‘किरण , तुम यहाँ?…’
स्वास्थ्य मंत्री प्रकोष्ठ के बाहर , ऊँची हिल की सैंडल ,कड़क साड़ी पहनी, गुलाबी लिपस्टिक लगाकर, घूमती किरण को देखकर आश्चर्य से डॉ सौरभ प्रकाश ने पूछा ।
‘जी , मैं इन दिनों यहीं काम करती हूँ…’ किरण ने संक्षिप्त सा जवाब दिया ।
‘क्या काम करती हो यहाँ ?’डॉक्टर ने पूछा ।
‘काम तो वही है साहब….’ फिर उसका संक्षिप्त सा जवाब!
डॉक्टर सन्न…होकर उसे देखते रह गये।
‘साहब, वो सब छोड़ो,आप बताओ, किस काम से यहाँ आए हो?’ बेतकल्लुफ़ी दिखाते हुए किरण ने डॉक्टर की आँखों में देखते हुए पूछा
‘समय से पहले मेरा स्थानांतरण हो गया है, मैंने रोकने हेतु आवेदन दिया हुआ है…. इसी सिलसिले में माननीय मंत्री महोदय से मिलने आया हूँ…’
डॉक्टर साहब ने यहाँ आने का प्रयोजन बता दिया ।
‘ कोई फ़ायदा नहीं साहब… कितने डॉक्टर मिल कर गये… मंत्री जी के कानों में जूँ तक नहीं रेंगा…पर आप यहीं इंतज़ार करो, मैं बताती हूँ…’ कहती हुई वो अंदर चली गई ।
पाँच वर्ष पहले डॉक्टर सौरभ के पास किरण ने आकर मिन्नतें की थीं… ‘ डॉक्टर, मेरा इकलौता बेटा मनोज बहुत बीमार है… मेरे पास पैसे नहीं हैं… आप उसे देख लो , और दवा के लिए पैसे भी दे दो!’
डॉक्टर ने स्वभाविक रूप से जवाब दिया था.. ‘ मैं मुफ़्त में देख तो लूँ.. पर दवा के पैसे क्यों दूँ?’
‘क्योंकि आप डॉक्टर के साथ इंसान भी हो!’ याचना पूर्ण नज़रों से डॉक्टर की आँखों में देखा था।
डॉक्टर प्रकाश ने बच्चे का पूर्ण चेक अप किया। दवा और पाँच हज़ार रूपयों के साथ , कुछ हिदायतें देते हुए पर्ची पकड़ा दी थी । इसी बीच उसने पति के निकम्मेपन और प्रताड़ना से भी अवगत करा दिया था..
फिर दो वर्षों बाद एक फ़ार्मास्यूटिकल्स कम्पनी द्वारा आमंत्रित कॉन्फ़्रेंस में भी किरण से डॉ सौरभ की मुलाक़ात हुई…. तब उसने बताया था कि वो इस कम्पनी में बाबुओं की सेवा सुश्रुषा हेतु नियुक्त है…और शरीर रूपी क़िला को ढाह कर बेटे का जीवन मकान बना रही है..उसने यह भी बताया था कि अब वो पति के साथ नहीं रहती…।
डॉक्टर सौरभ को इंतज़ार करते तीन घंटे बीत गये…अब तक किरण का कहीं पता नहीं.. कहीं उसने यूँ ही तो नहीं कह दिया… नहीं नहीं वो ऐसा नहीं कर सकती.. खुद्दार इंसान है… उसके वश का नहीं होता तो वो आश्वासन ही नहीं देती… तभी सामने से वो आती हुई दिख गई… हाथ में कुछ लिए हुए…
”माफ़ करना साहब… आपको बहुत इंतज़ार करना पड़ा… क्या करती साहब, मेरे कहने के बाद मंत्री महोदय ने अविलम्ब सचिव महोदय को संचिका लेकर प्रकोष्ठ में आने हेतु फ़ोन किया… सचिव साहब तो दस मिनट के अन्दर आ भी गये.. पर आदेश के बाद भी सारी प्रक्रियाओं में समय लग जाता है न साहब…” कहते हुए उसने हाथ जोड़ते हुए माफ़ी माँगी.. फिर कहा ‘ ये लो स्थगन आदेश’
डॉक्टर की आँखें फटी की फटी रह गईं…
किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उन्होंने वॉलेट निकाले.. और किरण को पैसे देने की क़वायद की…
”नहीं साहब… अब मुझे कोई कमी नहीं… वैसे आपने मुझे जो दिया है… वो मेरी धरोहर है… शायद पूर्व जन्म का पुण्य कर्म है… इस जन्म में तो….” कहते कहते वो चुप हो गई..
बेटे के जीवन का मकान बनाने हेतु एक माँ अपने आँचल में मैले मोती टाँक रही थी..
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रंजना बरियार