“पापा नहीं रहे “
” क्या! कब ? “
जब शैलजा ने फोन करके बताया तो मैं
‘रुहिका’ एकदम से चौंक पड़ी।
‘कल सुबह … ही हार्ट अटैक से ‘
रोज की तरह उसदिन भी मैं अल्लसुबह ही जगी थी कि शैलजा का फोन आ गया।
मैं और शैलजा बचपन की मित्र हैं। हम दोनों की जोड़ी पूरे मुहल्ले में सबसे खासम-खास हुआ करती थी।
लेकिन दोनों के ही स्वाभाव में शुरू से ही बहुत अंतर है। एक तरफ रुहिका निश्चित आजा़द खयालों की स्वतंत्र लड़की थी।
वहीं मैं हर बात को ध्यान से देख कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया देती।
मुझे रोज की घटने वाली साधारण सी बात में कब, कौन सी बात विशिष्ट लग जाए यह देख खुद मुझको ही हैरानी होती।
पर जिन्दगी समस्याओं से भरी भी होती है। हमदोनों ने कभी सोचा ही नहीं था।
हम मजे से पढ़ते, खेलते-कूदते हुए मस्त हवा के झोंके जैसे बढ़े चले जा रहे थे कि उस सुबह शैलजा के फोन ने झकझोर कर रख दिया था।
मैं ठगी हुई सी खड़ी रह गई थी।
शैलजा की अपने पापा की डेथ के बाद से उसकी जीवन दिशा बदल गई थी।
हमारी कौलनी पौश मानी जाती थी यहाँ अधिकतर सरकारी अधिकारियों के बंगले ही थे।
थोड़े दिनों के बाद ही उसकी फैमिली हमारे मुहल्ले को छोड़ ऑफिसर्स कालोनी के पीछे बसे छोटे से मुहल्ले में घर ले कर रहने चली गयी पर इसका प्रभाव हमारी दोस्ती पर तनिक भी नहीं पड़ा था।
लेकिन अचानक ही न जाने क्या हुआ वह धीरे- धीरे अपनी राह से भटकने लगी थी।
उसकी दोस्ती मुहल्ले एवं बाहर के छटे हुए लड़कों से होने लगी थी।
मैं उसे समझाने के बहुत प्रयास करती पर वो मेरी बातें कहाँ सुनती ?
दिन-दिन भर घर के बाहर रहना। पहनावा भी टॉम व्याए की तरह ही करने लगी थी।
ना जाने किस चीज की तलाश उसे हर वक्त रहती यह सब देख मैं असहज होने लगी।
वो भी मेरी रोज-रोज की टोकाटाकी से मुझसे नाराज रहने लगी ।
उसके पढ़लिख कर डॉक्टर बनने की अभिलाषा तो पिता की मृत्यु के साथ ही दफ़न हो चुकी थी।
लेकिन मैं हर वक्त उसके साथ बनी रह कर दोस्ती निभाना चाहती हूँ।
क्योंकि इस तरह गली-मुहल्ले में उसे भटकती हुई छोड़ देना मुझे कतई गवारा नहीं है। एक दिन उकता कर मैंने कह दिया ,
‘ सुऩ शैलजा तेरे रँग-ढँग मुझे नहीं भा रहे हैं ।
एक मुफ्त की सलाह दे रही हूँ।
अगर तुम्हारे पास कोचिंग की फीस भरने के पैसे नहीं है तो ना सही मैं अपने सारे नोट्स तुम्हें देती हूँ घर पर ही रह कर अगर तुम चाहो तो मेडिकल की तैयारी कर सकती हो ‘
पर उसे तो येन-केण-प्रकारेण पैसे कमाने के चस्के लग चुके थे अगले ही पल सिर झटकती हुई बोली ,
‘ तुम्हारी मुफ़्त की सलाह तुम्हें ही मुबारक ‘
मेरा मुँह बन गया चुपचाप रुआंसी हो कर चली आई ।
लेकिन उसके यहाँ आना जाना कम कर दिया है।
अब शायद उसे मेरी यारी-दोस्ती भी नागवार गुजरने लगी है।
कभी भूलेभटके मैं उसको दिख भी जाती तो वह रास्ता बदल कर दूर भागती।
कितनी दफा़ वो मेरे सामने से गुजरती पर मेरी हिम्मत उसे टोकने की नहीं होती।
खैर …
मैं भी अब और उसके पीछे नहीं पड़ने लगी अफसोस होता था पर… उसके इर्दगिर्द फैले हुए माहौल को देख कर चुप रहना ही बेहतर समझती।
मैं उसके इस व्यवहार से टूट कर इसके पहले कि अवसाद से घिर जाती उधर से ध्यान हटा कर अपनी मेडिकल की तैयारी में जुट गई। ईश्वर की कृपा से पहली ही बार में मुझे सफलता भी मिली।
कालान्तर में मेडिकल कॉलेज से निकलने के बाद मेरी नौकरी लग गई।
थोड़े दिनों बाद मेरी शादी शहर के जानेमाने नर्सिंग होम के संचालक के डॉक्टर बेटे सुयश के साथ हो गई थी।
तब मैंने भी अपनी नौकरी छोड़ उनके नर्सिंग होम को ज्वॉएन कर लिया।
लेकिन स्मृतियों की इतनी गहरी परत के नीचे अभी शैलजा की याद ताजातरीन या यों कहें जिन्दा है।
जभी भी गाड़ी उस पुराने मुहल्ले से गुजरती मैं शीशा नीचे कर उसके घर की ओर देखती हूँ। कभी कभी उसके छोटे भाई-बहनों पर नजर पड़ जाती तो गाड़ी रुकवा कर शैल के हाल पूछती लेती हूँ।
वो हैरत से मुझको देखते फिर मुँह बना कर यों खड़े हो जाते मानों मुझपर दया दिखा रहे हों।
तब मैं आगे बढ़ जाती हूँ।
लेकिन मैं यों ही चुप हो कर छोड़ने वालों में से नहीं हूँ।
आखिर बचपन की मासूमियत भरे दिनों में मैंने और शैलजा ने एकदूसरे की नन्हीं -नन्हीं उंगलियाँ थाम कर पिंकी प्रौमिस का वाएदा जो लिया था।
जब मेरे सवाल लगभग खत्म हो चुके थे एक दिन हिम्मत कर मैं उसके घर चली गईं।
जहाँ शैलजा तो नहीं लेकिन उसकी माँ मिली वे मुझको देखते ही असहज हो गई और मेरे हाथ थाम कर रोने लगीं ,
‘क्या हुआ आंटी ?
किसी भी तरह की प्रौबलेम हो तो मुझको बताएं ‘
शैलजा कहाँ है ?
‘ वो अब क्या वही शैलजा रह गई है बेटा ?
बुरी सोहबत में पड़ कर ड्रग पेडलर हो गई है। हमारे लाख समझाने के बाद भी अपने पापा के जाने के बाद से हमारे भरणपोषण के नाम पर उसके कदम बुरी तरह बहक गये हैं ‘
‘मैं कितनी दफा उसे तुमसे मिलने को कह कर थक चुकी हूँ लेकिन ना तो वह तुमसे मिलना चाहती है और ना हमें तुम्हारे पास जाने देती है ‘
यह सब सुन कर मुझको इतनी जो़र से गुस्सा आ रहा था कि, ‘ ‘एक मन कर रहा है अभी पुलीस को इन्फौर्म कर उसे हथकड़ियां लगवा दूँ ‘
‘पर अगर उसने होश खो दिया है तो क्या मैं भी खो दूँ ? ‘
ड्रग का मामला था।
इस मामले में बिना सुयश से बातें किए हुए मैं कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी।
इसलिए उस वक्त चुपचाप वहाँ से चली आई।
उस समय जाड़े के दिन थे। मेरे नर्सिंग होम मे आंखों की कैक्टरेक्ट का मुफ्त शिविर लगा हुआ था।
ये शिविर बहुत प्रेशरवाले और थका देने वाले होते हैं।
लिहाजा मैं और सुयश दोनों ही बेहद बिजी थे।
शिविर खत्म होने के बाद मैं सुयश से बातें करने की सोच ही रही थी। कि एक दिन क्लीनिक में इमरजेंसी केस आया।
‘ किसी लड़की की गोली लगने से लगभग लास्ट स्टेज ही थी’ ऐसा बता रहे थे स्टाफ ने फोन पर बताया ,
‘बस दम टूटने ही वाली है मैडम ऑक्सीजन लगा दिया है ‘
‘ कहाँ का केस है ? ‘
‘ जी, गोमतीनगर ‘
न जाने क्या हुआ मुझको मैं जिस हालत में थी उसी हालत में भागती हुई अस्पताल पहुँच गयी थी। मेरी सोच के अनुरुप ही सामने बेड पर वही पड़ी हुई थी।
मरणासन्न सी पड़ी हुई ‘मेरी शैलजा ‘
मैं बेबस और मजबूर सी उसकी तरफ देख रही हूँ।
अगले ही क्षण बिजली सी कौंधी और बिना किसी तैयारी के इंतजार किए हुए मैं वहाँ रखी मेडिकल नाइफ से उसकी जाँघ में जहाँ गोली धंसी हुई थी उसे चीर दिया।
सारे स्टॉफ मेरा मुँह देखते रहे पर मारे डर के कुछ बोल नहीं पाए।
मेरे दिमाग में यह चल रहा है इस वक्त ,
‘ मरेगी तो तू वैसे भी शैलजा, क्योंकि बुरे काम का बुरा नतीजा ही होता है फिर क्यों ना एक बार मैं कोशिश कर लूँ तुम्हें बचाने की मेरी जान ‘
अगले दो घंटे की हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद इस समय मेरे हाथ ईश्वर के सामने उसके लिए दुआ माँगने को उठे हैं।
खुदा का लाख-लाख शुक्र ईश्वर ने मेरी सुन ली है।
अगले दो दिनों के बाद सुबह में उसे होश आया और मुझे चैन की साँस।
मेरे अस्पताल में ही लगभग एक महीने की देखभाल से स्वस्थ हो कर इस समय वह नजरें झुकाए बैठी थी।
उसकी आँखों मे घोर पाश्चाताप के आँसू छलक रहे हैं।
— पीठ थपथपाती हुई मैं ,
‘ शैलजा, अब तू लगभग ठीक हो चुकी है अब तो अपनी फीलिंग मुझको शुरु से अंत तक बता दे ।
जिससे मैं आगे तेरे लिए कुछ कर पाऊँ’
उसने नजर उठा कर मुझे देखा और टूटे हुए तटबंध की तरह हरहरा पड़ी ,
‘ रुहिका , वाकई तेरी यारी पक्की निकली जबकि मैं ही नहीं उसे निभा पाई।
आज तुझसे सब कुछ कह दूंगी ताकि जिस घुटन में मैं जी रही हूँ। यहाँ तक कि मेरी जान पर बन आई उससे निकल सकूँ ‘
‘उसका नाम क्रिस्टो था जिसके जाल में फंसी हुई मैं परकटी चिड़ियाँ की तरह हो कर रह गयी हूँ ‘
‘ यह संयोग ही था कि,
‘ पापा की डेथ के बाद घर चलाने की खातिर मैं उसके पास काम मांगने चली गयी थी ‘
‘ जबकि तुम्हारे जैसी दोस्त मेरे पास थी।
लेकिन मेरी बदकिस्मती कि मैं तुम्हे पहचान नहीं पाई और हमेशा तुम्हें गलत ही समझती रही फिर आगे का रास्ता कैक्टस ही साबित हुआ है’
तुम्हारे मदद के लिए बढ़े हाथ को तुम्हारा अभिमान जान कर तुमसे कतराते लगी थी ‘
‘ लेकिन मेरी अच्छी सखी अब मेरी आँख खुल चुकी है अंधेरा छंटता हुआ सा लग रहा है ‘
मैं उसे बीच में ही टोकती हुई बोली,
‘ तो मेरी एक बात मानेगी ?’
‘ सिर्फ़ एक! कहे तो जान न्योछावर कर दूँ’
मैं खिलखिला पड़ी …
‘ जान! अब तेरी जान का मैं क्या करूंगी शैल ? ‘
सुन, चल कर पुलीस के सामने सरेंडर कर दे और जो पनिशमेंट मुकर्रर हो उसे काट कर फिर मेरे अस्पताल को ज्वाएन कर ले ‘
‘ मुझे भी अस्पताल को बेहतरीन ढ़ंग से चलाने के लिए तेरे जैसी ही विश्वनीय साथियों की जरूरत है।
बोल मानेगी मेरी बात ? ‘
कह कर मैं उसकी तरफ आशा भरी निगाहों से देखने लगी हूँ।
वह खुशी से भर उठी है पर उसकी आँखों में अभी भी वीरानी छाई है ,
‘ तो तुम मुझको मेरे सारे ऐब के साथ स्वीकार कर अपने पास पनाह भी दोगी। मेरे लिए इससे अच्छी बात और क्या होगी ? ‘
शैलजा की बातें सुन कर रुहिका ने उसे गले से लगा लिया है। दोनों की आँखों से अविरल आँसू बह रहे हैं।
हाँ इस बार आँसू खुशी के हैं।
#दोस्ती_यारी
इति श्री …
सीमा वर्मा / नोएडा