Top 10 moral stories in hindi : ट्रेन अपनी तीव्र गति से भागी जा रही थी। एसी कोच था इसलिए बाहर की गड़गड़ाहट और मौसम का हाल पता नहीं चल रहा था।
शीशे से सिर्फ भागती हुई चीजें नजर आ रही थी ।बाहर काफी तेज वृष्टि हो रही थी।
मेरे मन में भी भारी बारिश हो रही थी। मन डूब रहा था…अब बचने की कोई उम्मीद नहीं थी…!
ऐसा लग रहा था कि मेरे अंदर का प्रलय मुझे डुबाने के लिए ही आ रहा है…!
कारण, बरसों पहले की एक गलती…! एक संदेह…! जिसने मेरी सारी जिंदगी बदल कर रख दी थी।
बहुत पुरानी कहानी लगभग चौबीस पच्चीस साल पहले की…।
नंदपुर गांव में मेरा घर था। हम सब संयुक्त परिवार में रहते थे।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली और घर छोड़ कर चले गए।
उस घर में मैं और मेरी मां अकेले रह गए।
बिना पति के किसी औरत का क्या ठिकाना…! वह भी मुझे लेकर मायके जाने के लिए तैयार हो गई लेकिन यहां दादाजी का अहं आगे आ गया।
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उन्होंने सख्ती से नाना जी और मामा जी को मना कर दिया। उन्होंने कहा
” हमारे बेटे ने बहु को छोड़ा है हम नहीं छोड़ेंगे। बहू और पोता दोनों हमारे हैं ।वह हमारे साथ रहेंगे।”
हम वहीं रुक गए। मैं उस समय मुश्किल से ग्यारह बारह साल का था।
मुझे पता था कि पिताजी हमें छोड़ कर चले गए हैं मगर क्यों…यह मुझे ठीक से नहीं समझ में आता था।
दिनभर मां को रोते हुए देखता था तो मुझे बहुत ही बुरा लगता था।
तीज- त्यौहार, होली- दशहरा, सब में मां बिल्कुल सादगी से रहती थीं।
कोई दिखावा, श्रृंगार नहीं।
एक दिन छोटी चाची ने अपने लिए गले का मंगलसूत्र बनवा लाई।
” देखिए दीदी,यह आपके देवर ने हमारे लिए बनवा दिया है।अब तीज में हमें पहनेंगे।”
” अच्छा है!” मां ने खुशी से देखा और लौटा दिया।
उसके बाद वह मंगलसूत्र छोटी चाची के कमरे से गायब हो गया। छोटी चाची उसे ढूंढती रही मिला नहीं।
उस घर में हम दो अबला जन थे जिनके ऊपर शक के बीज उठने लगे।
छोटी चाची का कहना था कि हमने बड़ी दीदी को ही मंगलसूत्र दिखाया था, उसके बाद वह गायब हो गया।
मां रो-रो कर अपनी सफाई दे रही थी
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“हम तो तुम्हें वापस कर दिए थे। मेरे पास कहां से आएगा?
तुम मेरे कमरे की छानबीन कर लो… जब जीते जी हमारा सुहाग उजड़ गया तो हम दूसरे की अमानत लेकर क्या करेंगे?”
लेकिन सभी की निगाहें हम पर ही थी। खास तौर पर मुझ पर मुझे आड़े हाथों लिया जाता और बार-बार पूछा जाता।
मेरे पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि मैंने तो उसे देखा भी नहीं था।
एक दिन हम बच्चों की टोली छुपन छुपाई खेल रही थी।
मैं भागते हुए छोटी चाची के कमरे में चला गया और वहीं छुप गया।
चाची के क्रोध का पारावार नहीं रहा।
वह मुझे घसीटते हुए लेकर आईं और सबके सामने बोलने लगी।
” देखिए, हम कहते थे ना कि यही चोर है इसी ने मेरा हार चुराया है!
यह मेरे कमरे में छुपा हुआ था।”
” तड़ाक….!! तड़ाक…!!!” दादाजी ने दो थप्पड़ लगा दिया। मैं रोने लगा। हक्का बक्का रह गया।
” दादा जी मैं चोर नहीं हूं! मैं चोर नहीं हूं…!” मेरे रोने का कोई असर उन लोगों को नहीं हो रहा था।
मां यह सुन कर रोने लगी। रोते हुए उन्होंने मुझे आकर दो चांटा रसीद दिया।
” अब यही दिन रह गया था…बाबू, देखने को…! अब हम कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रह गए हैं!”
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” पर मां में कोई चोरी नहीं किया हूं!”
मुझे मां का रोना बर्दाश्त नहीं हुआ और यह झूठा आरोप….!!!,मैं जीते जी मर गया।
उस समय सावन का महीना चल रहा था। कांवर लेकर बहुत सारी साधु हमारे गांव में आकर ठहरे हुए थे हरिद्वार में जल चढ़ाने के लिए।
कई दिनों से मैं देख रहा था वे लोग नदी का पानी इकट्ठा करते। पूजा करते..!
मैं घर से निराश हो गया था। अब किसी को चेहरा दिखाने के काबिल नहीं था।
रातो रात में उन साधुओं के साथ गांव छोड़कर भाग निकला… यह सोच कर अब लौट कर नहीं आऊंगा।
मैंने मां के नाम पर एक चिट्ठी लिखी..” मां मैं सचमुच चोर नहीं हूं…!”
कुछ महीने बाद जब दिवाली का समय आया, घर में सफाई और रंगरोगन का काम चल रहा था।
चाचा पुराने कबाड़ निकालकर फेंकते जा रहे थे। तभी उनकी नजर चूड़ियों की एक बक्से पर पड़ी।
उन्हें खोला तो देखा वहां मंगलसूत्र पड़ा हुआ है।
उन्होंने चाची से गुस्से से कहा
” माला, लो तुम्हारा मंगलसूत्र ..यहां रखा था।”
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चाची को काठ मार गया… साथ ही घर के सभी लोगों को भी…लेकिन फायदा क्या.. एक शक ने मां का तो बेटा भी छीन लिया…!
वहां से भागने के बाद मैं हरिद्वार पहुंच गया। इस घाट उस घाट, इस मंदिर से उस मंदिर!
साधुओं के साथ सत्संग करता ।उनका काम धाम करता।
तभी हरिओम शास्त्री नामक एक व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई जो कि एक निशुल्क संस्था चलाते थे।
असहाय ,अपाहिज और अनाथ बच्चों को अपने आश्रम में रखकर विधिवत उनकी सेवासुश्रुषा करते, बच्चों की पढ़ाई लिखाई करवाते थे।
उन्होंने मुझे पढ़ाया लिखाया।बेसिक मेडिकल की जानकारी दी और कंपाउंडर का ट्रेनिंग दिलाया।
मैं अब कंपाउंडरी करने लगा था।
मुझे अपनी मां की बहुत याद आती थी लेकिन अब लौटने का कोई रास्ता नहीं था जब भी मुझे पुरानी बातें याद आतीं मन कसैला हो जाता!
बहुत दिनों बाद साधुओं की टोली फिर से हमारे गांव नंदपुर जा रहे थे।
मुझसे रहा नहीं गया ।मां की लगातार याद आ रही थी अपने आप को मैं क्षमा नहीं कर पा रहा था.. मैं भी उन्हीं लोगों के साथ नंदपुर चला गया।
वहां पहुंच कर मुझे पता चला कि मां बड़े इंतजार के बाद इस दुनिया से चली गई …!
हाय…! विधि का विधान ,अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाया।
“बाबू रुक जाओ घर पर…!” चाचा आहत होकर बोल रहे थे पर अब क्या करूंगा इस घर में रुक के जब मां ही नहीं है…!
मैं वापस लौट गया। मेरी आंखें बह रही थीं।
शक एक बीमारी है…!
जो हुआ उसमें आखिर मेरी क्या गलती थी….!
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प्रेषिका–सीमा प्रियदर्शिनी सहाय