” मानिनी
और वह चली गई!
हमारे यहां काम-काज करने वाले गणेशी की नवविवाहिता कुछ ही दिन विवाहोपरांत साथ रहने के बाद एक दिन चली गई मायके. लाख समझाने बुझाने तथा गणेशी के गिड़गिड़ाने का भी कुछ प्रभाव नहीं पड़ा उस मानिनी पर…
पीछे मुड़कर देखती हूं तो यादों के पन्ने फड़फड़ाने लगे हैं. साफ हो रहा है एक एक चित्र. पी डब्ल्यू डी के वरिष्ठतम अभियंता की नौकरी. पति का कब कहां तबादला हो जाए. नई जगह जाकर फिर नए सिरे से घर जमाना. बच्चों की पढ़ाई डिस्टर्ब हो वह अलग. यूं बड़ा सा बंगला, आगे पीछे लाॅन, एक सर्वेंट क्वार्टर भी, जहां रहने के लिए कालोनी के संविदाकर्मियों में होड़. मुफ्त बिजली पानी, पंखे के मज़े. एवज में बंगले की साफ-सफाई. विवाहित हो तो पत्नी भी मेमसाब की घर के कामकाज में मदद करेगी. मेम साहब खुश हुईं तो समय समय पर बचाखुचा खाना, कुछ उतरन और बख्शीश भी.
हां तो, मैं बात कर रही थी, नई पोस्टिंग की, पहले ही दिन गणेशी आकर रहने को तैयार हो गया. सीधा शर्मीला सा 18-19 वर्ष का लड़का. कुछ दिन में ही हर छोटे बड़े काम के लिए गणेशी पर डिपेंड हो गई. काम पर जाने से पूर्व पूरे घर में सफाई करता, लाॅन में पानी लगातार, सुबह की चाय बनाकर वहीं जगाता था. शाम को फिर मदद के लिए जुट जाता. मुझे और बच्चों को भी वह घर का सदस्य सा लगने लगा था. आठवीं तक ही पढ़ पाया था, घर की परिस्थितियों के कारण काम पर लग गया.
और फिर एक दिन पास आकर शर्माते हुए बोला कि गांव जाना है. उसका ब्याह था. कुछ उधार भी मांगा. पांच दिन बाद लौटने का वादा किया. पड़ौस के नौकर को काम समझाकर गया कि हमें परेशानी न हो.
पांच दिन बाद गणेशी लौटा तो साथ में पत्नी भी थी. नाम था श्यामा. अच्छे नैन नक्श के साथ साथ, पता लगा दसवीं पास है. पांच बच्चों में सबसे बड़ी. पिता गांव के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हैं. जैसे तैसे वर ढूंढ कर विवाह कर दिया. मैंने भी अपनी तरफ से साड़ी देकर स्वागत किया. घर के कामकाज में एक और हाथ मिलने का आश्वासन मिला.
कुछ दिन सब ठीक चला. लेकिन एक दिन गणेशी का उतरा हुआ चेहरा मेरी नज़रों से न बच सका. श्यामा भी सर्वेंट क्वार्टर से कम ही बाहर निकलती. मेरी मदद तो क्या, उसकी सूरत भी न दिखती थी. गणेशी से पूछा भी, लेकिन टाल गया. कई बार गणेशी के साथ कुछ खाना आदि भी भिजवाया पर सब बेअसर.
फिर एक दिन पता चला, श्यामा वापिस मायके चली गई है. अब मुझसे रहा न गया, गणेशी को घेरकर सख्ती से पूछा तो फूटफूट कर रो पड़ा. उसका साहब के घर जाकर यूं काम करना श्यामा को पसंद न था. “मेरा पति यूं जाकर झाड़ू पोंछा करें, मैं सहन नहीं कर सकती. तनख्वाह के एवज में आफिस में तो दिनभर खटते ही हो, फिर ये सब…” गणेशी ने लाख समझाया, आसपास के नौकरों की ज़िन्दगी का हवाला दिया, नौकरी जाने का डर भी दिखाया, पर श्यामा नहीं मानी. और फिर रोज रोज की किचकिच से परेशान गणेशी का हाथ उठ गया. बस… वह स्वाभिमानी लड़की, वह मानिनी अपना सामान समेट माइके चली गई.
– डॉ. सुनील शर्मा
डॉ. सुनील शर्मा
गुरुग्राम, हरियाणा
#स्वाभिमान