मन्नतो का परिवार – तृप्ति शर्मा

 ,” नही पापा अभी मुझे शादी नही करनी,”इक्कीस साल की झनक पापा से इठलाती हुई बोली।वो भी इत्ते बड़े परिवार में, कितने सारे लोग रहते है वहा।मैं कैसे रहूंगी इतने लोगो के साथ।

      झनक अपने पापा के साथ रहती थी,उसकी मां डॉक्टर थी और अमेरिका में जॉब करती हैं जिन्होंने अपने जॉब और कैरियर के कारण झनक और उसके पापा पर कम ही ध्यान दिया है।

     झनक की दुनिया बचपन में अपने पापा मे ही सिमट के रह गई थी,जो अपने काम के चलते बहुत कोशिश करते उसे वो प्यार और समय देने की जिसकी वो हकदार थी। 

      झनक को अब आदत हो गई थी इस एकाकी पन की।पर उसके पापा की प्रार्थनाओ और मन्नतों मे झनक के लिए ऐसा परिवार होता जो उसे भरपूर प्यार दे सके।

      परिवार क्या होता है,परिवार का प्यार क्या होता है झनक को यह पता ही नही था,इसलिए झनक के पापा उसके जीवन की इस कमी को पूरा करने के लिए एक भरा पूरा परिवार ससुराल के रूप मे उसे देना चाहते थे। 

     उनकी यह तलाश पर्व के रूप मे पूरी हुई, भरापूरा और बहुत ही सुलझा हुआ परिवार था पर्व का, जहा की गूंजती हसी यह बता देती कि परिवार मे कितना तालमेल है,कभी माहौल खटपट करता तो बड़े पापा की सूझबूझ चटपट वातावरण मे शांति घोल देती।

   झनक के पापा को पर्व का परिवार बहुत पसंद आया,उन्हें लगता था यहीं वो परिवार है जिसे वो आशीर्वाद के रूप मे अपनी झनक को दे सकते है,जो उसके परिवार के प्यार की कमी को पूरा कर सकता है।

    झनक के न चाहते हुए भी उसकी शादी पर्व से हो गई, क्योंकि उसके पापा को पता था कि यही उसके लिए सही रहेगा,झनक को लगता कि वो किसी मेले मे आ गई हो।अपने बड़े से घर मे दो लोग दिखते थे यहा हर कमरे मे उसे लोग दिखाई देते।

    पर धीरे धीरे वो नए माहौल में अपने को ढालने की कोशिश करने लगी,उसका नया परिवार था भी बहुत प्यारा ।कभी उसका मन न लगता तो चाची और बच्चे उसे कब हंसा जाते हैं उसे पता ना चलता, कुछ नया खाने का मन होता तो मां झट बनाकर अपने हाथों से खिला देती ,वह देखती रह जाती ।यह सब नया था सारे एहसास नयापन लिए थे। बीमार होती तो बड़ी मां कड़वे काडे के साथ बहुत सारा प्यार लुटा देती यह, सब उसने अपने घर में नहीं देखा था।

      धीरे-धीरे भाने लगा था उसे यह प्यार यह मनोहार , पर्व उसे बहुत खुश रखता उसे हर खुशी देने की पूरी कोशिश करता ।बड़े पापा तो उसे सर आंखों पर बिठा कर रखते।

    अब वह कभी अपने परिवार से अलग जाने का नाम नहीं लेती थी रह नहीं पाती थी वह इन सब के बिना जो चहलपहल पहले उसे भीड़ लगती थी अब वही उसे अपनी जिंदगी लगती।

  जब कभी पापा उस से शिकायत करते हैं कि अबतो तू मुझे भूल ही गई है तो बड़े प्यार से कहती आपका ही दिया हुआ है यह मन्नतो का परिवार मुझे। 

  अब मुझे परिवार के प्यार और अहमियत की कीमत पता चली है अब इनसे दूर रहकर वह प्यार के पल कम नहीं करना चाहती है जिनसे बचपन से वंचित रही हूं।

     

   ~तृप्ति शर्मा

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