पड़ी कुंती का कोई ठौर नहीं ।वह मन ही मन प्रार्थना कर रही थीं कि हे प्रभु तूने कूल्हा ही क्यों तोड़ा, प्राण की डोर ही क्यों न तोड़ दी।आज यह दिन तो न देखने पड़ते ।
आख़िर पुत्रों के बंद दरवाज़े माँ के लिए नहीं खुले ,गली में तमाशा बना अलग।बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले की तर्ज़ पर क़ाफ़िला वापिस ग़ाज़ियाबाद आ गया ।उधर ग़ाज़ियाबाद स्टेशन के पास रह रहे पाँचवें पुत्र सहदेव को भी दिल्ली में घटित पूरे एपिसोड की ख़बर मोबाइल से लग चुकी थी ।जब मोबाइल पर इस घटना के संबंध में सहदेव दिल्ली वाले भाइयों से बात कर रहा था तो उसका बचपन का मित्र अनिल भी उसके पास बैठा था ।अनिल एक बड़े एन॰जी॰ओ से जुड़ा हुआ था ।मोबाइल पर चलते वार्तालाप से अनिल को माँ कीं समस्या का कुछ- कुछ आभास हो गया था।फिर भी उसने सहदेव से समस्या के विषय में विस्तार से पूछा ।संपूर्ण बात सुनने के पश्चात अनिल ने मुस्कुराते हुए कहा-“ कैसा अजीब इत्तफ़ाक़ है कि हम तुम्हारी माँ जैसे असहाय बूढ़े लोगों के लिए ही ‘ मोक्ष-धाम ‘ नाम का एन॰जी॰ओ चलाते हैं ।बैसे तो देश में सैकड़ों ओल्ड एज होम है ।एक वो हैं जो सहायता समूहों द्वारा चलाए जा रहे हैं ,इनमें लाचार गरीब बूढ़े प्रश्रय पाते हैं ।दूसरे वो जो संपूर्ण सुविधा संपन्न हैं , इसमें अपना एकाकीपन दूर करने सीनियर सिटिज़न रहते हैं ।किंतु इन दोनों प्रकार में वह ही प्रवेश पाते हैं जो अपनी दैनिक क्रियाएँ स्वयं करने में समर्थ हों। किंतु देश में एक भी ऐसा होम नहीं है जहाँ तुम्हारी माँ की तरह असहाय, मृत्यु के द्वार पर खड़े वृद्ध जनों को प्रश्रय मिल सके।अत: हमारी संस्था ‘मोक्ष-धाम’ नाम के ऐसे प्रश्रय स्थल स्थापित कर रही है जहाँ तुम्हारी माँ कीं तरह असहाय वृद्ध आसरा पा सकें।”
अनिल द्वारा प्राप्त जानकारी से सहदेव को माँ की समस्या के निदान की राह नज़र आने लगी थी ।किंतु इसमें होने वाले ख़र्चे के विषय में वह आश्वस्त होना चाहता था।इस पर अनिल ने कहा-“ हम मोक्ष-धाम प्रवेश के लिए प्रार्थी से कोई शुल्क नहीं लेते किंतु इस मद में इच्छा से दिया दान अवश्य स्वीकार करते हैं ।हमारी संस्था को आरंभ हुए अभी तीन वर्ष ही हुए हैं ,और अभी कुछ शहरों में सात मोक्ष-धाम कार्यरत हैं ।ख़ुशख़बरी है कि ऐसा ही मोक्ष-धाम ग़ाज़ियाबाद में भी स्थित है ।”
शकुंतला देवी के पाँच पुत्रों के दंभ की ख़ुशफ़हमी चकनाचूर हो चुकी थी ।कठिन समय में जो प्रश्रय पुत्र न दे सके वह मोक्ष धाम नाम की अनजान संस्था ने प्रदान कर दिया था ।…..किंतु मोक्ष-धाम में प्रवेश के सातवें दिन ही शकुन्तला देवी पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो गईं।
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोये ,
दोउ पाटन के बीच में साबुत बचा न कोये।
******समाप्त******
लेखक-नरेश वर्मा
( मित्रों , यह कहानी उम्र के अंतिम छोर पर पहुँचे ऐसे वृद्ध जनों की कहानी है,जब मोक्ष धाम जैसे स्थान की आवश्यकता पड़ जाती है ।मुझे नहीं मालूम कि ऐसे धाम देश में हैं या नहीं ।क्या यह उचित नहीं होगा कि सोशल मीडिया पर इसका प्रचार प्रसार हो।इस विषय पर आपके विचार अपेक्षित हैं।धन्यवाद ।) लेखक-नरेश वर्मा