बीनू ओ बीनू कहाँ चली गई.. ये लड़की भी न.. सारे दिन बस खेल और खेल.. न पढाई में मन लगता है इसका और न ही घर के काम काज में। आज आने दो अच्छे से खबर लेती हूँ इसकी। आपने देखा क्या बीनू को?? आपकी शह पाकर ही वह मेरी नहीं सुनती। आपने बहुत सर चढ़ा रखा है इसे। क्यों सारे दिन उसके पीछे पड़ी रहती हो। यही दिन तो हैं आज़ादी और मौज मस्ती के फिर पता नहीं कैसा ससुराल मिले। एक बार गृहस्थी के पचड़े में फंसने के बाद समझदार हो जायेगी। यही तो मैं भी समझाना चाहती हूँ लड़की की जात है घर का काम काज नहीं सीखेगी तो लोग हमें ही दोष देंगे। कहेंगे.. माँ बाप ने कुछ सिखाया ही नहीं। इन्हीं उलाहनों से बचना चाहती हूँ और बेटी को भी बचाना चाहती हूँ। पर बीनू ठहरी मस्त मौला वह एक कान से सुनती और दूसरे से निकाल देती। अंधेरा हो चला था खेलने में ध्यान ही नहीं रहा। आज तो पक्का कान मरोड़ेगी अम्माँ। सोचा छुपते छुपाते चुपचाप कमरे में घुस जायेगी और कह देगी.. मैं तो बहुत देर से यहीं हूँ। पर अम्माँ दरवाजे पर ही तैयार खड़ी मिल गई.. आ गई महारानी जी आपको घर की याद और थोड़ी देर चला आती साइकल मुहल्ले के बच्चों के साथ। शर्म नहीं आती शादी की उमर हो रही है और अभी भी जरा जरा से बच्चों के साथ हुदडाती फिरती है। बीनू चुपचाप जाकर पिता के पास होमवर्क करने बैठ गई। माँ के कोप को शांत करने का बस यही एक तरीका समझ में आता था उसे।
उसका MBA पूरा होते ही पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। वह बीनू के लिए ऐसा घर चाहते थे जहाँ उसे बेटी जैसा ही प्यार मिले क्योंकि वह जानते थे कि बीनू दुनियादारी के छल कपट और चालाकियों से दूर सरल स्वभाव की स्वामिनी थी। तभी उनके घनिष्ठ मित्र ने एक दिन बातों बातों में बीनू को अपनी पुत्र वधू बनाने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने सोचा यहाँ सब जाना माना है तो वह इस रिश्ते के लिए तुरंत तैयार हो गये और बीनू पराग की पत्नी बनकर आ गई। घर में सभी उसे बहुत प्यार करते थे ऐसी ही ससुराल का सपना देखा था उसने। अभी विवाह को दो माह ही गुजरे थे कि एक दिन देवर वैभव कॉलेज से आते समय एक बस से टकरा गया। भिड़न्त इतनी भयावह थी कि वैभव को हॉस्पिटल ले जाने का भी मौका नहीं मिला और वह सबको रोता बिलखता छोड़कर चला गया।
बीनू का हमउम्र होने के कारण दोनों की बहुत पटती थी वह सारे दिन एक दूसरे से हंसी मजाक करते रहते लिहाजा इस हादसे से वह जड़ होकर रह गई। सभी अपने अपने दुःख में व्याकुल थे कौन किसको धैर्य बंधाये समझ नहीं पा रहे थे। नाते रिश्तेदारों का तांता लगा हुआ था सभी आते और संवेदना जताकर चले जाते। एक दिन एक महिला बीनू की सास को ढाढस बंधाते हुए बोली.. न जाने कैसे पैर पड़े हैं बहू के .. दो महीने बाद ही घर का बेटा चला गया बड़ी अपशकुनी बहू आई है तभी तो कहते हैं साल भर तक लच्छन देखे जाते हैं। वह तो चली गई पर उसके बाद बीनू की दुनियां पूरी तरह से बदल गई। अब वह सासू माँ को फूटी आँखों नहीं सुहाती। उसके हाथ का बना खाना भी नहीं खातीं। बात- बात पर कहतीं.. तूने तो मेरा बेटा खा लिया। उस समय बीनू को लगता कि धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये क्या कोई भी स्त्री चाहेगी कि उसके परिवार के किसी भी सदस्य पर कोई आंच आये।
बीनू उनके आगे पीछे घूमती रहती, पूरा ध्यान रखती उनका पर उसके लिए उनका दिल पत्थर हो चुका था। एक भी शब्द बोलना तो दूर उसकी शक्ल देखना भी गवारा नहीं था उन्हें। पराग अपने पिता के साथ शो रूम चलाता था तो अलग होने या दूर जाने का सवाल ही नहीं था वह अपने माता पिता से दूर जाने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। पराग की माँ उसके घर पर रहते हुए बिल्कुल नॉर्मल रहती पर उसके घर से बाहर जाते ही किसी न किसी बात पर बखेड़ा खड़ा कर देतीं। वह किसी न किसी बहाने नफ़रत उड़ेलती रहती। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब बीनू रो न लेती हो, जीना दुश्वार होता जा रहा था। पराग से कहती तो वह चुप्पी लगा जाते क्योंकि एकाध बार उसने बीनू का पक्ष लिया तो माँ ने उस पर जोरू के गुलाम का ठप्पा लगाने के साथ साथ बीनू को झूठा साबित कर दिया। कभी ससुर जी समझाते तो उल्टा उनपर बरसने लगतीं तो उन्होंने भी चुप रहने में ही भलाई समझी।
अब कोई उसको इस स्थिति से निजात नहीं दिला पा रहा था। उनका बेटा खोने का दुःख सबको दिखता था पर बीनू का किसी को नहीं। बीनू समझ नहीं पा रही थी कि उसका क्या कसूर है बस वक्त के साथ बढ़ी जा रही थी इस तरह कई वर्ष गुजर गये अब बच्चों के सामने बिना कसूर बुरा भला सुनना उसे बहुत बुरा लगता। एक ही डर खाये जा रहा था उसे कहीं उसके बच्चों के मन में यह धारणा न बन जाये कि इनकी कोई इज्जत ही नहीं है इनसे तो कोई भी कुछ भी कह जाता है। एक दिन सुबह जब माँ सो कर नहीं उठी तो पराग ने उन्हें आवाज़ दी पर कोई प्रत्युत्तर न पाकर जब उसने अंदर जाकर देखा तो वह बोल नहीं पा रही थी उन्हें लकवा मार गया था। आनन फानन में उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया थोड़े दिन बाद वह डिस्चार्ज हो कर इस हिदायत के साथ घर आ गई कि प्रतिदिन उनकी एक्सरसाइज कराना जरूरी है। अब बीनू उनकी पूरी सेवा करती बस बात नहीं करती क्योंकि उनके व्यवहार ने उसके दिल को छलनी कर दिया था। वह केवल फर्ज निभा रही थी लगाव वाली बात नहीं बची थी। तब एक दिन उसकी सासू माँ ने उसका हाथ प्यार से अपने हाथ में लेते हुए कहा.. बहू.. मैं तुम्हारी कसूरवार हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बहुत गलत किया मुझे क्षमा कर दो। बीनू की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली.. क्या आप मेरे जीवन के वह बीस साल लौटा सकती हैं जो मैंने रोते हुए ,पल पल दर्द से तड़पते हुए गुजारे हैं। मेरा कसूर क्या था माँ.. और वह उठकर भीतर चली गई इतना आसान नहीं था बीस साल के दर्द को बीस मिनट में भुला देना। क्या आप बता सकते हैं उसको क्या करना चाहिए?? इंतज़ार रहेगा मुझे…. # दर्द स्वरचित, मौलिक कमलेश राणा ग्वालियर
# दर्द