शाम की नीरवता वातावरण में छाई हुई थी,बालकनी में बैठी स्वाति की आँखों के कोर गीले थे। वह उन दिनों को याद कर रही थी जब उसकी नई नई शादी हुई थी। बनारसी साड़ी का बड़ा शौक था उसे, पर ससुराल वालों ने भी शादी के मौके पर एक सादी सी साड़ी दे दी थी, माँ– बाप को भी 1000 रूपये की बनारसी साड़ी उस समय महँगी लगी थी। आँखों में बनारसी साड़ी का ख्वाब संजोए वह ससुराल आ गई,पर घर की जिम्मेदारियों के बीच उसका वह ख्वाब अधूरा ही रह गया।अब तो पति भी नहीं रहे जिनसे वह फरमाइशें करती और न ही वह उम्र रही बनारसी साड़ी पहनने की।
इस बार बहुत इसरार करने पर स्वाति बेटी के पास दस दिनों के लिए रहने आई थी, नाती नातिन के साथ दस दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला।आज वापस जाने का दिन था,बेटी शुभा का भी हृदय भरा हुआ था।स्वाति अपने ब्रीफकेस में कपड़े पैक रही थी तभी शुभा एक पैकेट लेकर आई और स्वाति को देते हुए बोली–माँ,ये वाली साड़ी पहन लो, मैंने तुम्हारे लिए खरीदी है,
तुम्हें इसे ही पहन कर जाना है।स्वाति ने जैसे ही पैकेट खोल कर देखा, उसमें लाल रंग की बनारसी साड़ी झिलमिला रही थी।स्वाति ने प्रश्नवाचक निगाहों से शुभा को देखा, शुभा ने झट से आकर माँ का हाथ पकड़ लिया और बोली–माँ, यह तुम्हारे लिए है, मैंने तुम्हें बचपन से देखा है हर इच्छा को दबाते हुए,पर अब नहीं। तुम्हें यही साड़ी पहन कर जाना है,अपनी खातिर–मेरी खातिर। सपनों को खत्म करना जीवन नहीं होता।इधर स्वाति सोच रही थी कि सिर्फ माँ–बाप से मायका नहीं होता, कभी कभी बेटियों से भी मायका होता है।इस बार मायका बेटी का नहीं बल्कि माँ का टूरिस्ट प्लेस बना हुआ था।
वीणा
झुमरी तिलैया
झारखंड