यह तो बिल्कुल मेरे जीवन की ही कहानी है। पत्रिका में छपी एक कहानी पढ़ते पढ़ते नीना खो सी गई थी, शादी के तेईस साल बाद भी उसके पति भी तो इसी तरह हर बात में “दिक्कत है तो अपना रास्ता देख लो”, कहते हिचकते नहीं है और वो तनाव से भर उठती है और तकरार भी कर बैठती है।
इच्छा तो होती है कि उठे इसी कदम से निकल जाए, लेकिन कहां, ना तो मायके जा सकती है और ना ससुराल। मायके में भी वही बेटी पंचायत बिठा सकती है, जो गलत सही हर बात पर गलत सही बोल कर सबका मुंह बंद करा सके और ससुराल में भी उसी बहू का वर्चस्व होता है,
जो किसी का अदब नहीं करती हो और नीना तो इन खूबियों से रिक्त ही रही है, मायके वाले भी सुना जाते हैं और ससुराल में भी वो कुछ बोलने से बचती ही रही है, इस कारण नीना इन दोनों के किसी खाँचे में फिट ही नहीं होती तो कहाॅं जाए। मन मसोस कर हर बार इस कहानी की नायिका की तरह घर के कामों में खुद को डूबा देती रही है।
लेकिन आज घर के कामों के बीच भी वो अतीत में ही डूबती उतरती रही। यूं तो समाज में विवाहिता नारियों की स्थिति को देखकर उसकी हमेशा विवाह न करने की ही इच्छा रही थी क्योंकि उसकी सोच में उसने अपने पति के लिए एक छवि बना रखी थी, उसे केवल पति के रूप में नहीं, एक दोस्त एक हमराही की भूमिका में नीना देखती थी,
लेकिन समाज के उठापटक को देखकर विवाह की उसकी इच्छा भी कभी नहीं हुई। जिधर देखती तानों, उलाहने पाती नारी ही दिखती। वो सोचा करती थी कि लोग कहते हैं ताने, उलाहने सिर्फ स्त्रियां देती हैं, लेकिन पुरुष भी तो बिल्कुल उसी तर्ज पर तानों, उलहनों की बौछार करते हैं।
यदि स्त्री उन व्यंग्य बाणों को झेल गई तो शांति बनी रह जाती और यदि धैर्य जवाब दे गया तो इस अहाते से निकल तकरार जाने किस किस अहाते से गुजर जाता था और यदि पुरुष का मन इससे भी ना भरा तो बच्चों को यह नहीं मिलेगा, वह नहीं मिलेगा कहकर प्रताड़ित करने लगता, ये प्रताड़ना बच्चों से ज्यादा बच्चों की मां के लिए होता था। क्या वे बच्चे उस पुरुष के नहीं होते हैं, क्या पुरुष सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाते हैं,
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नीना अक्सर घर बाहर की तकरार को देख सोच में पड़ जाती और विवाह की इस संस्था से मुंह मोड़ लेने की उसकी इच्छा होने लगती। उसकी चाहत जो भी हो, थी तो वो माता पिता के लिए जिम्मेदारी ही, इसलिए बीस बाईस की होते होते हाथ पीले कर इस जिम्मेदारी से भी मुक्त हो वो भी गंगा नहा लिए और नीना विदा हो गई अपने पति के साथ उसकी कर्मस्थली।
पति, जिसे वो दोस्त क्या कभी पति जैसा भी नहीं लगा। उसे याद हो आया, ट्रेन का वो पहला सफर, जब पति के साथ गृहस्थी बसाने के लिए उसके कदम चले थे। उसने तो पति से कामना की थी प्रेम भरी बोली की, आत्मीयता की, लेकिन ट्रेन की उस बोगी में, धरधराते इंजन की आवाज में पति ने कहा था,
मुझसे कोई उम्मीद मत रखना, मेरी माॅं की इच्छा के कारण मैंने विवाह किया है। नवयौवना नीना की कामना का पहली सीढ़ी उसके पग रखने से पहले ही धाराशायी हो गई। किसी तरह नीना ने अपना मन संभाला था और गृहस्थी की शुरुआत की थी, लेकिन उसे क्या पता था कि पति के रूप में उसके सब्र का परीक्षा लेने वाला पर्यवेक्षक मिला है।
हर बात में कमी निकालना, कुछ उत्तर देने पर कई कई दिन तक खाना नहीं खाकर मानसिक कष्ट पहुंचाना उसकी फितरत ही थी। धीरे धीरे उसे समझ आया कि ये उसके पति की ही नहीं, उसके ससुराल के पुरुषों की ही समस्या है, जिसे ससुराल की औरतों ने इतना बढ़ावा दिया है कि ना चाहते हुए भी नीना को भी सब कुछ बर्दाश्त करना है।
बच्चों के जन्म के बाद भी नीना के पति के स्वभाव में कोई खास अंतर नहीं आया। उसके लिए उसके बीवी बच्चे उसके गुलाम ही तो थे। नीना सोच रही थी की अक्सर लोग कहते हैं कि स्त्री से घर होता है लेकिन उसका अनुभव कहता है कि पुरुष से घर होता है, मालिक खुश तो घर का माहौल भी खुशनुमा और यदि मालिक का मिजाज खराब है तो घर में मुर्दनी ही तो छाई रहती है,
फिर औरत से कहां घर हुआ, घर तो सिर्फ पुरुषों का होता है। उसे तो याद भी नहीं कि इतने सालों में वो पति के साथ कभी जोर से हंसी भी है या नहीं, उसे अगर कुछ याद है तो डांट फटकार और अश्रु की धाराएं। जब अपनी हमउम्र सहेलियों को उनके पति के साथ ठहाके लगाते या खुशियां बांटते देखती है तो मन मसोस कर रह जाती है कि उम्र का हर पड़ाव गुजर गया, चालीस भी पार कर गई वो, लेकिन इच्छाएं वही की वही रह गई।
ऐसा नहीं था कि उसने पति से बात करने की कोशिश नहीं की थी लेकिन हाथ घुमा घुमा कर पति उसकी ही सारी गलती निकाल खुद को साफ बता कर उसके हृदय को बिंधता ही चला गया। नीना ने अपने मन को यह सोच कर मना लिया कि ना ही यह घर उसका है और ना ही यह पुरुष ही उसका पति है, दोनों ही एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक साथ हैं,
रीते हाथ आई थी और रीते हाथ जाना उसकी नियति है। और मन का यह तकरार एक दिन इतना बढ़ गया कि अब नीना को ना तो पति की कोई बात सुनाई देती है, ना समझ आती है और ना ही याद रहती है।
मन का तकरार भले ही दिखता नहीं हो, लेकिन यह तकरार घर की जड़ों को खोखला कर देता है, घर का मालिक यह बात कभी समझना ही नहीं चाहता और अपने हाथों से एक लड़की के हृदय के साथ साथ गृहस्थी भी उजाड़ देता है।
आरती झा आद्या
दिल्ली
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