मायका टूरिस्ट प्लेस से भी आगे बहुत कुछ है ।यादों के खजाने में असीमित भंडार भरे पड़े हैं ।किसे याद करें किसे छोड़ दे।नहीं छोड़ देने जैसा कुछ भी नहीं है ।किसे मायका कहें? वह छःदशक पहले वाली? वह गांव देहात में खूब बडा सा हवेली नुमा घर ।जहां पूरा कुनबा समाया रहता था ।दादा दादी, चाचा चाची,बुआ दीदी, भैया अम्मा बाबूजी ।
रमा इन्ही पलों को याद करती और जीती है ।बाबू जी के कंधे पर खेत खलिहान में घूमने से लेकर छोटे भाई बहन के साथ आंख मिचौली खेलती ।शाम होते ही अम्मा से कहानी कहने की जिद ।घर भी तो बहुत बडा, भारी भारी कील लगे दरवाजे थे लम्बे चौडे ओसारे ।गर्मी के दिनों में चारों बरामदे में खाट बिछ जाते ।एक खाट अम्मा का रहता ।रमा और अम्मा एक पर होती ।
अम्मा अपने बिस्तर के नीचे एक भाला रखती ।रमा ने एक दिन सवाल दाग दिया ” अम्मा, यह क्यो रखती हो “।” बेटा, यहाँ चोर बहुत आते हैं न,तो हिफाजत के लिए रखना चाहिए ।सचमुच वहां चोरों का बहुत आतंक था।अम्मा बहुत साहसी और निडर थी ।और बेटी तो महा डरपोक।अम्मा जब रात को उठ कर जाती तो पूछती, तुम्हे डर तो नहीं लग रहा है?
नहीं अम्मा, भला मै,डरने वाली कहाँ ।और माँ के जाते ही डर के मारे पूरा मुंह ढंक लेना ।यही थी रमा की जिन्दगी ।फिर बाबूजी नौकरी के तलाश में बाहर निकल गये।घर बंट गया ।परिवार बिखर गए ।।रमा बहुत उदास हो गई ।दिन आगे बढ़ने लगा ।रमा को बहुत जोर से चेचक हो गया ।इलाज तब होता नहीं था ।परिवार के लोगों ने कहा, देवी, देवता की पूजा करो,बेटी ठीक हो जाएगी ।लेकिन अम्मा नये खयाल की थी ।थोड़ी सुधार होते ही रमा को लेकर शहर चल दी।
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कहा, चल बेटा शहर चलते हैं ।तुम्हारे बाबूजी के यहाँ ।और फिर रमा शहर आ गई ।स्कूल में शिक्षा पूरी होने लगी ।देखते देखते रमा ने मैट्रिक पास कर लिया ।फिर एक दिन शादी की बात चलने लगी ।और शादी भी तो हो गई ।शिक्षा अधूरी रहने का मलाल तो था पर क्या करती ।अधिक सवाल जवाब तब नहीं होता था ।मन मारकर घर संभालने लगी।
जीवन कहाँ रूकता है ।दो बच्चों की माँ भी बन गई ।जीवन में बहुत उतार चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ।कुछ साल बाद बाबूजी भी नहीं रहे ।बच्चे बडे हो गये ।भाई बहन अपने जगह अपनी दुनिया में खुश हो गये ।गांव का मायका छूट गया ।शहर में अम्मा, भैया के साथ रहने लगी ।इधर छोटी सी बीमारी में रमा के पति भी नहीं रहे ।वह अकेली हो गई ।बच्चे तो साथ में थे ही।पर पति के बिना जीवन जीना मुश्किल लगने लगा ।अब शहर में रमा का मायका हो गया ।
रमा ने कागज़ कलम थाम लिया और समय के साथ ढलने लगी ।अम्मा के यहाँ भी जाती ।अम्मा की उम्र अधिक होने से वह भी बीमारी से लड रही थी ।डाक्टर ने कैन्सर बताया ।जीवन की आपाधापी में जीवन की आशा खत्म होने पर आ गई ।अम्मा, तुम मुझे छोड़ कर कैसे जा सकती हो? बेड पर पडी अम्मा बेटी को पूछती रहती ।
” खाना खा लिया ” चाय मिला की नहीं “? तुम्हारी तबियत तो ठीक है बेटा? सच वह मायका और अम्मा की तीमारदारी कहाँ से लाऊं ।रमा बेचैन हो जाती।लेकिन जिंदगी को जब गुजरना रहता है तो भला कौन रोक सकता है ।अम्मा की बीमारी बहुत आगे बढ़ गई ।लोगों ने कहा ।गीता पढ देना, रामायण पढ देना ।सब कुछ करती रही रमा ।
उस रात उनके पेट में जोर से दर्द होने लगा ।वह छटपटाने लगती थी जैसे कोई बचने का रास्ता नहीं था ।रात को दवा खिलाया तो उन्हें नीन्द आ गई ।रमा ने चैन की सांस ली ।चलो आराम से सो रही है ।सुबह भाभी से कहा, ” अम्मा तो चैन की नींद सो रही है ” हाँ, सचमुच ।दिन ढल आया ।अम्मा को सुगबुगाहट नहीं ।भाभी ने हिलाया ।भाभी चीख पडी।अम्मा चली गयी ।और फिर एक मायका खत्म होने लगा था की भाभी ने कलेजे से लगा लिया ।” रमा दीदी, आप का मायका खत्म नहीं हुआ है हम है न? आपकी भाभी, आप की माँ ।