#मायका
“माँ” बैठक में ही चावल लेकर चुनने के लिए बैठ गई थी। तभी मेन गेट की घंटी बजी। उन्होंने वहीं से पूछ लिया- कौन है?
कोई आवाज नहीं आई। वह सोचने लगी कि पता नहीं कौन हो सकता है अभी दोपहर के समय। दोनों बाप-बेटे तो घर में ही हैं तो फिर कौन आया?
दूबारा घंटी बजी तो उन्होंने बेटे को कहा- “देख तो बेटा बीच दोपहर में किसको याद आ गयी हमारी।”
ठीक है माँ देखता हूं रुको ,अनुज दरवाजा खोलते ही उछल पड़ा!
“माँ दीदी आई है!”
“क्या कहा,दीदी!”
चावल की थाली लगभग पटकते हुए वह भी भागते हुए बाहर आई। बेटी को सामने देखते ही उनकी आँखें भर आई। आश्चर्यचकित हो झट से उसे गले से लगा लिया। बोली -“बेटा, ना कोई सूचना ना कोई खबर अचानक तू यहाँ?”
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माँ किसी अनहोनी से डर गई थी। एक महीना पहले ही उन्होंने बड़ी धूमधाम से अपनी औकात के अनुसार बेटी की शादी की थी। दामाद भी बड़े भले मिले थे। खुलकर दहेज तो नहीं मांगा था, पर बिना कुछ मांगे ही सब कुछ देने की कोशिश की गई थी।
सारी शर्तें पूरी की गई थी बस एक को छोड़कर , ससुरालवालों को बेटी की नौकरी से एलर्जी थी। उनको घरेलु बहू चाहिए थी। पर बेटी को यह शर्त मंजूर नहीं था। उसका कहना था कि चाहे शादी हो या न हो वह नौकरी नहीं छोड़ सकती है। बहुत मेहनत से उसने बैंक की नौकरी हासिल की थी।
हालांकि बाद में ,दामाद जी मान गए थे। उन्होंने अश्ववासन दिया था कि समझा लेंगे परिवार वालों को। फिर जाकर बेटी तैयार हुई थी शादी के लिए।
कहीं कोई बात तो नहीं हुई नौकरी को लेकर ।यहि सब सोचते हुए माँ अपने माथे पर आये पसीने को पोंछती हुई
सामने बेटी को खाली हाथ देखा तो एकदम से डरते -डरते पूछ लिया- “बेटा दामाद जी नहीं आये?”
“तेरे साथ कोई सामान नहीं है?”
बिना बताये आ गई किसी ने कुछ कहा तुझसे?”
“अरे माँ मेरी! नहीं आ सकती क्या?
किसी से क्यूँ पूछूं। मेरा घर है ।
मैं ऑफिस से सीधे यहीं आ रही हूँ। तुम मुझे अंदर भी आने दोगी की नहीं। अपने घर में पूछ कर आऊंगी क्या?”
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“ऐसी बात नहीं है बेटा आ तू अंदर आ बैठ यहाँ मैं पानी लेकर आती हूँ।”
“माँ, मैं मेहमान हूँ क्या? जो तुम ऐसे कर रही हो! पापा की तबियत कैसी है?”
“ठीक है! तू बैठ मैं पापा को बुलाती हूँ।”
“नहीं, रहने दो। मैं जा रही हूँ पापा से मिलने उनके कमरे में।”
“नहीं-नहीं, तू रुक जा तुझे अचानक देखकर घबड़ा जायेंगे।”बीमार आदमी हैं। पहले तू मुझे बता अचानक आने का कारण क्या है वह बता फिर मैं पापा को बताऊंगी।”
“क्यूँ माँ? पापा मुझे देखकर खुश नहीं होंगे क्या!”
“बेटा,शादी के बाद तुझे अकेले नहीं दामाद जी के साथ देखकर उन्हें खुशी मिलेगी समझी!”
क्या कहा सैलरी लेकर आई है। तू कितनी नासमझ है बेटा!
“मुझे कुछ नहीं समझना ,आज मुझे मेरी सैलरी मिली और मैं सीधे ऑफ़िस से अपने घर आ गयी।”
“हमें “दान” देने के लिए आई है…है ना बेटा! अपने पापा को अपनी ही नज़र में “दीन” मत बनाओ।”
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उसने पिछे मुड़कर देखा पापा सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे।वह दौड़ कर पापा से लिपट गई।पापा की आँखें भर आई थी ।
“पापा आपने ऐसा क्यूँ कहा कि मैं दान देने आई हूँ!”
अपने घर में कोई दान देता है क्या!
बेटी के माथे पर प्यार से सहलाते हुए पापा ने कहा-,”तुमने काम ही ऐसा किया है। दुनियाँदारी तुझे नहीं पता है न। अब तेरा ससुराल ही तेरा घर है समझी।
“पहले तू मेरी थी, मेरी गुड़िया।”
तुझपे हमारा अधिकार था,तेरा सब हमारा था।
लेकिन शादी के रीत में मैंने तुझे दामाद जी के हाथों में सौंप दिया है। तुझपर अब सिर्फ उनका अधिकार है।
“तुझे उनकी हाथों में देकर हम पहले ही गरीब हो चुके हैं।” इसीलिये तेरी दी हुई हर चीज हमारे लिए “दान” ही तो होगी न!
“पापा….आपने मुझे पल में पराया कर दिया!”
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उसकी आँखों से आसुओं के धार बह निकली। वह पापा को पकड़ कर जोर से सुबकने लगी। पापा ने उसके माथे को चूमते हुये कहा-“बेटा,यही दुनियाँ और समाज की रीति है जिसे हम सभी को निभाना पड़ता है। मायके की प्रतिष्ठा बनी रहे इसका ध्यान हर बेटी को रखना चाहिए।”
बेटे के तरफ देखकर पापा ने कहा- “किसी को पता चले इससे पहले दीदी को ऑफिस तक छोड़ आओ, लोगों को बात बनाने में देर नहीं लगती”।
उसकी आँखों से आसुओं की धारा बह रही थी। बचपन से पापा के गले से लटकने वाली बांहें ढीली पड़ चुकी थी।
माँ दौड़ कर बेटी से लिपट गई। उसने खुद को माँ से अलग किया। पूरे घर को कातर नजर से निहारा। भाई को इशारे से साथ चलने के लिए मना किया
दुपट्टे से आँखों को पोछा और बैग उठा कर तेज कदमों से बाहर निकल गई ।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार