मेरे पापा : मेरे हीरो! – प्रीति आनंद अस्थाना

आज सुबह दफ्तर पहुँचा ही था कि बॉस ने बुलवा भेजा। पता था कि आज क्लास लगेगी पर इतनी जल्दी?

“देखो वर्मा, ये तीसरा प्रोजेक्ट भी हमारे पास से निकल गया। आजकल कुछ टिकता ही नहीं तुम्हारे हाथों में! एक एक कर तुम्हारे तीन प्रोजेक्ट कंपनी के हाथों से निकल गए हैं। अब एक ही क्लाइंट बचा है तुम्हारे पास। प्रेजेंटेशन अगले हफ़्ते है। अगर ये प्रोजेक्ट भी निकल गया तो तुम्हें कपूर के अंडर में काम करना होगा। हाँ, वह तुमसे जूनियर है पर काम बखूबी कर रहा है। शायद तुम्हें फिर से सबकुछ सीखने की ज़रूरत है।”

कपूर मुझसे बारह वर्ष जूनियर है! इतनी इंसल्ट नहीं झेल सकता मैं। इससे अच्छा तो रिज़ाइन ही कर दूँ!

दोपहर को मेरे कैंटीन पहुँचते ही वहाँ हो रही खुसुर फुसुर शांत हो गई। मानो सब मेरे बारे में ही बात कर रहे हों! एकाध वाक्यांश मेरे कानों में पड़ा भी… ‘बाहर का रास्ता’, ‘डिमोशन’, आदि। ऐसा लग रहा था मानो पूरी दुनिया मेरे खिलाफ खड़ी हो गई हो!

घर पर भी हर रोज़ शिखा से कहासुनी हो जाती है। पर उसकी भी क्या गलती, मैं ही परिवार की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पा रहा। क्या करूँ? आफिस का काम बिगड़ने से बॉस ने इन्क्रीमेंट कैंसिल कर दी है। ई.एम.आई. भी नहीं दे पा रहा हूँ। हालात इतने बुरे हैं कि कल को गाड़ी भी ज़ब्त हो सकती है, और मकान भी! परिवार सड़क पर आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं!

वैसे मैंने खुद का तगड़ा बीमा करा रखा है। अगर मुझे कुछ हो गया तो इनलोगों की सारी परेशानी खत्म हो जाएगी! कभी-कभी ऐसा ख्याल आता भी है मन में पर कोई कदम नहीं उठा पाता… बच्चों का चेहरा सामने आ जाता है।

शहर की तमाम सड़कों को नापते हुए जब घर पहुँचा तो नौ बजे रहे थे। शिखा चिंतित लगी पर बोली कुछ नहीं। शायद सम्बंधों में दरार इतनी आ गई है कि शब्द उसी में ग़ुम हो जाते हैं।


“चाय पियोगे?”

“बना दो। बच्चे सो गए?”

“हाँ, अभी दस पन्द्रह मिनट हुए होंगे। नन्दू तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था। कह रहा था, पापा को कुछ दिखाना है।”

“अच्छा! चाय बच्चों के कमरे में ही दे देना।”

मैंने धीरे से दरवाज़ा खोला तो दोनों चैन से सो रहे थे। मैं वहीं, उसके स्टडी टेबल पर, बैठ गया।

‘अच्छा हुआ, नहीं मिला पापा से। नहीं तो क्या होता! दो चार थप्पड़ और पड़ जाते उसे! अपनी नाकामी का सारा फ्रस्ट्रेशन उसी पर तो निकालता रहा हूँ। श्रेया तो बहुत छोटी है। और पापा की लाड़ली भी!’

एक कॉपी सामने पड़ी थी, उसे ही उठा कर पलटने लगा। कक्षा चार! ये नन्दू कक्षा चार में कब आ गया? अभी कुछ समय पहले ही तो मैं उसे नर्सरी में छोड़ने जाता था! हिंदी निबंध की कॉपी थी।

‘अच्छा! निबंध लेखन में नौ बटा दस मिले हैं! यही दिखाना चाहता होगा।’

“मेरे पापा : मेरे हीरो”

आँखें नम हो गईं मेरी। एक वो है जो मुझे हीरो बता रहा है और एक मैं हूँ… जबतब उस पर हाथ छोड़ देता हूँ! एक सरसरी निगाह से पढ़ने लगा…


“मैं बड़ा होकर अपने पापा जैसा बनूँगा। खूब प्यार करूँगा सबको। मुझे पता है पापा हमें बहुत प्यार करते हैं। कभी कभी बहुत परेशान रहते हैं तो पिटाई भी कर देते हैं।  पर बाद में जब वो मुझे पकड़कर माथे पर प्यार करते हैं तो मैं उनसे लिपट जाता हूँ। एक बार मैं रोते-रोते सो गया था

तो पापा सारी रात मुझे पकड़ कर मेरे पास ही लेटे रहे। और अगले दिन मेरी मनपसंद चीज़ें लाकर दी। विकी के पापा ऐसे नहीं हैं। वो मारते भी बहुत हैं और कभी प्यार भी नहीं करते। एक दिन वह कह रहा था कि क्या मैं पापा की अदला-बदली करूँगा? मैंने मना कर दिया। मेरे पापा सिर्फ मेरे हैं।……

नहीं पढ़ पा रहा हूँ। आँखों से अविरल आँसू बहे जा रहा है। नहीं, मुझे कुछ करना होगा।  इस तरह से ज़िंदगी को अपने हाथों से फिसलने नहीं दे सकता।

“लो चाय पी लो।” शिखा भी वहीं बैठ गई। मुझे रोता देख उसके चेहरे पर रेखाएँ उभर आईं। मैंने कॉपी धीरे से उसकी तरफ खिसका दी। पढ़ कर शिखा की भी आँखें भर आईं।

“ठीक ही तो लिखा है। आप उसके हीरो हो।”

उसने धीरे से मेरे हाथों को थाम लिया,

“अभि, तुमने कभी बताया नहीं पर मुझे पता है कि तुम्हारे अनेक प्रयासों के बाद भी हमारी वित्तीय स्थिति सही नहीं हो पा रही है। आज मुझे श्रेया के स्कूल में नौकरी मिल गई है। अब हम मिल कर इस जिम्मेदारी को उठाएँगे। तुम अब घर की चिंता किए बगैर अपने कैरियर पर पूरा ध्यान दे सकते हो।”

बह रहे आँसुओं ने मानो उनके बीच के सारे गिले शिकवे धो दिए थे। अपने नन्हे से बेटे से हिम्मत पाकर मैंने अपने प्रोजेक्ट के प्रेजेंटेशन में बेहतरीन प्रदर्शन करने की ठान ली।

स्वरचित

प्रीति आनंद अस्थाना

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