मेरी -भाभी –     सीमा वर्मा

आज पूरे चौबीस घंटे के बाद बुखार टूटा है।

सारा बदन जैसे दर्द में जकड़ा हुआ सा है

कुछ समझ नहीं पा रहा था आखिर हुआ क्या है मुझे ?

रुचिका ने कमरे के बाहर से दरवाजे पर ही खड़ी हो कर बताया ,

” यों तो डरने वाली बात नहीं है लेकिन संपर्क से बीमारी फैल सकती है “

” ये तुम कहाँ फँस गये उदय ?

अब आज के जमाने में किसे यह बीमारी होती है ?

मैं यहाँ लिविंगरूम में हूँ कुछ चाहिए तो बता देना फोन करके ”  उसकी आवाज से दुविधा टपक रही थी।

टेबल पर रखे प्रेसक्रिप्शन में  “ट्यूबरकोलोसिस ” देख कर मेरा मन भी मुर्झा गया।


कि फोन घनघना कर बज उठा।

बहुत मुश्किल से सिर घुमा कर देखा तो कमला भाभी का नाम डिस्प्ले हो रहा था। उनका नाम देखते ही मुँह से निकल गया …

आहृ भाभी माँ !

” कैसे हो बबुआ ? आज तुम्हारे भैया ने डॉक्टर से बात की थी कुछ आराम है क्या ?

बबुआ हम आ जाए “

भाभी की स्नेहसिक्त आवाज मेरे दुखते रग को राहत दे गई।

घर से दूर रह कर भी भाभी ने मेरे तनमन के दर्द को पहचान लिया था।

जबकि रुचिका ?

मेरी जीवन संगिनी मुझसे दूरी बना कर लिविंगरूम में रह रही है।

” भाभी, बस इतना कहते ही मुझे खांसी शुरू हो गई मेरा मन तेज रोने को हो आया।

“देखो तुम्हें डॉक्टर के निर्देशानुसार तो चलना है पर मजबूती बनाए रखने के लिए कुछ बढि़यां भी खाना होगा “

“रुचिका तो ठीक है ना ?

उसे फोन करके सब बता देती पर वो फोन ही नहीं उठा रही है “

” थकान और कमजोरी के मारे आवाज नहीं निकल रही थी फिर भी जैसे-तैसे हिम्मत बटोर कर ,

” भाभी मैं उसे बोल दूंगा आपको फोन कर लेगी “

रुचिका को मेरे भाई-भाभी या यों कहें मेरा पूरा परिवार ही नापसंद थे।

रुचिका मेरी पसंद थी ‘आई.आई .टी कानपुर’ में हमने साथ रह कर पढ़ाई पूरी की थी।

उसके पिता उच्च सरकारी पद पर थे जिसका गुमान उसे हमेशा रहा है।

जबकि हमारा दो भाई और तीन बहनों वाला साधारण खाता-पीता लेकिन हँसता खेलता परिवार था।

बड़े भैया ने मेरी रुचिका के साथ विवाह करने के निर्णय को स्वाभाविक नहीं मानते हुए हल्का-फुल्का ऐतराज जताया था।

भैया का यह मानना था ,

” शादी-ब्याह के रिश्ते अपने से बराबरी वालों में ही जोड़ने चाहिए ‘ छोटे ‘

इस महत्वपूर्ण निर्णय को बड़ो के हाथ में छोड़ देने में ही भलाई है “

लेकिन मेरे आंखों पर तो जैसे पट्टी बंधी थी।

अब तो खैर माँ -पिताजी भी नहीं रहे।

मैं सदा से ही बेवकूफ या मूर्ख किस्म का रहा हूँ।

रुचिका के साथ शादी कर के तो एक के बाद एक सफलता की सीढीयाँ चढ़ता हुआ सबको भुला ही बैठा।


अपने दो बेटों की पैदाइश पर किसी को बुलाना तो दूर उन्हें खबर तक नहीं की थी।

वो तो इधर-उधर से खबर पाकर भाभी ने ही भैया से छिपछिपा कर घर से ढ़ेरों उपहार मसलन हाथ के सिले झबले, स्वेटर, किलोट ,खिलौने ,झुनझुना सब एक टोकरी में सजा कर भेजा था।

जिसे रुचिका ने अपने स्टेट्स के लायक नहीं मानते हुए नौकरों में बंटबा दिए थे।

उसके रूप-रँग और चातुर्य का मुझपर कुछ ऐसा असर हुआ था कि मेरे अक्ल पर पर्दा पर गया था और मैं भी सब रिश्तों को भुला कर कट गया।

” रुचिका को तो मेरे घरवाले शुरु से ही नापसंद थे पर मैं ? “

” मैं कैसे भूल गया था भाई-भाभी का साथ और बहनों का प्यार ?”

जिस भाभी से मुझे कुछ कहने की जरुरत नहीं पड़ती वे न जाने कैसे खुद ही सब समझ जाती थीं।

उन्होंने मुझे अपने बच्चों की ही तरह माना है।

कभी जब पढ़ते वक्त टेबल पर सिर रख कर सो जाता तब उनके स्नेहिल स्पर्श से सारी थकावट दूर हो जाती।

आज मुझे वही ममता भरा स्पर्श चाहिए। लेकिन रुचिका डॉक्टर के निर्देशानुसार अलग से ही बातें कर रही थी।

कुछ थकावट और कुछ इस अकेलेपन ने मुझे तोड़ दिया। अजीब से डिप्रेशन में घिरा हुआ मैं घबरा कर सबको फोन मिलाने लगा पहले रुचिका फिर दोनों बेटों को लेकिन बेटे अपनी क्लासेज में और रूचिका अपने क्लाएंट से मीटिंग में व्यस्त थी।

फिर अंत में थक कर बड़े भैया को ही फोन लगा डाला और उनकी चिंतित आवाज सुन कर फूट-फूट कर रो पड़ा।

वैसे तो बड़े भैया आदतन शांत ही रहते थे लेकिन मेरे रोने की आवाज़ पर वह भी परेशान …हो गये थे।

थोड़ी तेज अधिकार भरे स्वर में जो उनकी आदत थी पूछ बैठे,

” रूचिका कहाँ है ? इस वक्त उसे तुम्हारे पास होना चाहिए मानता हूँ कि सेफ रहना चाहिए लेकिन मन से तो दूरी नहीं होनी चाहिए उदय “

वैसे तो वे मुझे मेरे निकनेम ‘छोटे ‘ कह कर बुलाते हैं लेकिन जब आक्रोश में रहते तब मेरे नाम से ही बुलाया करते।

उन्हें ‘उदय ‘ कहते सुन कर भाभी ने तुरंत फोन स्पीकर पर कर दिया ,

” क्या करते हैं ? आप एक तो बबुआ इतना कमजोर … और उस पर से आप उसे आराम करने दें ? “

और फिर खूब सारी बातें कर के मामला संभालने का भरपूर प्रयास किया ,

मैं हैरान हो गया कि उन्हें याद था जब,

” मैं बीमार होता हूँ तो मुझे उबले सेब नमक और गोलमिर्च छिड़क कर बहुत पसंद आते “

मुझे आज उनके मुंह से बबुआ सुनकर संतोष हो रहा था।

तभी दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज से  मैं उधर ही देखने लगा।

रुचिका हांथों में ग्लब्स पहने खाने की थाली और पानी से भरे जग लिए खड़ी है।

वो न जाने कब से खड़ी हम लोगों की बातें सुन रही थी लिहाजा थोड़ा जोर से ही सुनाकर बोली ,

” ये तुम आज इतना सेंटी क्यों हो रहे हो इनसे बातें करके ? “

“क्या करूँ बहुत अकेला पन लग रहा है तबीयत घबरा रही थी “

” आराम करो,  अकेले तो हो नहीं मैं काम कर रही हूँ बाहर ” कहती हुई पैर पटकती बाहर चली गईं।

उसके जाने के बाद ध्यान आया हड़बड़ी में फोन बंद करना ही भूल गया था “भाभी कितनी दुखी हो रही होगीं यह सब सुन कर “

लेकिन जब हैलो, हैलो किया तो देखा कि भैया ने समझदारी दिखाते हुए पहले ही फोन बंद कर दिया था।

ध्यान आया बहुत पहले जब मैं अपने परिवार के साथ बड़े घर में शिफ्ट हो रहा था तो भैया ने परिवार की एकता बनाए रखने के लिए कहा था,

” साल में एक बार ही सही हम सब भाई-बहन चाहे कहीं भी रहें अवश्य मिलेगें “

पर रुचिका ने यह कह कर कि ,

” तुम्हारा परिवार तुम्ही संभालो “फिर उसके बाद यह कह कर कि

” तुम्हारी तीन-तीन बहनें हैं इनसे संबंध रखोगे तो देते-देते उम्र निकल जाएगी “

मेरी मति भी मार दी थी।

फिर शुरू में एक दो बार तो मैं अकेला गया भी था लेकिन बाद में काम के नाम पर बहाना बनाकर जाना बिल्कुल ही छोड़ दिया।

लेकिन क्या वे मुझे छोड़ पाए ?  नहीं, नहीं ना !

आज मेरी इस दशा में पिछला सब कुछ भूल कर भाभी के कहने पर सभी बहनें और उनके बच्चे मुझसे रोज रात में फुर्सत के वक्त वीडियो कॉलिंग कर आपस में खूब हँसी मजाक करते।

जिसमें रुचिका कभी शामिल नहीं होती।

मुझे आश्चर्य हुआ इस बात से,

” कि मेरे छूटे हुए परिवार का हर एक बच्चा मेरी बचपन से लेकर अभी तक मेरी एक-एक आदत ,पसंद नापसंद , मेरी पढ़ने की लगन जिसकी बदौलत मैं इस पद पर पँहुचा था से वाकिफ था “

जब कि मेरे बेटों को इन सबके के प्रति कोई जिज्ञासा नहीं थी।

खैर अब कोई कभी भी फोन कर लेता है। अब तक सिर्फ़ पापा सुनने के आदी मेरे कान चाचू, मामू सुन कर हर्षाने लगे हैं।

यों कि रुचिका को यह सब नागवार लग रहा है।

लेकिन मैं ने यह सोच कर कि ये और बेटे ऐसे ही हैं और रहना तो मुझे इनके साथ ही है।

सहज भाव से ही रहा।

इसी तरह दिन बीतते गये मेरी तबियत भी अब सुधरने लगी थी।

डॉक्टरों ने मुझे बाहर बागीचे में घूमने-फिरने की आजादी दे दी थी।

यों कि पहले जैसी एनर्जी तो नहीं मिलती लेकिन बहुत हल्का महसूस करता था।

पिछले दिनों जिंदगी ने मुझे बहुत सबक सिखाए हैं।

मैं मन ही मन कहीं इस बीमारी का शुक्रगुजार भी था जिसमें मुझे मेरे छूटे रिश्ते फिर से मिल गये थे।

उस दिन मैं ‘ अपने तो अपने होते हैं ‘ यही सोचता हुआ बागीचे में टहल रहा था कि भाभी का फोन आ गया था ,

” क्या कर रहे हो बबुआ ? “

” जी टहल रहा हूँ भाभी “

अभी तो कमजोरी होगी देखो थोड़ा ही टहलना “


तभी मुझे खांसी आ गई मैं चुप था उधर भाभी के हाथ से भैया ने फोन ले लिया,

“क्यों छोटे थक गये ना ? मैंने मना किया था ना अभी तुम्हें बाहर निकलने से ?

न जाने तुम कब बड़े होगे ?

मुझे हँसी आ गई ,

“जी भैया “

“यह जी,जी क्या लगा रखा है अब चलो अंदर जा कर आराम करो ” ,

” सॉरी भैया और थैंक्यू  “

उधर स्पीकर पर भाभी थीं जो भैया को कह रही थीं

” आप भी ना!

बबुआ अब बड़ा हो गया है “

भैया के निराले अंदाज और भाभी की दी हुई हिम्मत से और कुछ नहीं तो मजबूत जरूर हो गया हूँ।

बेदिली से यह महसूस करते हुए मैंने अपने कदम वापस घर की ओर मोड़ लिए हैं।

          सीमा वर्मा / स्वरचित

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!